महाराष्ट्र के नासिक में 100 साल पुराना एक स्कूल है। स्कूल प्रबंधन की इच्छा थी कि स्कूल भवन को तोड़कर फिर से बनाया जाए, लेकिन एक आर्किटेक्ट ने 100 पुराने इस इमारत को न केवल तोड़ने से बचा लिया बल्कि इसे फिर से एक नया रूप भी दिया है। आज द बेटर इंडिया आपको उसी स्कूल की कहानी सुनाने जा रहा है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि स्कूल परिसर में 100 से अधिक पेड़ हैं लेकिन एक भी पेड़ को नहीं काटा गया है।
100 साल पुराने उडोजी प्री-प्राइमरी स्कूल को पर्यावरण के अनुकूल सुविधाओं के साथ विकसित किया गया है। इस पुरानी इमारत को फिर से एक नया रूप देते वक्त इसके पुराने महत्व का विशेष ख्याल रखा गया है।
उडोजी प्री-प्राइमरी स्कूल की प्रिंसिपल दीप्ति पटेल कहती हैं, “शहर में ऐसा कोई स्कूल नहीं है, जहाँ 100 से अधिक पेड़ और एक बड़ा खेल का मैदान है। यह स्कूल आस-पास की इमारतों की तुलना में हमेशा ठंडा रहता है। स्कूल के चारों ओर पेड़-पौधे लगे हुए हैं, और यहाँ कुछ बच्चे बरगद की जड़ों पर लटक कर खेलते हैं, तो कुछ किसी पेड़ की छाँव में बैठे हुए हैं, इन दृश्यों को देखकर मन को काफी सुकून मिलता है।”
यहाँ आम,चंदन, इमली, अशोक, चंपा जैसे कई पेड़ हैं, जिन्हें मरम्मत कार्य के दौरान कोई नुकसान नहीं पहुँचाया गया। दीप्ति कहती हैं, “स्कूल परिसर में हरियाली, हमें पर्याप्त छाया और स्वच्छ हवा सुनिश्चित करती है। शहर के बीचों-बीच होने के बावजूद, यहाँ कोई प्रदूषण नहीं है।”
इस तरह, यहाँ आधुनिक स्कूलों के विपरीत एसी और अन्य भारी ऊर्जा सुविधाओं की कोई जरूरत नहीं होती है। यहाँ तक कि गर्मी के दिनों में भी यहाँ शायद ही पंखे का इस्तेमाल करने की जरूरत हो।
हालांकि, 3 वर्ष पहले यहाँ ये सुविधाएँ मौजूद नहीं थी।
22,000 वर्ग फीट के दायरे में, इस स्कूल को साल 1920 में बनाया गया था। यह मराठा विद्या प्रचार के लिए एक बोर्डिंग स्कूल थी, जो महाराष्ट्र के सबसे पुराने और सबसे बड़े निजी शिक्षण संस्थानों में से एक है।
हालांकि, करीब 10 साल पहले स्कूल प्रबंधन ने इसे तोड़ कर, इसे आधुनिक रूप में विकसित करने का फैसला किया था। लेकिन आर्किटेक धनंजय शिंदे ने इस पुरानी इमारत को तोड़ने से बचा लिया।
इसके बारे में शिंदे कहते हैं, “लेकिन, जब मैंने स्कूल का दौरा किया, तो मैंने इसके विरासत मूल्यों को नष्ट नहीं करने का सुझाव दिया। नए ढांचे के निर्माण में पेड़ों को काटने और कई अन्य मूलभूत सुविधाओं को बदलने की जरूरत थी। नई इमारत को बनाने में कार्बन फुटप्रिंट को भी बढ़ावा मिलता।”
इन्हीं चिन्ताओं को देखते हुए, उन्होंने संरचना को पुनर्जीवित करने और इसके लिए स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। वह कहते हैं, “इन तरीकों से कार्बन फूटप्रिन्ट को सीमित करने में मदद मिल सकती थी और हम इस पुराने भवन को एक नया जीवन दे सकते थे, जो अभी भी मजबूत थी।”
प्रबंधन द्वारा उनके इस सुझाव को स्वीकार कर लेने के बाद, धनंजय ने स्कूल के मरम्मत कार्य में पर्यावरण के हितों की रक्षा करने का हर संभव प्रयास किया।
पर्यावरण के अनुकूल मरम्मत कार्य
स्कूल के मरम्मत कार्य में धनंजय ने स्थानीय बेसाल्ट स्टोन, टेराकोटा जाली, सीमेंट टाइल, नेवासा स्टोन, शाहाबाद स्टोन, लकड़ी, मैंगलोर टाइल, आदि का इस्तेमाल किया। वहीं, इसके बरामदे को मोज़ेक टाइलों से बनाया गया।
ये सभी संसाधन स्थानीय स्तर पर काफी आसानी से उपलब्ध थे और इससे स्कूल को अपने पुराने रूप में विकसित करने में काफी मदद मिली।
बेसाल्ट स्टोन, फ्लाई ऐश ब्रिक्स, बेकार लकड़ियों के इस्तेमाल की वजह से “इम्बाडीड एनर्जी” की खपत न्यूनतम थी।
धनंजय कहते हैं, “इन पत्थरों और लकड़ियों का इस्तेमाल, पुराने प्लास्टर को हटा कर किया गया। इससे कक्षाओं को ठंडा और इंसुलेटेड रखने में मदद मिली।”
आर्किटेक्ट ने बताया, “इस प्रक्रिया में एक भी पेड़ को काटा या स्थानांतरित नहीं किया गया। इसके बजाय, पेड़ों को अतिरिक्त सुरक्षा दी गई या उनके बेहतर पोषण के लिए जगह को साफ-सुथरा किया गया।”
वेंटिलेशन को लेकर धनंजय कहते हैं, “मौजूदा छत के ट्रस, राफ्टर्स और पर्लिन, पानी के रिसाव के कारण बेकार हो चुके थे। इसलिए, हमें व्यापक स्तर पर मरम्मत कार्य करना था। इसके लिए, हमने पुराने ट्रस को विशेष तरीके से मेटल फास्टन से मजबूत किया।”
किस वजह से ठंडा रहता है भवन
स्कूल में छतों को बनाने के लिए सजावटी सीलिंग टाइलों के नीचे नई मैंगलोर टाइलें लगाई गईं। इससे दो टाइलों के बीच अच्छा इन्सुलेशन होता है। क्योंकि, इसमें धूप से सिर्फ ऊपरी टाइल गर्म होता है और नीचला ठंडा रहता है।
इसके अलावा, खिड़कियों और दरवाजों को बदलने के बजाय, उसका मरम्मत किया गया और वाटर बेस्ड कलर से रंगा गया। क्योंकि, पुरानी संरचना में नेचुरल वेंटीलेशन का काफी ध्यान रखा गया था। इस तरह, धनंजय ने उसे बरकरार रख, स्कूल में ऊर्जा खपत को भी कम किया।
वहीं, स्कूल में एक वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को भी विकसित किया गया है। इसके लिए धनंजय ने कई गड्ढे तैयार किए हैं, जिसमें जमे पानी को तीन मीटर चौड़े टैंक के जरिए एक बोरवेल में भेज दिया जाता है।
कम नहीं थी चुनौतियाँ
“इस काम में हमारे लिए नई चुनौतियाँ थीं। क्योंकि, हमारे पास इसके लिए कोई खाका नहीं था। इसलिए, पहले इसके डिजाइन का अध्ययन करना अनिवार्य था,” धनंजय कहते हैं।
इसके अलावा, उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में पुरानी इंजीनियरिंग तकनीकों के साथ काम करने वाले कोई विशेषज्ञ नहीं थे।
आजकल, मजदूर ड्रिल, कटर और कई अन्य आधुनिक उपकरणों के साथ काम करते हैं। इन तकनीकों के साथ, पुराने ढाँचे में काम करना आसान नहीं था। इसलिए उन्होंने पुराने तकनीकों को फिर से खोजा और उस पर अमल किया।
धनंजय ने कहा कि छत पर बोल्टिंग तकनीक से लकड़ी को लगाने का काम काफी कठिन था और जो काम सामान्यतः एक दिन में हो जाना चाहिए, उसे करने में उन्हें हफ्तों लग रहे थे।
वह बताते हैं, “पुराने पत्थरों पर से पेंट और प्लास्टर को सैंडब्लास्टिंग के जरिए हटाया गया, ताकि इससे छिद्र खुले और दीवारों को बेहतर हवा मिले।”
इस पूरी प्रक्रिया को काफी सावधानीपूर्वक किया जाता था, ताकि इस पुरानी संरचना को कोई नुकसान न पहुँचे।
इस नतीजे से उत्साहित, प्रबंधन स्कूल परिसर में एक एजुकेशन म्यूजियम खोलने की योजना बना रहा है।
धनंजय कहते हैं, “यह परियोजना एक बेहतरीन उदाहरण है, जो दिखाती है कि पुराने भवनों को कैसे संरक्षित करने के साथ-साथ व्यवहारिक बनाया जा सकता है। आज हमें ऐसी संरचनाओं को बचाने की जरूरत हैं, जो शहरी परिदृश्य में गायब हो रही है।”
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मूल लेख – HIMANSHU NITNAWARE
संपादन: जी. एन. झा