जितना सुंदर गुजरात का कच्छ इलाका है, उतनी ही सुंदर यहां की कशीदाकारी और बुनाई भी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पहले कच्छ के कई बुनकर परिवारों में महिलाओं को बुनाई का काम करने की अनुमति नहीं मिलती थी? परिवार के पुरुष बुनाई का काम करते थे जबकि महिलाएं बच्चों की देखभाल और घर का काम संभालती थीं। लेकिन समय के साथ बहुत कुछ बदला है। आज हम आपको कच्छ की एक ऐसी महिला कलाकार के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र की कला को एक नया रूप दिया है।
यह कहानी कच्छ से 35 किमी दूर स्थित कोटाय गांव की राजीबेन वांकर की है। बुनकर परिवार में जन्मी राजीबेन, कच्छ कला को एक बिल्कुल ही नया रूप दे रही हैं। वैसे तो सामान्य रूप से कच्छ कला में बुनाई और कशीदाकारी का काम रेशम या ऊन के धागे से होता है, लेकिन राजीबेन बुनाई का काम प्लास्टिक वेस्ट से करती हैं।
राजीबेन, प्लास्टिक वेस्ट से बुनाई करते हुए ढेर सारे प्रोडक्टेस बना रही हैं। उनके उत्पादों की प्रदर्शनी मुंबई और बेंगलुरू में भी लग चुकी है। भले ही आज उनके बनाए उत्पादों की हर जगह तारीफ हो रही हो, लेकिन यहां तक पहुंचने का उनका सफर आसान नहीं रहा।
पिता से छुपकर सीखा बुनाई का काम
कच्छ के बुनकर परिवार से ताल्लुक रखने वाली राजीबेन के पिता पेशे से किसान थे, लेकिन उनके परिवार के बाकी पुरुष सदस्य बुनाई का काम किया करते थे। राजीबेन के पिता खेती-बाड़ी से बड़ी मुश्किल से परिवार का गुजारा चला पाते थे। ऐसे में राजीबेन हमेशा से चाहती थीं कि वह बुनाई का काम सीखें और पिता की मदद करें।
उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “हम छह भाई-बहन हैं। दो बड़ी बहनों की शादी करने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। मैं उस समय पिता से छुपकर अपने चचेरे भाइयों से बुनाई का काम सीखने जाया करती थी, लेकिन 18 साल होते ही मेरी भी शादी कर दी गई और मैं पिता की कोई मदद नहीं कर पाई।”
विषम परिस्थिति में काम आया हुनर
शादी के बाद तो राजीबेन ने फिर से बुनाई के काम से जुड़ने के ख्वाब देखना छोड़ ही दिया था। उनके जीवन का संघर्ष बढ़ता ही जा रहा था। शादी के 12 साल बाद 2008 में, उनके पति का दिल दौरा पड़ने से निधन हो गया। जिसके बाद राजीबेन के ऊपर अपने तीन बच्चों की जिम्मेदारी आ गई। जीवन के उन कठिन दिनों को याद करते हुई वह कहती हैं, “पति के निधन के बाद मुझे घर से बाहर जाकर काम करने की अनुमति नहीं थी। घर में खाने-पीने की तंगी हो गई थी। तब मेरी बड़ी बहन ने मुझे अपने पास अवधनगर बुला लिया और एक कंपनी में मजदूरी का काम भी दिलाया, जिससे मैं अपने बच्चों का पालन-पोषण कर सकूं।”
राजीबेन ने तक़रीबन दो साल तक मजदूरी का काम किया। लेकिन कहते हैं न कि अगर आपके पास हुनर है, तो कभी न कभी आपको आगे बढ़ने का रास्ता मिल ही जाएगा। राजीबेन के साथ भी यही हुआ। साल 2010 में वह अवधनगर स्थित कुकमा की ‘खमीर’ नाम की एक संस्था से जुड़ गईं, जहां बुनाई का काम किया जाता था। साल 2001 में कच्छ में आए विनाशकारी भूकंप के बाद, यह संस्था इलाके के कलाकारों के लिए काम कर रही है। यह संस्था महिला बुनकरों को विशेष रूप से काम देती है। राजीबेन ने इस मौके का फायदा उठाया और संस्था में काम करने लगीं। संस्था में राजीबेन ऊनी शॉल बनाने का काम करती थीं। जिसके लिए उन्हें 15000 रुपये प्रति माह तनख्वाह मिलती थी।
राजीबेन कहती हैं, “मुझे दूसरी महिलाओं को भी बुनाई सिखाने का काम दिया गया। खमीर संस्था से जुड़कर मैंने कई प्रदर्शनियों और वर्कशॉप में भाग लिया। संस्था ने मुझे लंदन भी भेजा था।”
फ्रेंच डिज़ाइनर ने सिखाया प्लास्टिक बुनाई का काम
कच्छ की कला को देखने और सीखने खमीर में देश-विदेश से कई डिज़ाइनर आते रहते थे। साल 2012 में एक फ्रेंच डिज़ाइनर Katell Gilbert ने खमीर का दौरा किया था। वह राजीबेन के काम से प्रभावित हुई और उन्हें वेस्ट प्लास्टिक की बुनाई का काम सिखाया।
राजीबेन ने Katell से सीखकर प्लाटिक बुनाई का काम करना शुरू किया। उन्होंने साल 2018 में वेस्ट प्लस्टिक से बनाए प्रोडक्ट्स के साथ लंदन की एक प्रदर्शनी में भी हिस्सा लिया था।
लंदन से आने के बाद राजीबेन ने सोचा कि अब उन्हें खुद का काम करना शुरू करना चाहिए, इसलिए उन्होंने संस्था में काम करना छोड़ दिया।
कैसे शुरू किया खुद का ब्रांड?
वैसे तो राजीबेन को कच्छ कला की पूरी जानकारी थी, लेकिन मार्केटिंग कैसे की जाती है, यह उन्हें पता नहीं था। इसी बीच उनका संपर्क अहमदाबाद के नीलेश प्रियदर्शी से हुआ। नीलेश ‘कारीगर क्लिनिक’ नाम से एक बिज़नेस कंसल्टेंसी चलाते हैं।
नीलेश कहते हैं, “कारीगर क्लिनिक एक सोशल एंटरप्राइज है, जिसमें हम कलाकरों को खुद की पहचान बनाने में मदद करते हैं। हम राजीबेन के बारे में जानते थे, उनकी प्लास्टिक बुनाई काफी अच्छी है। जब हमें पता चला कि वह खुद का काम शुरू करना चाहती हैं, तो हमने उनकी मदद करके का फैसला किया।”
साल 2019 से वह, राजीबेन के प्लास्टिक वेस्ट से बने प्रोडक्ट्स को देशभर में पहुंचाने का काम कर रहे हैं। लॉकडाउन के पहले उन्होंने राजीबेन को मुंबई में काला घोड़ा फेस्टिवल में भाग लेने भी भेजा था। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने इन प्रोडक्ट्स की ऑनलाइन बिक्री का काम भी शुरू किया।
वहीं, हाल ही में राजीबेन बेंगलुरु में भी एक प्रदर्शनी में भाग लेने भी थीं, जिसमें उन्होंने तक़रीबन एक लाख रुपये से ज्यादा का बिज़नेस किया।
प्लास्टिक वेस्ट से कैसे बनते हैं प्रोडक्ट्स?
फ़िलहाल राजीबेन के साथ 30 महिलाएं काम कर रही हैं। कच्छ के अलग-अलग इलाकों से प्लास्टिक वेस्ट लाने के लिए आठ महिलाएं काम कर रही हैं। महिलाओं को एक किलो प्लास्टिक वेस्ट के एवज में 20 रुपये मिलते हैं। इस तरह जमा किए गए प्लास्टिक वेस्ट को पहले धोकर सुखाया जाता है। जिसके बाद इसे रंगों के आधार पर अलग किया जाता है। फिर इस प्लास्टिक की कटिंग करके धागे बनाए जाते हैं। जिसके बाद बुनाई का काम होता है। एक बैग बनाने में वे तकरीबन 75 प्लाटिक बैग को रीसायकल करते हैं।
प्लास्टिक धोने के लिए महिलाओं की प्रतिकिलो 20 रुपये दिए जाते हैं, जबकि कटिंग करने वाली महिलाओं की प्रति किलो 150 रुपये दिए जाते हैं। साथ ही एक मीटर शीट बनाने पर महिलाओं को 200 रुपये दिए जाते हैं।
फिलहाल वह तकरीबन 20 से 25 प्रोडक्ट्स बना रही हैं, जिसकी कीमत 200 से 1300 रुपये तक है।
राजीबेन के साथ काम करने वाली जीवी बेन कहती हैं, “मैं पहले कॉटन बुनाई का काम करती थी। लेकिन लॉकडाउन के दौरान राजीबेन ने मुझे काम दिया, जिसके बाद मैं उसी तकनीक से प्लास्टिक वेस्ट की चटाई बना रही हूं। मैं यहां महीने के चार हजार रुपये कमा लेती हूं।”
राजीबेन आज इन महिलाओं को रोजगार से जोड़ने के साथ-साथ प्लास्टिक वेस्ट के प्रबंधन में भी मदद कर रही हैं।
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संपादन- जी एन झा
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