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जानवरों के लिए खर्च करते हैं आधी से ज्यादा कमाई, जंगलों में भी जाकर खिलाते हैं खाना

“अक्सर यात्रा करते समय जब हम जंगलों के आसपास से गुजरते हैं, तो कितनी ही बार बहुत से बंदरों को सड़क के किनारे बैठा देखते हैं। अगर ध्यान से देखें, तो आप समझेंगे कि ये बंदर आते-जाते लोगों को देखने के लिए नहीं, बल्कि इस इंतजार में बैठे होते हैं कि कोई उन्हें खाने के लिए कुछ दे दे। क्योंकि घटते जंगलों और जल-स्रोतों की कमी के कारण ही जानवर रिहायशी इलाकों की तरफ आते हैं। वे सिर्फ खाना तलाश रहे होते हैं और अगर आप उन्हें खाना दे दें, तो वे आपसे कुछ नहीं कहेंगे,” यह कहना है 50 वर्षीय बाशा मोहीउद्दीन का। 

आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में रहनेवाले बाशा पिछले 10 सालों से बेजुबानों के लिए खाने और पानी का इंतजाम कर रहे हैं। उनके जीवन का एक ही मकसद है कि ‘जब तक सांस है, जानवरों की सेवा करते रहना है।’ इसलिए उन्हें जाननेवाले लोग अब उन्हें ‘जानवरों का दोस्त’ कहने लगे हैं। द बेटर इंडिया से बात करते हुए बाशा ने कहा कि उन्हें बचपन से ही जानवरों से लगाव रहा है। उनके लिए यह मायने नहीं रखता कि उनके सामने कौनसा जानवर है? चाहे कुत्ता हो या बिल्ली, या फिर गाय, भैंस और बंदर- वह सभी के प्रति संवेदनशील हैं। 

एक मध्यम-वर्गीय परिवार से आनेवाले बाशा, मात्र 10वीं पास हैं। वह कहते हैं, “स्कूल की पढ़ाई के बाद से ही मैंने नौकरी शुरू कर दी थी। कई सालों तक मैंने कुवैत में भी काम किया। साल 2010 में देश लौट आया और छोटे स्तर पर रियल एस्टेट का काम शुरू किया। फिलहाल, 2017 से शहर में अपना फिटनेस जिम चला रहा हूँ।” 

बंदरों को प्यासा देख शुरू की सेवा 

Sheik Basha Mohiuddin feeding stray animals

बाशा बताते हैं कि साल 2011 में जब वह शहर के पास एक जंगल से गुजर रहे थे, तब उन्होंने कुछ बंदरों को देखा। “उन्हें देखकर ही पता चल रहा था कि वे परेशान हैं। मैंने देखा कि वे एक बोतल में बचे पानी को पीने की कोशिश में थे। मेरे पास बोतल में पानी था। उन्हें पानी पिलाने के लिए मैं उसके पास चला गया। जैसे ही मैं उन्हें पानी पिलाने लगा तो वे आपस में लड़ने लगे कि पहले कौन पानी पिएगा। इस दृश्य ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। उसी दिन मैंने ठान लिया कि इन बंदरों के लिए पानी का इंतजाम करूँगा,” उन्होंने आगे कहा। 

इस घटना के बाद, आने वाले रविवार को ही बाशा बड़ी-बड़ी कैन में पानी भरकर उस जंगल में पहुंचे, जहां उन्होंने उन बंदरों को देखा था। उन्होंने वहीं पर एक गड्ढ़े में पानी भरा और उनके पानी भरते ही, काफी सारे बंदर आकर पानी पीने लगे। बंदरों की प्यास बुझते देख बाशा को जो सुकून मिला, उसका मुकाबला दुनिया की कोई और सुविधा शायद ही दे सके। वह कहते हैं कि पिछले 10 सालों से उन्होंने अपना नियम बना लिया कि वह हर रविवार को लगभग 40 किमी में फैले जंगल में जाकर जानवरों को खाना खिलाते हैं और उनके लिए पानी भी भरते हैं। 

उनके घर में कोई आयोजन हो या कोई अन्य काम, उनका यह नियम कभी नहीं बदलता है। बाशा कहते हैं कि उन्होंने अपने कुछ नेकदिल दोस्तों की मदद से जंगल में पानी भरने की व्यवस्था की है। इसके अलावा, हर रविवार को वह केला, लड्डू या अन्य कोई खाने की वस्तु लेकर जंगल पहुँच जाते हैं। “मैं सुबह साढ़े सात बजे तक घर से निकल जाता हूँ और आते-आते शाम के तीन-चार बज जाते हैं,” उन्होंने कहा। जंगल में वह सिर्फ बंदरों को ही नहीं, बल्कि गिलहरी, हिरण और यहां तक कि चींटियों का भी पेट भरते हैं। चींटियों के लिए वह हमेशा चीनी डालकर आते हैं। 

अपनी कमाई से भर रहे जानवरों का पेट 

Feeding Monkeys and Cows

शहर में अपने घर के आसपास वह बेसहारा कुत्तों, बिल्लियों और गायों को भी नियमित तौर पर खाना खिलाते हैं। हर दिन वह सैकड़ों बेजुबान पक्षियों और जानवरों को दाना-पानी देते हैं। उन्होंने बताया कि शहर के अलग-अलग इलाकों में जहां पर गायों का समूह होता है, वह हर रोज जाकर उन्हें रोटियां खिलाकर आते हैं। रोज रात को वह कुत्तों को भी खाना खिलाते हैं। 

बाशा कहते हैं कि उनकी जो भी कमाई होती है, उसमें से लगभग आधी वह जानवरों के लिए खर्च कर देते हैं। सबसे अच्छी बात है कि उन्हें उनके परिवार का पूरा सहयोग मिलता है। उनकी पत्नी ने हमेशा इस काम में उनका साथ दिया है। 

उनकी पत्नी नसरीन कहती हैं, “बाहर जानवरों को खाना खिलाने के अलावा, हम अपनी छत पर भी पक्षियों के लिए दाना रखते हैं और पानी भरते हैं। सैकड़ों कौए, चिड़िया, तोता जैसे पक्षी सुबह पांच-साढ़े पांच बजे से ही हमारी छत पर आना शुरू कर देते हैं। इन पक्षियों की आवाज सुनकर ही मन खुश हो जाता है।” 

लॉकडाउन के दौरान भी बाशा ने अपना काम नहीं रोका। वह कहते हैं कि जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई तो उन्होंने तुरंत शहर में पुलिस प्रशासन से सम्पर्क करके अनुमति ली। उन्हें कहा गया कि वह बाइक या स्कूटर पर जाकर जानवरों को खाना खिला सकते हैं। ऐसे में, वह अपने साथ और दो लोगों को लेकर जाते थे। उन दोनों लोगों की बाइक में पेट्रोल आदि भी बाशा ही डलवाते थे और जानवरों के खाने का खर्च भी वह ही उठाते थे। वह कहते हैं, “मैं उन लोगों को साथ लेकर जाता ताकि ज्यादा से ज्यादा खाना हम जानवरों के लिए ले जा सकें। लॉकडाउन में भले ही मेरी जिम बंद रही और कमाई रुक गयी। लेकिन जानवरों के लिए खाना नहीं रुका क्योंकि यह ज्यादा जरुरी था।” 

बाशा का मानना है, “मेरे दिल में जानवरों के लिए जो प्यार है, उसी वजह से मुझपर हमेशा ऊपर वाले की मैहर रहती है। मैंने आजतक अपने सामने किसी जानवर को भूखा नहीं रहने दिया और इसलिए मेरे घर में भी कभी खाने की कमी नहीं होती है।” 

अपने इस काम के लिए उन्होंने लोगों से बातें भी सुनी है लेकिन फिर भी उनका मन कभी इस राह से नहीं भटका। न ही कभी उन्होंने किसी से इस काम के लिए आर्थिक मदद ली। अगर कोई अपनी मर्जी से उनके साथ जाकर जानवरों की सेवा करना चाहता है तो वह उसे मना नहीं करते हैं। 

बेशक, बेजुबान और बेसहारा जानवरों के प्रति बाशा का यह प्रेम हम सबके लिए प्रेरणा है। हमें उम्मीद है कि बाशा का यह नियम इसी तरह कायम रहे और उनकी कहानी पढ़कर और भी लोग प्रेरित हों। जानवरों को इस सच्चे दोस्त को हमारा सलाम। 

संपादन- जी एन झा

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