1929 में जब वह साइंस की पढ़ाई करने कलकत्ता के बैथ्यून कॉलेज पहुंची तो छात्र संघ से जुड़ से गईं। यहाँ उनकी मुलाकात बीना दास और प्रीतिलता वड्डेदार जैसी मशहूर क्रांतिकारियों से हुई, जो आज़ादी के लिए सक्रिय भूमिका निभा रही थीं।
कल्पना क्रांतिकारियों को गोला-बारूद पहुंचाने का काम करती रहीं। इसके साथ ही उन्होंने बंदूक चलाना सीखा और कई बार सूर्य सेन और बाकी क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेज़ों का डटकर मुकाबला किया।
8 फरवरी 1995 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। स्वतंत्र भारत में गुमनामी में अपनी ज़िंदगी गुज़ारने वाली इस महान क्रांतिकारी की कहानी को उनकी बहु मानिनी ने शब्दों में बयां किया।