असम की एक लाइब्रेरी की चर्चा अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया तक है। बस फर्क इतना है कि इस लाइब्रेरी में आपको लेखकों द्वारा लिखी गई किताबें या फिर उपन्यास नहीं मिलेंगे बल्कि यहां पर किसानों की कला को सहेजा जा रहा है। साथ में सहेजी जा रही है असम की खाद्य संस्कृति।
जी हाँ, यह लाइब्रेरी है – अन्नपूर्णा सीड लाइब्रेरी जो असम की देसी और पारंपरिक चावल की किस्मों को सहेज रही है। यह कैलिफ़ोर्निया स्थित रिचमोंड्स ग्रोव्स सीड लेंडिंग लाइब्रेरी की सिस्टर लाइब्रेरी है।
इस महान काम को शुरू किया असम के जोरहाट में रहने वाले किसान मोहान चंद्र बोरा ने। बोरा बताते हैं कि पहले वह सिर्फ बीजों को संरक्षित करने का काम करते थे। लेकिन फिर उन्हें रिचमोंड्स लाइब्रेरी के बारे में पता चला जिसका सिद्धांत है कि बीज बोइए, कुछ फसल में जाने दीजिए और कुछ को सहेजिए ताकि दूसरों को उगाने के लिए दिया जा सके। यही सिद्धांत बोरा के उद्देश्य को भी आगे बढ़ने में मदद कर रहा है। लोग अन्नपूर्णा लाइब्रेरी से देसी बीज लेते हैं, फसल उगाते हैं, और उसमें से जो बीज बनाते हैं, उसे आगे अन्य किसानों को देते हैं।
इस तरह से देसी और पारंपरिक चावल की किस्मों का संरक्षण भी हो रहा है और किसानों में जागरूकता भी बढ़ रही है।
इतिहास विषय में स्नातक मोहान बोरा ने अपने पिता की खेती की तरफ रुख किया। 3 बीघा ज़मीन में घर-परिवार के लिए चावल और कुछ साग -सब्ज़ियां उगाई जाती थी। बोरा कहते हैं कि उन्होंने खेती हमेशा ही जैविक तरीकों से की। कभी भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया।
बोरा ने बताया, “हमारे इलाके में बहुत से संगठन काम करते हैं जो खेती को लेकर काफी-कुछ जानकारी देते हैं। मैं भी एक सामाजिक संगठन से जुड़ गया, जिनसे मुझे जैविक खेती के बारे में और देसी बीजों के बारे में सीखने को काफी कुछ मिला। उनके सहयोग से ही मेरा मिलना बाहर से आने वाले शोधकर्ताओं से भी हुआ। जब भी कृषि पर कहीं कोई सेमिनार-वर्कशॉप होता तो मैं पहुंच जाता। मुझे इतना तो समझ में आने लगा था कि ज्यादा उपज और ज्यादा मुनाफे के चक्कर में हम अपनी देसी किस्मों को खोने लगे हैं।”
‘एकला चालो रे’ की नीति
मोहान बोरा ने बहुत से लोगों के सामने यह बात रखी कि उन्हें अपने देसी चावलों की किस्मों को बचाने के लिए कुछ करना चाहिए। लेकिन हर किसी का जवाब होता कि जब साधन होंगे तो इस पर भी काम किया जाएगा। ऐसे में, बोरा ने ‘एकला चलो रे’ की नीति अपनाई। उन्होंने अपने स्तर पर ही इन बीजों का संरक्षण शुरू कर दिया।
बोरा बताते हैं कि पिछले 12 सालों से वह यह काम कर रहे हैं और उनका सफ़र मात्र 3 चावल की किस्मों से शुरू हुआ था। लेकिन आज उन्होंने चावल की 270 देशी और पारंपरिक किस्में इकट्ठा की हैं। जिनमें काले चावल, लाल चावल और सफेद चावल की अलग-अलग किस्म शामिल है। असम में चार तरह के चावल बोए जाते हैं: बाओ धान (गहरे पानी में लगने वाले चावल), शाली चावल (शीत ऋतू में बोए जाने वाले), अहू (पतझड़ में लगने वाले), बोरो (गर्मियों के चावल)! बोरा की लाइब्रेरी में आपको इन चारों ऋतुओं में लगने वाले अलग-अलग गुण के चावलों के बीज मिल जाएंगे।
हर एक किस्म दूसरी से जुदा है, किसी की खुशबू लाजवाब होती है तो कोई चावल अत्यंत पौष्टिक होता है। किसी के दाने लम्बे तो किसी के बहुत मोटे और छोटे होते हैं। बोरा कहते हैं कि उन्होंने इन बीजों को पूरे उत्तरी-पूर्वी भारत के दूर-दराज के इलाकों में घूम-घूमकर इकट्ठा किया है। वह जहां से भी बीज लाते उसे अपनी ही ज़मीन के एक टुकड़े पर बोते और फिर इन बालों को सहेज कर रख लेते। दानों को वह बालों से तब तक नहीं निकालते जब तक कि उन्हें बोने के लिए ज़रूरत नहीं है।
पहले उन्होंने खुद के लिए एक बीज बैंक तैयार किया था लेकिन फिर उन्होंने इसे ‘अन्नपूर्णा सीड लेंडिंग लाइब्रेरी’ का रूप दे दिया। किसान उनसे देसी किस्मों के बीज ले जाने लगे। उन्होंने किसानों को जागरूक किया कि उपज लेने के साथ-साथ वह इन बीजों को बचाएं भी और दूसरे किसानों तक पहुंचाए। आज किसान उनके पास देसी बीज देने भी आते हैं। मोहान बोरा हर एक किस्म के अलग-अलग गुणों को देखकर, समझकर लिखते भी हैं। उन्होंने हर एक किस्म के गुणों को लिखा हुआ कि किस बीज को कितना पानी चाहिए, कितने दिनों में पौध तैयार होगी, पोषण की क्षमता क्या है, कितने दिनों में फसल तैयार होगी और कितनी उपज मिलेगी आदि।
मोहान किसानों को हमेशा ही अलग-अलग चावलों के गुणों के बारे में बता देते हैं ताकि वे खुद तय करें कि उन्हें कौन सी किस्म का चावल उगाना है। वह आगे कहते हैं, “ये देसी किस्में किसी भी तरह के मौसम और जलवायु को झेल सकती हैं जैसे बाढ़, सूखा आदि। लेकिन हाइब्रिड बीजों की वजह से अब इनका उत्पादन बहुत ही कम हो गया है। मैं चाहता हूँ कि हमारे किसान इस बात को समझे कि अगर हम अपनी देसी किस्में उगाएंगे तभी हमारा खाना सुरक्षित होगा और प्रकृति भी।”
बोरा की यह पहल राज्य के दूसरे हिस्सों तक भी पहुंची है। उन्होंने सदिया, बलिपारा और काजीरंगा में भी इस तरह की बीज लाइब्रेरी शुरू करवाई हैं।
आने वाली पीढ़ी को सौंप रहे हैं विरासत
मोहान बोरा के काम की खासियत यह है कि उन्होंने इसे सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रखा है बल्कि वह लगातार स्कूल-कॉलेज के छात्रों से जुड़े हुए हैं। वह अलग-अलग जगह वर्कशॉप और सेमिनार करने जाते हैं। इसके अलावा, वह एक स्कूल में पिछले 9 सालों से जैविक खेती, देसी बीजों का संरक्षण जैसे विषय पढ़ा रहे हैं। स्कूल के प्रधानाचार्य, दिव्यज्योति शर्मा ने द बेटर इंडिया को बताया, “स्कूल के पास 10 एकड़ ज़मीन है और इसे हम बच्चों को खेती के गुर सिखाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। बोरा ने जो पहल शुरू की है उसकी बहुत ज़रूरत है आज के बच्चों को। वह हमारे यहाँ नियमित रूप से जैविक खेती के तरीके, खाद बनाना, बायोपेस्टीसाइड बनाना सिखाते हैं।”
इसके अलावा, बोरा हर साल आठवीं और नौवीं कक्षा के बच्चों को अलग-अलग देसी किस्म के बीज देते हैं जिन्हें वह बच्चे अपने घरों में खाली ज़मीन पर या फिर अपने खेतों में लगाते हैं। शर्मा के मुताबिक हर साल उनके छात्र बोरा की लाइब्रेरी के लिए बीज देते हैं और साथ ही, उन्होंने अपना स्कूल का बीज बैंक भी शुरू किया है।
“स्कूल में हमारी कोशिश बच्चों को ऐसे विषय सिखाने की ही रहती है जो आगे उनकी जिंदगी में काम आए। हम खेती के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक्स के विषय भी सिखा रहे हैं और हमारे यहां एक हैंडलूम सेंटर भी है। हम नहीं चाहते कि हमारी आने वाली नस्ल बाहर शहरों में मजदूरी करने जाए। उससे बेहतर है कि वे यहीं रहते हुए अपने समुदाय और समाज के लिए काम करें जैसे कि खेती। बाकी, अभी लॉकडाउन में लोगों को समझ में आ रहा है कि इंसान को अपनी जड़ों के पास ही रहना चाहिए,” उन्होंने आगे कहा।
स्कूल के अलावा वह ककोजन कॉलेज में भी छात्रों को जैविक खेती में एक सर्टिफिकेशन कोर्स कराते हैं। उनका उद्देश्य आने वाली नस्ल को इस विरासत को सम्भालने के लिए तैयार करना है।
खाने की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है बीजों को सुरक्षित करना
बोरा कहते हैं कि हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि हम ऐसी फसलों पर निर्भर करें जो स्थानीय हैं। बदलते मौसम की वजह से आने वाली बाढ़, तूफ़ान या फिर सूखे को झेल सकती हैं। हाइब्रिड बीजों में यह गुण नहीं मिलते। उनसे आपको उच्च उत्पादन मिल सकता है लेकिन उच्च गुणवत्ता और लम्बे समय तक टिके रहने की क्षमता सिर्फ देसी बीजों में होती है।
इसलिए बहुत ज़रूरी है कि हर एक इलाके के लोग फसलों की स्थानीय, देसी और पारंपरिक किस्मों को सह्रेजें फिर चाहे अनाज हो या फिर साग सब्ज़ियाँ। उन्होंने बीज लाइब्रेरी की जो चैन शुरू की है उसे वह पूरे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में फैलाना चाहते हैं। वह कहते हैं कि उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चावल का काफी उत्पादन होता है। उनके पूर्वज बरसों से वही करते आए और अब वह भी यही कर रहे हैं, इस उम्मीद के साथ कि आने वाली नस्लें इस विरासत को आगे बढ़ाएंगी।
बोरा ने बताया, “मुझे मेरे काम के लिए सराहना तो बहुत मिली है लेकिन आर्थिक मदद बहुत ही कम मिली है। यदि कोई मेरे इस अभियान में मेरी आर्थिक मदद कर सकता है तो और भी अच्छे स्तर पर काम हो सकता है। फ़िलहाल, मेरा घर ही मेरी लाइब्रेरी है लेकिन अगर हमें बड़े स्तर पर जाना है तो इसके लिए मुझे सबकी मदद चाहिए।”
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यदि आपको मोहान चंद्र बोरा से और अधिक जानकारी चाहिए तो आप उन्हें उनके फेसबुक पेज पर मैसेज कर सकते हैं!