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कानून और समाज से लड़कर बनी देश की पहली महिला माइनिंग इंजीनियर!

ज भी देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की संख्या न के बराबर हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र है माइनिंग (खनन)। साल 1952 का माइन एक्ट कहता है कि महिलाओं को अंडरग्राउंड माइंस में काम करने की अनुमति नहीं है और वे केवल ओपनकास्ट माइंस में ही काम कर सकती हैं।

लेकिन जब साल 2016 में धनबाद के इंडियन स्कूल ऑफ़ माइंस ने घोषणा की, कि अब वे माइनिंग इंजीनियरिंग में लड़कियों को भी दाखिला देंगे तो इस फ़ैसले का समर्थन और भी कई नामी संस्थानों ने किया। पर इस फ़ैसले के आने से सालों पहले ही एक लड़की ने बिना किसी बदलाव की प्रतीक्षा किये प्रशासन को चुनौती देकर माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की।

वह लड़की थी डॉ. चंद्राणी प्रसाद वर्मा, जो साल 1999 में अपने ढृढ़ संकल्प के दम पर देश की पहली महिला माइनिंग इंजीनियर बनी।

डॉ चंद्राणी प्रसाद वर्मा

आज डॉ. चंद्राणी सीएसआईआर- केंद्रीय खनन और ईंधन अनुसंधान संस्थान [सीएसआईआर-सीआईएमएफआर] में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं।

चंद्राणी के पिता माइनिंग इंजीनियर थे इसलिए उनका रुझान भी उस तरफ हुआ। जब उन्होंने इस क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करनी चाही तो किसी भी कॉलेज ने अनुमति नहीं दी।

ऐसे में चंद्राणी और उनके पिता ने एक वकील के माध्यम से कोर्ट में याचिका दायर की, कि शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव हो रहा है। साल 1996 में अदालत के फ़ैसले के बाद चंद्राणी को ‘स्पेशल केस’ में माइनिंग इंजीनियरिंग में प्रवेश लेने की अनुमति मिली। यह इस भेदभाव के ख़िलाफ़ उनकी पहली जीत थी।

हालांकि, वे बताती हैं कि जब वे दाखिले के लिए काउंसलिंग में बैठी तो सभी प्रोफेसर हैरान थे कि उन्होंने माइनिंग इंजीनियरिंग को चुना है।

“उन्होंने मुझसे कुछ और चुनने के लिए कहा, लेकिन मैं इसी पर अडिग रहीं। मुझे यहाँ तक कहा गया कि मुझे कभी इस क्षेत्र में नौकरी नहीं मिलेगी,” चंद्राणी याद करते हुए बताती है!

डीडी सह्याद्री से पहली महिला माइनिंग इंजीनियर बनने के लिए हिरकानी पुरस्कार लेते हुए डॉ चंद्राणी

साल 1999 में चंद्राणी ने रामदेवबाबा इंजीनियरिंग कॉलेज, नागपुर से बी. ई (माइनिंग इंजीनियरिंग) की डिग्री पूरी की।अपने कॉलेज की टॉपर होने के बावजूद उन्हें लड़की होने के कारण माइनिंग के क्षेत्र में नौकरी नहीं मिल रही थी। पर चंद्राणी ने हार नहीं मानी। उन्होंने प्रोफेसर के तौर पर अपना करियर शुरू किया।

साथ ही, उन्होंने साल 2006 में अपनी मास्टर्स की डिग्री की। साल 2007 में उनकी शादी हो गयी और एक साल बाद उन्हें एक प्यारा सा बेटा हुआ। लेकिन घर-परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए उन्होंने अपने करियर को भी सम्भाले रखा।

साल 2015 में उन्होंने डॉ. एन.आर थोट, प्रोफेसर, माइनिंग विभाग, वीएनआईटी, और प्रसिद्ध संख्यात्मक मॉडलिंग विशेषज्ञ डॉ. जॉन लुई पोराथुर, प्रिंसिपल साइंटिस्ट, सीआईएमएफआर, नागपुर के मार्गदर्शन में अपनी पीएचडी की डिग्री पूरी की। डॉ. थोट का कहना है कि कोई भी नयी चुनौती लेने से चंद्राणी कभी नहीं घबराई।

पीएचडी की डिग्री लेते हुए

यहाँ तक कि जब अपनी पीएचडी के दौरान उन्हें कोयले के लगभग 400 सैंपल की जिओ-टेक्निकल टेस्टिंग करनी थी तो बिना किसी हिचक के वे आगे बढीं। हालांकि, यह टेस्टिंग लैब तकनीशियन करते हैं और इसके पैसे लेते हैं। चंद्राणी के केस में उन्होंने ज्यादा फीस मांगी क्योंकि उन्हें लगा कि चंद्राणी खुद कुछ भी नहीं कर पाएंगी। पर ज्यादा पैसे देना तो दूर की बात चंद्राणी चेहरे पर स्कार्फ बांधकर खुद लैब में चली गयीं।

उन्होंने दो महीने के अन्दर, कोयले के लगभग 600 सैंपल की टेस्टिंग खुद ही की।

लैब में काम करते हुए

सीएसआईआर- केंद्रीय खनन और ईंधन अनुसंधान संस्थान में नौकरी के साक्षात्कार में बैठने वाली चंद्राणी अकेली महिला थीं। उन्होंने इंटरव्यू के लिए लगभग आधी रात तक इंतजार किया। पूरा इंटरव्यू पैनल चंद्राणी के चुनाव को लेकर संशय में था क्योंकि वे एक महिला हैं और उन्हें एक रिसर्च फेलो के तौर पर खुद खदानों में काम करना था।

पर पैनल के एक सदस्य डॉ. अच्युत कृष्ण घोष ने चंद्राणी का समर्थन किया। घोष ने कहीं न कहीं चंद्राणी के आत्मविश्वास और हौंसले को भांप लिया था और उन्हें पूरा विश्वास था कि चंद्राणी इस पोस्ट के लिए एक बेहतर वैज्ञानिक साबित होंगी। डॉ. घोष के कारण ही उन्हें चुन लिया गया और वे बन गयी देश की पहली महिला माइनिंग वैज्ञानिक।

आज डॉ चंद्राणी देश की हर लड़की के लिए प्रेरणा हैं, जो हर उस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती हैं जिसे महिलाओं के लिए ‘सही’ नहीं माना जाता। कोई भी पहले से तय नहीं कर सकता कि एक महिला क्या काम कर सकती है और क्या नहीं। क्योंकि आज महिलाएं सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित कर रही हैं।

मूल लेख व संपादन – मानबी कटोच


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