उत्तर प्रदेश के हरदोई के बांसा गांव की रहने वाली 22 वर्षीया शिवांगी देवी फिलहाल एक स्थानीय कॉलेज से हिन्दी विषय में ग्रेजुएशन कर रही हैं। वह एक टीचर बनना चाहती हैं, इसलिए साथ में टीजीटी की तैयारी भी कर रही हैं।
शिवांगी के पिता दिहाड़ी मजदूरी करने वाले बढ़ई हैं और उनकी आमदनी इतनी नहीं है कि वह अपनी बेटी को जरूरत की किताबें खरीदकर दे सकें। लेकिन, बीते दो वर्षों से उनकी राह काफी आसान हो गई है और उन्हें जो भी किताबें चाहिए, उन्हें मिल जाती हैं।
यह कैसे संभव हुआ?
बदलाव की इस मुहिम को इस गांव के ही एक युवा जतिन सिंह ने छेड़ा है। 24 वर्षीय जतिन ने दिसंबर 2020 में अपने गांव में ‘बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी एंड रिसोर्स सेंटर’ की शुरुआत की।
इस लाइब्रेरी में हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा, उर्दू और अवधी में तीन हजार से अधिक किताबें हैं। यहां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सभी जरूरी किताबें और मैगजीन उपलब्ध होने के साथ ही, फ्री इंटरनेट की सुविधा भी है। इतना ही नहीं, बच्चों को पढ़ाई में मदद के लिए एक्सपर्ट गाइड भी मिलते हैं।
कैसे मिली प्रेरणा?
दिल्ली के गलगोटिया विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई कर, फिलहाल यूपीएससी की तैयारी कर रहे जतिन कहते हैं, “मैं अपने गांव में ही पला-बढ़ा हूं। मेरी स्कूली पढ़ाई पास के ही एक निजी स्कूल में हुई। जहां का इन्फ्रास्ट्रक्चर तो शहरी था, लेकिन परिवेश बिल्कुल ग्रामीण था। यहां से मैं लखनऊ के सिटी मॉन्टेसरी स्कूल गया, जहां गांव और शहर के बीच के फर्क को साफ महसूस किया जा सकता था।
2016 में 12वीं पास करने के बाद, मैं वकालत की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली गया। मुझे बचपन से ही किताबों में काफी रुचि थी और मुझे जब भी समय मिलता, मैं पास की लाइब्रेरी में जाने लगा।
इस लाइब्रेरी का नाम ‘द कम्युनिटी लाइब्रेरी’ था और यहां सभी के लिए सभी सुविधाएं बिल्कुल मुफ्त थीं। यहां दक्ष नाम का एक छोटा सा बच्चा रोज पढ़ने आता था। उसके माता-पिता काफी गरीब थे और वे स्लम में रहते थे। शुरू-शुरू में तो दक्ष काफी दुबका और सहमा सा रहता था। लेकिन, धीरे-धीरे वह नई-नई चीजें सीखने लगा और लोगों से अंग्रेजी में चीजों को डिस्कस करने लगा। वह फिलहाल छठी क्लास में है और आज भी हर दिन लाइब्रेरी जाता है।”
दक्ष में आए इस बदलाव ने जतिन को काफी प्रभावित किया और उन्होंने तय कर लिया कि उन्हें जब भी मौका मिलेगा, वह अपने गांव में भी इसी तर्ज पर लाइब्रेरी जरूर खोलेंगे। तभी कोरोना महामारी ने दस्तक दी और जतिन को वह मौका मिल गया। दिसंबर 2020 में जतिन ने अपने गाँव में एक कम्युनिटी लाइब्रेरी की शुरुआत की। तब वह अपने कॉलेज के आखिरी साल में थे।
यह भी पढ़ें – बदहाल भवनों को लाइब्रेरी का रूप दे रहा झारखंड का यह आईएएस अधिकारी
राह आसान नहीं थी, पर जतिन का इरादा पक्का था। उनके पास न पैसे थे, न सुविधा, पर इंटरनेट ने इसमें उनकी भरपूर मदद की। जतिन ने क्राउडफंडिंग के ज़रिए करीब 7 लाख रूपये इकठ्ठा किये और लाइब्रेरी का काम शुरू कर दिया।
किताबें जुटाने में उन्हें द कम्युनिटी लाइब्रेरी, राजकोट लाइब्रेरी, प्रथम बुक्स जैसी संस्थाओं की पूरी मदद मिली। आज उनकी इस लाइब्रेरी में किताबों के अलावा मैगजीन, अखबार और इंटरनेट जैसी कई सुविधाएं भी हैं।
बांसा गांव की आबादी 11 हजार से भी ज्यादा है। यहां के लोगों की आमदनी का मुख्य जरिया खेती है। वहीं, अधिकांश युवा सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं।
कई बार इन युवाओं को बेहतर तैयारी के लिए पास के कानपुर या लखनऊ जैसे शहरों में जाना पड़ता है, जिससे उनके परिवार का आर्थिक बोझ काफी बढ़ जाता है। गांववाले इस समस्या से तो जूझ ही रहे थे कि तभी 2020 में कोरोना महामारी ने एक और समस्या खड़ी कर दी। शहरों में पढ़नेवाले इन सभी युवाओं को गाँव लौटना पड़ा। यहाँ गाँव में न किताबें थी, न कोई गाइड। ऐसे में, इन युवाओं को अपना भविष्य अधर में लटका हुआ नज़र आ रहा था।
पर जतिन की लाइब्रेरी इन युवाओं के लिए एक आशा की किरण बनकर आयी।
कैसे करते हैं छात्रों की मदद
इस लाइब्रेरी से फिलहाल 1400 से अधिक छात्र जुड़े हुए हैं, जिनमें से करीब 300 छात्र, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। जतिन ने छात्रों की मदद के लिए दो तरह की टीम बनाई है।
वह कहते हैं, “हम दो तरीके से काम करते हैं। हमारी एक टीम ग्राउंड लेवल पर है, तो दूसरी टीम उनके ऑनलाइन सपोर्ट के लिए है। इस काम में मुझे मालविका अग्रवाल, अभिषेक व्यास जैसे कॉलेज के साथियों की पूरी मदद मिलती है।”
जतिन के साथ फिलहाल 40 वालंटियर्स जुड़े हुए हैं, जिनकी मदद से ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों क्लासेज होती हैं। वहीं, उन्होंने लाइब्रेरी के पूरे काम को संभालने के लिए चार लोगों को आमदनी का जरिया भी दिया है। लाइब्रेरी को चलाने में जतिन को हर महीने करीब 10 हजार का खर्च आता है। इस खर्च को पूरा करने के लिए सभी वालंटियर्स हर महीने 100-200 रुपए जमा करते हैं।
नहीं लेते हैं कोई जुर्माना
इस लाइब्रेरी में पहले एक हफ्ते के लिए किताब दी जाती है। छात्र जरूरत पड़ने पर उसे फिर से रीन्यू करा सकते हैं। यदि इस दौरान किताब फट जाए या वापस जमा करने में देर हो जाए, तो इसके लिए कोई जुर्माना नहीं लिया जाता है।
इस बारे में जतिन कहते हैं, “मेरे गांव की स्थिति ऐसी है कि यदि हमने छात्रों के लिए एक रुपया भी फीस या जुर्माना रखा, तो अगले दिन से वे लाइब्रेरी आने से हिचकिचाएंगे। यहां किसी से कोई आइडी नहीं मांगी जाती, यहां सभी सदस्यों के लिए सभी सुविधाएं बिल्कुल फ्री हैं।”
जतिन को शुरू में छात्रों को लाइब्रेरी से जोड़ने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। वे एक दिन आते थे और फिर कई दिनों तक गायब रहते थे। पर फिर छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए, जतिन ने गांव में कई सभाएं की और आज उसका नतीजा सामने है।
कितना आया बदलाव
नियमित रूप से लाइब्रेरी आने वाली शिवांगी कहती हैं, “गांव में लाइब्रेरी खुलने से किताबों की कमी पूरी होने के साथ ही, कंपीटिटिव माहौल भी बना है। यहां हम किसी मुद्दे को लेकर एक-दूसरे से डिस्कस करते हैं। समय-समय पर सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता होती है, जिससे हमें खुद को परखने का मौका मिलता है। साथ ही, कोई शोरगुल नहीं होने से, हमारा पढ़ाई से ध्यान भी नहीं भटकता है।”
जतिन बताते हैं कि गांव के लड़कों को कानपुर या लखनऊ जैसे शहर में रहने के लिए हर महीने कम से कम 3000 से 5000 रुपए खर्च करने पड़ते हैं। वहीं, लड़कियों के लिए तो गांव से शहर जाना ही काफी मुश्किल काम है। लेकिन गांव में ही लाइब्रेरी खुल जाने से दोनों समस्याओं का एक साथ निदान हो गया है।
लोगों की मदद के लिए तैयार
जतिन ने चिरहुआ और कल्याणपुर जैसे गांवों में कम्युनिटी लाइब्रेरी की शुरुआत की है। वह एक लाइब्रेरी नेटवर्क से भी जुड़े हुए हैं, जिसमें फिलहाल 65 लाइब्रेरी हैं।
जतिन इस बात पर जोर देते हैं कि आज जब अमीर और गरीब, गांव और शहर के बीच की दूरी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, तो इस तरह की सुविधाएं जरूरतमंदों को काफी मदद पहुंचा सकती हैं।
यदि कोई अपने गांव या शहर में इसी तर्ज पर लाइब्रेरी खोल, लोगों की मदद करना चाहता है, तो जतिन उनकी शुरू से अंत तक मदद करने के लिए तैयार हैं।
आप बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी से यहां संपर्क कर सकते हैं।
संपादन – मानबी कटोच
यह भी पढ़ें – डिजिटल डिवाइड को भरने के लिए Amazon India ने शुरू की पहल, आप भी आ सकते हैं साथ