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IIT Roorkee ने चीड़ के पत्तों से बनाया पेपर, अब जंगलों में लगनेवाली आग के मामले होंगे कम

pine Leaves, keertiraj Gaikwad

चीड़ के पेड़ से निकलने वाली पाइन नीडल (चिलारू) अब हिमालय पर्यावरण और वन्य जैव विविधता के लिए खतरा नहीं बनेंगी। आईआईटी रुड़की के शोधकर्ताओं ने पाइन नीडल वेस्ट से एथिलीन स्कैवेंजिंग फंक्शनल पेपर डेवलप किया है, जिससे भविष्य में सस्टेनेबल पैकेजिंग (Sustainable Packaging from Pine needle) को बढ़ावा दिया जा सकेगा। 

दरअसल, पाइन नीडल्स के सही उपयोग पर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है। ये नीडल्स पहाड़ी इलाकों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इसके कारण ही जंगल में आग का खतरा बढ़ जाता है। इसमें मौजूद हाई सेल्युलोसिक कंटेंट के कारण, पाइन नीडल्स एक टिकाऊ पैकेजिंग मटेरियल में ट्रांसफॉर्मेशन के लिए काफी अच्छा एलीमेंट है।  

कमर्शियल अवेलिबिलिटी व आवश्यकताओं पर कर रहे काम

Kirtiraj Gaikwad & Avinash Kumar

आईआईटी रुड़की के प्रोफेसर कीर्तिराज गायकवाड़ ने बताया, “मेरी रिसर्च टीम “Functional Food Packaging Lab” , पैकेजिंग के क्षेत्र में काम कर रही है। इस टीम में अलग-अलग तकनीकी विषयों में मजबूत पकड़ रखने वाले रिसर्च स्टूडेंट्स हैं। यह टीम मैकेनिकल और केमिकल बैकग्राउंड के साथ-साथ पेपर-पैकेजिंग टेक्नोलॉजी और फूड टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इंडस्ट्रियल समझ रखने वाले रिसर्च स्टूडेंट्स का बेहतरीन कॉम्बिनेशन है।“ 

प्रोफेसर गायकवाड़ के मार्गदर्शन में, मुख्य रूप से रिसर्च स्टूडेंट अविनाश कुमार और टीम ने इस रिसर्च वर्क को किया है। उन्होंने कहा, “यह रिसर्च तो अभी हमारे मुख्य उद्देश्य की शुरूआत भर है। टीम के अन्य सदस्य इसकी अलग-अलग कमर्शियल अवेलिबिलिटी और आवश्यकताओं पर काम कर रहे हैं।“ 

प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में से एक पैकेजिंग वेस्ट

कीर्तिराज गायकवाड़ ने कहा, “आज के समय में पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में से एक पैकेजिंग वेस्ट भी है। केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के अनुसार, साल 2018-19 में भारत में 33 लाख टन पैकेजिंग वेस्ट था। इस कूड़े के ढेर को सस्टेनेबल पैकेजिंग उपायों से ही कम किया जा सकता है। विकसित देश, भारत जैसे विकासशील देशों पर लगातार पर्यावरण की अनदेखी करने का आरोप लगाते हैं। जबकि सच्चाई इसके उलट है। इस तरह की रिसर्च निश्चित तौर पर इन आरोपों को वैश्विक स्तर पर सिरे से खारिज करने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं।“

प्रोफेसर गायकवाड़ ने अमेरिका की मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी  से M. Sc. (Packaging Technology) की है। उन्होंने साउथ कोरिया की योनसेई यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. (Packaging Technology) की है।

पाइन निडल को ही क्यों चुना?

Research Team of Pine needle, IIT Roorkee

प्रोफेसर गायकवाड़ ने बताया, “हमारी रिसर्च टीम ऐसे कई तरह के वेस्ट को व्यवसायिक रूप से प्रयोग करने पर काम कर रही है। पाइन नीडल से फंक्शनल पेपर (कागज) बनाने में सफलता मिलने के बाद, हमारी रिसर्च टीम के उद्देश्य “द वेस्ट टू वेल्थ” को एक नई दिशा मिल गई है।” गौरतलब है कि सालाना 13 लाख टन पाइन नीडल पर्वतीय क्षेत्रों में चीड़ के पेड़ों से गिरते हैं। इसके कारण उत्तराखंड और अन्य पर्वतीय राज्यों में जंगलों में आग लगने की समस्या बनी रहती है।

कितना समय लगा?

प्रोफेसर गायकवाड़ ने बताया कि उन्हें यह आइडिया लगभग दो साल पहले आया था। वह कहते हैं, “मैं कनाडा से पोस्ट डॉक की रिसर्च पूरी करके आईआईटी रुड़की में भारत सरकार के विज्ञान प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा चयनित होकर आया। यहां आने के बाद मैंने अखबारों में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग के बारे में पढ़ा। जब इसके प्रमुख कारणों के बारे में जानने की कोशिश की, तो पाइन नीडल के बारे में पता चला। तभी से इसके व्यवसायिक उपयोग पर शोध करने का मन बनाया और लगभग एक साल पहले अपनी रिसर्च टीम से इस काम में जी जान से जुट जाने को कहा, और एक साल बाद  परिणाम आपके सामने है।”

प्रोफेसर गायकवाड़, मुख्य रूप से पैकेजिंग के क्षेत्र में ही काम करते हैं। साल 2019 में, उन्हें इस क्षेत्र में किए गए रिसर्च के कारण विज्ञान प्रोद्योगिकी मंत्रालय द्वारा ‘DST INSPIRE FACULTY’ चुना गया था। इसके साथ ही  साल 2016 में ऑक्सीजन ऐब्सॉर्बिंग पैकेज विकसित करने के लिए उन्हें अमेरिकी युवा वैज्ञानिक का पुरस्कार भी मिला था। 

Prof. Keertiraj Gaikwad, IIT Roorkee

आगे किन प्रोजेक्ट्स पर कर रहे हैं काम?

प्रोफेसर गायकवाड़ की टीम, सस्टेनेबल पैकेजिंग और एक्टिव पैकेजिंग के क्षेत्र में पूरी मेहनत के साथ काम कर रही है। उन्हें जल्दी ही कुछ और सकारात्मक परिणाम मिलने की उम्मीद है। उनका मुख्य उद्देश्य, पाइन नीडल पर किए गए इस काम को आगे बढ़ाना और आने वाले दिनों में पैकेजिंग के लिए इनके प्रयोग को व्यवसायिक स्तर पर ले जाना है।

अंत में प्रोफेसर गायकवाड़ ने कहा, “भारत में प्रतिभा पलायन एक प्रमुख समस्या रही है। इसका सबसे बड़ा कारण अकादमिक रिसर्च से औद्योगिक प्रतिष्ठानों की दूरी है। हमारी टीम इस दूरी को कम करने की दिशा में काम कर रही है। जिसके लिए अकादमिक रिसर्च की व्यवसायिक उपयोगिता पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। उत्तराखंड राज्य सरकार और कुछ बड़ी पैकेजिंग कम्पनियों द्वारा इस काम में सहयोग का आश्वासन मिला है। जल्द ही इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे।”

संपादन- जी एन झा

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