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कैसे छत्तीसगढ़ का यह एक जिला बना रहा है 28 हज़ार महिलाओं और बच्चों को कुपोषण-मुक्त!


‘यह आर्टिकल छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा स्पोंसर किया गया है!’

22 जून को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ब्लॉक में स्थित गंजेनर गाँव के स्थानीय बाज़ार में सामान्य दिनों से कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। इसका कारण था- फ्री हेल्थ चेकअप।

मसालों , बर्तनों, कपड़ों और खिलौनों की दुकानों से गुज़रते हुए कई महिलाएं और बच्चे एक बूथ के आगे कतार में खड़े हो गए और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे।

चेकअप के दौरान कई ज़रूरी मेडिकल टेस्ट जैसे कि खून की जाँच, हीमोग्लोबिन के स्तर की जाँच, वजन, प्रतिरोधक क्षमता आदि किये गये। इन मेडिकल टेस्ट के आधार पर सभी को अलग-अलग केटेगरी में रखा गया और जो भी लोग कुपोषण की केटेगरी में आये, उन्हें एक ख़ास न्यूट्रीशन प्रोग्राम के लिए रजिस्टर किया गया।

उस दिन से गंजेनर गाँव के स्थानीय बाज़ार में आने वाले लोगों की संख्या कई गुना बढ़ गयी। यह पहल सिर्फ़ इस एक गाँव में ही नहीं, बल्कि पूरे जिले में देखने को मिल रही है।

मुख्यमंत्री भुपेश बघेल के संरक्षण में राज्य सरकार दंतेवाडा में बच्चों और महिलाओं को कुपोषण-मुक्त करने के लिए और साथ ही, समग्र शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृ मृत्यु दर (MMR) को कम करने के लिए दो खास अभियान- ‘हाट बाज़ार हेल्थ चेकअप’ और ‘सुपोषण अभियान’ चला रही है।

इस प्रोग्राम के अंतर्गत लगभग 28, 000 लोगों की जांच की जाएगी।

Source: Flickr

अगले छह महीने तक इन सभी औरतों, बच्चों और युवतियों को इस कार्यक्रम के अंतर्गत पोषण से भरपूर डायट दी जाएगी। जिसमें अंकुरित अनाज, प्रोटीन के लिए सोयाबीन और मूंगफली, बी12 विटामिन के लिए अंडे, और आयरन की कमी के लिए गुड़, हरी सब्जियां और अचार आदि शामिल है।

इस प्रोग्राम के अंत में फिर से इन सभी कुपोषित महिलाओं और बच्चों का टेस्ट किया जायेगा और फिर पहले टेस्ट के साथ समीक्षा की जाएगी। और उसी हिसाब से आगे की योजना पर काम होगा।

ये सभी पहल राज्य में कुपोषण के बढ़ते स्तर से लड़ने के लिए उठाये जा रहे हैं ताकि छत्तीसगढ़ को ‘कुपोषण मुक्त’ गाँव बनाया जा सके।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NHFS-4) के आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ के हर जिले में 15 प्रतिशत लोगों का वजन, लम्बाई के अनुपात में कम है। और अगर दंतेवाड़ा की बात की जाये, तो अधिकारिक रिपोर्ट्स के अनुसार यहाँ की 36% जनसंख्या कुपोषण का शिकार है।

जिला पंचायत के सीईओ सचिदानंद आलोक ने इन चिंताजनक आंकड़ों के पीछे के कारणों के बारे में द बेटर इंडिया से बात की।

“जिले में लगभग 95 फीसदी आबादी आदिवासी है, जिनमें से ज़्यादातर लोग किसान या फिर दिहाड़ी-मज़दूर हैं, जो इस बात पर बहुत कम ध्यान देते हैं कि उनके बच्चे क्या खा रहे हैं। उनके खाने की आदतों में भी काफ़ी कमियाँ हैं जैसे कि ये लोग सिर्फ़ चावल खाते हैं, इसलिए गेंहू और दूसरे उत्पादों की उपेक्षा करते हैं, जो कि पोषण के लिए बेहद ज़रूरी हैं।”

दूसरी बड़ी वजह इस इलाके की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में छुपी है। यह एक नक्सल-प्रभावित जिला है और इस वजह से लोग डॉक्टर के पास जाने से भी कतराते हैं। इनमें से कई समुदाय ऐसे भी हैं जो किसी भी बीमारी के इलाज के तौर पर दवाइयों की जगह पारंपरिक तरीकों को अहमियत देते हैं।

सिर्फ़ ऐसे खुले बाज़ारों में ही बहुत ज़्यादा संख्या में ये लोग अपने यहाँ से बाहर आते हैं। इसलिए जिला अधिकारियों ने इन स्थानीय बाज़ारों में ही हेल्थ-चेकअप करने की योजना बनाई और यह काम भी कर गयी।

“गर्भवती महिलाएँ, स्तनपान कराने वाली माताएं, 1-3 की उम्र के बच्चे और स्कूल से ड्राप आउट युवतियां पर ज्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि वे गंभीर रूप से आयरन की कमी और एनीमिया से पीड़ित हैं। इस पहल को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस प्रोग्राम के लिए रजिस्टर कर रहे हैं,” आलोक ने बताया।

लोगों के स्वास्थ्य-कल्याण के अलावा ये दो पहल उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने में भी सहायक हैं। उदाहरण के तौर पर – सरकार स्वयं सहायता समूह और आंगनवाड़ी कर्मचारियों को खाना पकाने के लिए काम पर रखकर, इन आदिवासी महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसर दे रही है।

स्थानीय रूप से अनाज, सब्जियों और अंडों की खरीद के लिए, सरकार अनाज के उत्पादन और घरों में ही मुर्गी-पालन करने को प्रोत्साहित कर रही है।

“हमने किसानों के लिए अपने घरों में ही सब्ज़ी उगाना अनिवार्य कर दिया है और इसके लिए उन्हें बीज भी बांटे गये हैं।”

सरकार की योजना के बारे में आगे बताते हुए उन्होंने कहा कि उनका अगला लक्ष्य उन लड़कियों पर ध्यान केन्द्रित करना है, जिन्होंने कुछ कारणों के चलते स्कूल जाना छोड़ दिया है। अब इन लड़कियों की काउंसलिंग की जाएगी ताकि वे फिर से पढ़ाई शुरू कर सकें।

कैसे ये राज्य-स्तरीय कार्यक्रम ला रहे हैं बदलाव

राज्य में हेल्थ-केयर सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने पहले भी कई पहल की हैं और आशा प्रोग्राम ने भी स्थिति में काफ़ी सुधार किये हैं।

आशा प्रोग्राम में महिला कम्युनिटी हेल्थ वर्कर्स (महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं) को राज्य के स्वास्थ्य सिस्टम और साधारण लोगों के बीच एक सेतु की तरह काम करने के लिए प्रशिक्षण सिया गया। वर्तमान में चल रहे इस प्रोग्राम में 70, 000 महिला कार्यकर्ता सक्रिय रूप से लोगों की स्वास्थ्य स्थिति में सुधार लाने की दिशा में काम कर रही हैं।

इसके अलावा एक और प्रोग्राम ‘चिरायु योजना’ बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान देती है। इसके तहत, 18 साल की उम्र तक, सभी बच्चों के लिए आंगनवाड़ी और सरकारी स्कूलों में नियमित चेकअप करवाना अनिवार्य है।

इन नियमित जांचों से हृदय रोगों सहित गंभीर बीमारियों वाले बच्चों की पहचान करने में मदद मिली है। और फिर इन बच्चों का मुख्यमंत्री बाल हृदय सुरक्षा योजना के तहत मुफ्त सर्जरी और उपचार किया जाता है।

राज्य सरकार ने स्वास्थ्य हेल्पलाइन, महतारी एक्सप्रेस और मुक्तांजलि जैसी सुविधाएं भी शुरू की हैं, जिससे कि स्वास्थ्य सुविधाएँ राज्य के सबसे दुर्गम और पिछड़े इलाकों में भी पहुँच सकें। पूरे राज्य के लिए टोल-फ्री नंबर 104 एक हेल्पलाइन नंबर है, जिसका उपयोग तत्काल चिकित्सा के लिए किया जा सकता है।

जबकि, महतारी एक्सप्रेस गर्भवती महिलाओं के लिए एक मुफ़्त एम्बुलेंस सेवा है। इस योजना के तहत राज्य-भर में 360 वाहन चल रहे हैं।

ऐसे कई स्वास्थ्य प्रावधानों के चलते राज्य में शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृ मृत्यु दर (MMR) कम हो रहां है।

छत्तीसगढ़ धीरे-धीरे लेकिन स्थिरता से कुपोषण के मुद्दे को हल कर रहा है और झारखंड, राजस्थान, असम और ओडिशा जैसे अन्य राज्य, बेशक इससे सीख लेकर अपने यहाँ भी इस तरह की योजनायें और कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं।

मूल लेख: गोपी करेलिया 

Featured Image Source: Flickr

(संपादन – मानबी कटोच )


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