सदाबहार पेड़, जंगल, हरियाली और समुद्र – ये सब एक वक़्त पर मुंबई शहर की पहचान हुआ करते थे।
पर लगातार बढ़ता शहरीकरण, धूल, धुआं और ऊँची ऊँची इमारतें, इस हरियाली की चादर को सिमित करते जा रहे हैं। पेड़ों की लगातार कटाई और लोगों का पर्यावरण के प्रति उदासीन रवैया, आज की इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं।
वर्तमान में मुंबई शहर में सिर्फ़ 13 प्रतिशत हरियाली है, जबकि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार, सामान्य तौर पर यह 33 प्रतिशत होनी चाहिए।
पर अच्छी बात यह है कि निराश करने वाले इन आंकड़ो के साथ-साथ, कुछ ऐसे आशावादी लोग भी हैं, जो पर्यावरण की रक्षा के लिए सजग हैं और नये-नये तरीकों से इसे बचाने में जुटे हैं। ‘ग्रीन यात्रा’ एक ऐसी ही स्वयंसेवी संस्था है, जो मुंबई शहर में पर्यावरण के बचाव के लिए प्रयासरत है। इनका मिशन साल 2025 तक 10 करोड़ पेड़ लगाने का है और फ़िलहाल, साल 2019 में उन्होंने 10 लाख पेड़ लगाने की पहल शुरू की है |
जगह की कमी मुंबई में आम समस्या है, इसलिए ये लोग ‘मियावाकी तकनीक’ का इस्तेमाल कर, हरियाली बढ़ाने पर काम कर रहे हैं।
ग्रीन यात्रा का दावा है कि जोगेश्वरी ईस्ट में स्थित सेंट्रल रेल साइड वेयरहाउस कंपनी का परिसर, जल्द ही मुंबई का पहला ‘मियावाकी शहरी जंगल’ बन जाएगा।
क्या है मियावाकी तकनीक
जापानी वनस्पति-वैज्ञानिक और पर्यावरण विशेषज्ञ, डी. अकीरा मियावाकी ने वृक्षारोपण की इस अनोखी विधि की खोज की थी। इस तकनीक में पौधों को एक दूसरे से बहुत कम दूरी पर लगाया जाता है, जिससे पेड़ बहुत पास-पास उगते हैं और इसके चलते सूर्य की किरणें सीधे धरती तक नहीं पहुँच पाती।
सूर्य की रौशनी न मिलने से पेड़ों के आस-पास जंगली घास नहीं उग पाती है और इस वजह से मिट्टी में नमी बरकरार रहती है। ऐसे पास-पास पेड़ लगाने से यह भी सुनिश्चित होता है, कि पौधों के ऊपरी भाग को ही सूर्य की रौशनी मिले, जिससे कि ये अन्य किसी दिशा की बजाय ऊपर की दिशा में ही बढ़ते हैं।
ग्रीन यात्रा के संस्थापक, प्रदीप त्रिपाठी बताते हैं, “यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि पौधे कम समय में लम्बे हो जाते हैं।”
पास- पास पौधे लगाने से, कम जगह में अधिक से अधिक पौधे भी लग जाते हैं।
वे आगे बताते हैं, “सीआरडब्ल्यूसी ने हमें राम मंदिर में एक एकड़ की ज़मीन दी है। यहाँ अगर हम पारंपरिक तरीके से पेड़ लगायें, तो ज़्यादा से ज़्यादा 800 पेड़ लगा सकते हैं। पर मियावाकी तकनीक से इसी जगह पर 12,000 पेड़ लगाए जा सकते हैं।”
12,000 पेड़ लगाने के इस निर्धारित लक्ष्य के साथ, 26 जनवरी से अब तक इस संगठन ने यहाँ 30 विभिन्न देसी प्रजातियों के 3,000 पेड़ लगा दिए हैं। पेड़ों की इन प्रजातियों में कंचन, करंज, नीम, जामुन, और पलाश आदि शामिल हैं।
प्रक्रिया
उन्होंने ज़मीन में तीन फीट गहरी खाई खोदी, फिर मिट्टी का परीक्षण किया। मिट्टी की उर्वरकता सुधारने के लिए उन्होंने मल्चिंग का इस्तेमाल किया। फिर मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार के लिए चावल के भूसे, जैविक खाद, कोकोपिट, भूसी, घास और सूक्ष्म जीवों के मिश्रण को नहर में डाला।
प्रदीप बताते हैं, “इन सभी चीज़ों का इस्तेमाल कर, हमने वृक्षारोपण के लिए भूमि को तैयार किया और फिर दो से पाँच पौधे प्रति वर्ग मीटर की दूरी पर बोये। ये पौधे सिर्फ़ दो साल में 20 फीट तक लंबे उग सकते हैं।”
मियावाकी तकनीक में आप अलग-अलग परतों पर भी वृक्षारोपण कर सकते हैं।
इसमें पहली परत में झाड़ियाँ बोयी जाती हैं, जो कि दस फीट तक बढ़ती हैं। दूसरी परत में ऐसे पेड़ लगाए जाते हैं, जो 25 फीट तक बढ़ सकते हैं। तीसरी परत के पेड़ 25-40 फीट और आख़िरी परत के पेड़ कैनोपी बनते हैं, क्योंकि ये 40 फीट से ऊपर बढ़ते हैं।
मियावाकी तकनीक के फायदे
मियावाकी तकनीक का सकारात्मक प्रभाव इसी बात से समझ में आता है कि विभिन्न तरह की मिट्टी और अलग-अलग मौसम की स्थिति होने के बावजूद, इस विधि से अब तक पूरे विश्व में तीन हज़ार से भी ज़्यादा जंगल उगाये जा चुके हैं। प्राकृतिक रूप से, एक जंगल को विकसित होने में 200-300 साल लग जाते हैं। पर इस तकनीक से आप सिर्फ़ 20-30 साल में ही एक गहरा और घना जंगल-क्षेत्र विकसित कर सकते हैं।
इस तकनीक द्वारा बनाये गए जंगल, पारम्परिक जंगलों की तुलना में 10 गुना तेज़ी से विकसित होते हैं और 30 गुना घने भी होते हैं | इसके अलावा, इन जंगलों में 30 गुना बेहतर कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण, 30 गुना अधिक शोर-शराबे को कम करने, और 30 गुना अधिक हरियाली देने की क्षमता होती है।
प्रदीप बताते हैं, “हम रसायन या रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं करते हैं। इस तरह से हम एक जैविक और 100 वर्ष पुराना जंगल, सिर्फ़ 10 सालों में विकसित कर देते हैं।”
साथ ही, इस तकनीक का एक फ़ायदा यह है कि मियावाकी जंगल, वृक्षारोपण के 2 सालों में ही आत्मनिर्भर हो जाते हैं और फिर इन्हें किसी बाहरी देख-रेख की ज़रूरत नहीं होती। ये घने जंगल भूजल का स्तर भी सामान्य बनाये रखते हैं और वायु प्रदुषण को भी कम करते हैं। प्रदीप कहते है, “हमारा उद्देश्य मुंबई और महाराष्ट्र में ऐसे और भी घने जंगलों को विकसित करना है |”
साथ ही, उन्होंने कहा कि इस प्रोजेक्ट में उनके पार्टनर एनजीओ, ‘से ट्रीज़’ (बंगलुरु में स्थित है) की मदद के बिना, वे यह मिशन पूरा नहीं कर पाते।
‘से ट्रीज’ एनजीओ ने पहले भी बंगलुरु, दिल्ली, सातारा और मेरठ जैसी जगहों पर अलग-अलग संस्थाओं के साथ मिल कर, करीब 43,000 वृक्षारोपण किये हैं और 15 जंगलों को विकसित किया है।
मुंबई, जहाँ लोगों की तुलना में पेड़ों का अनुपात लगातार घट रहा है, वहां मियावाकी जंगल एक अच्छा समाधान साबित हो सकता है।
अंत में प्रदीप बस इतना कहते हैं, “इस तकनीक द्वारा शहर की छोटी-छोटी जगहों, जैसे कि आवासीय कॉलोनी, बगीचे, कॉर्पोरेट और आईटी पार्क, आदि पर भी, हम इन तेज़ी से बढ़ने वाले वनों को विकसित कर सकते हैं। एक छोटे मियावाकी वन के लिए हमें कम से कम 1000 वर्ग फीट की भूमि चाहिए। मुंबई और महाराष्ट्र के सरकारी ऑफिस, कॉर्पोरेट कंपनी, उद्योग क्षेत्र, स्वयंसेवी संस्थाओं और व्यक्तिगत क्षेत्रों के लिए ऐसे मियावाकी वन विकसित करने में मदद करने में हमें बहुत ख़ुशी होगी।”
यदि इस कहानी ने आपको प्रेरित किया है तो आप ‘ग्रीन यात्रा’ से फेसबुक के ज़रिये संपर्क कर सकते हैं!
मूल लेख: जोविटा अरान्हा
सम्पादन: निशा डागर