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कहानी उस शख्स की जिसने गोंड कला को आदिवासी झोपड़ियों से, दुनिया के टॉप म्यूजियम तक पहुंचाया

Tribal Artist Jangarh Singh Shyam
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साल 1981 की बात है। 17 साल के एक छोटे से लड़के को आड़ी-तिरछी लकीरों से बड़ा प्यार था। कभी वह झोपड़ी की लाल मिट्टी की दीवार पर कोयले से भगवान हनुमान की छवि बनाता, तो कभी भैंसों को जंगल में चराते हुए उनकी पीठ पर सफेद चॉक से प्रकृति के रंगों को उकेरता। देखते-देखते जंगगढ़ सिंह श्याम (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) नाम के उस बच्चे की आड़ी-टेढ़ी रेखाएं, साफ-सुथरे और सादगी भरे चित्रों में बदलती गईं और गांव की डगर से होते हुए, विदेशों तक पहुंच गईं।

कुछ समय बाद, उनकी कलाकृतियां दुनिया भर के संग्रहालयों और कला के पारखी लोगों के घरों की दीवारों पर टंगी हुई नजर आने लगी थीं। मध्यप्रदेश के डिंडोरी जिले के सुदूर गांव पाटनगढ़ में रहनेवाले कलाकार जंगगढ़ सिंह श्याम ने इन कलाकृतियों के जरिए सीमित गोंड आदिवासी कला और कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कला सर्किट तक पहुंचाने में मदद की है। 

कला ने कला को पहचान ‘गोंड कला’ को दिया नया आयाम

Jangarh Singh Shyam & his art piece

एक समय पर मध्य प्रदेश सरकार ने योजना बनाई कि वह भोपाल में एक बहुउद्देश्यीय कला केंद्र, ‘भारत भवन’ बनाएगी और बस, यहीं से शुरुआत हुई जंगगढ़ श्याम (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) के सफर की। दरअसल, सरकार ने अपनी योजना की ज़िम्मेदारी, समकालीन और प्रसिद्ध कलाकार जगदीश स्वामीनाथन को सौंपी थी।

कला केंद्र में शहरी और ग्रामीण (लोक और आदिवासी) दोनों कलाओं को प्रदर्शित किया जाना था, तो स्वामीनाथन आदिवासी कला की तलाश में गांव-गांव घूम रहे थे। अचानक उनकी नजर आदिवासी घरों पर बने भगवान हनुमान की कलाकृतियों पर गई। उन्होंने जंगगढ़ श्याम में छिपी प्रतिभा को पहचान लिया और उन्हें अपने पसंदीदा काम करने के वादे के साथ भोपाल ले आए और इस तरह से ‘गोंड कला’ की गाथा, गांवों से निकलकर मुख्य धारा में आने लगी। 

Tribal Artist Jangarh Singh Shyam पहले कोयले से करते थे चित्रकारी

Mayank Singh Shyam painting in his home.

भोपाल आकर स्वामीनाथन ने युवा जंगगढ़ (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) को कैनवास और एक्रेलिक पेंट से रू-ब-रू कराने का बीड़ा उठाया। अपनी आदिवासी जड़ों से जुड़े रहकर, ध्यान भटकाए बिना इस प्रतिभाशाली लड़के ने जल्द ही इस नए माध्यम से नजदीकियां बना लीं। दीवारों पर कोयले और भैंसों पर चॉक से बनी कलाकृतियां अब एक नया आयाम लेने लगी थीं और उसके बाद की कहानी ने तो इतिहास लिख दिया।

उनकी कलाकृतियां देश-विदेश में खासी लोकप्रिय हो गईं। जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका की दीर्घाओं में उनके बने चित्र छटा बिखेर रहे थे। उन्हें एक नया मंच मिल गया और प्रसद्धि भी। पिता की कलाकृतियों की यादों को अपने जेहन में संजोए उनके बेटे मयंक सिंह श्याम कहते हैं, “मेरे पिता को चित्रकारी का काफी शौक़ था। जब वह भैसों को गांव के जंगल में चराने के लिए ले जाते थे, तो उन्हें वहां जो भी कुछ अच्छा लगता, उसे भैंसों की पीठ पर बनाने लग जाते। सफेद चॉक से काली भैंसों पर सफेद रेखाओं से बनी चित्रकारी गांव वालों को बड़ी पसंद आया करती थी।”

35 साल के मयंक उस समय महज 13 साल के थे, जब उनके पिता की मौत हो गई। आज मयंक अपनी मां नंकुसिया बाई और बहन जापानी के साथ, गोंड कला के स्कूल, ‘जंगगढ़ कलाम’ के जरिए अपनी इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। 

Tribal Artist Jangarh Singh Shyam ने बेटी का नाम क्यों रखा जापानी?

बच्चे का जन्म होने पर आस-पास होने वाली किसी घटना पर बच्चे का नाम रखने की आदिवासी परंपरा के बारे में, मयंक बताते हैं, “जब मेरी बहन का जन्म हुआ, उस समय पिता जापान में थे। इसलिए उसका नाम जापानी रख दिया गया। मैं पूर्णिमा के दिन पैदा हुआ था, तो मेरा नाम मयंक रखा गया। मयंक का मतलब होता है चन्द्रमा।”

उनकी बहन जापानी ने हंसते हुए कहा, “बचपन में मुझे अपना नाम बिल्कुल पसंद नहीं था। सब मेरा मजाक बनाते थे और मेरी टांग खींचते थे।” हांलाकि उनके इस नाम को सुनकर, आज भी लोग हैरान हो जाते हैं। लेकिन अब वह इस इसकी खासियत से खुश है।”

Japani Shyam working on her canvas.

32 साल की जापानी अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “बचपन से ही हम अपने पिता के बगल में बैठकर उनके काम करने के ढंग को देखते आए थे। पेंट ब्रश चलाने की तकनीक, अलग-अलग स्ट्रोक के लिए अलग तरीके के ब्रश, ये सब हमनें उन्हीं से सीखा है। वह हमसे कहते थे, जो भी दिमाग में चल रहा है। उसे बस एक कागज के टुकड़े पर उकेरते रहो।”

हालांकि जापानी अभी तक एक बार भी विदेश नहीं गई हैं। लेकिन फ्रांस, जर्मनी और जापान से लोग उनके घर भोपाल उनसे मिलने आते रहते हैं। वह उनकी कलाकृतियां खरीदते हैं या गोंड कला पर चर्चा करते हैं। 

बच्चों की पेंटिंग में पिता के शैली की झलक

सन् 1988 में पहली बार गोंड कला की नीलामी की गई थी, जो निश्चित रूप से जंगगढ़ श्याम (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) की ही थी। कोलकाता के आधुनिक कला संग्रहालय की तरफ से न्यूयॉर्क में आयोजित ‘भारतीय समकालीन कला नीलामी’ में सोथबी द्वारा मयंक की एक कलाकृति की भी नीलामी की गई थी। 

दोनों भाई-बहनों ने अपनी पेंटिंग की अलग शैली बनाई है। फिर भी उनके काम में उनके पिता की कल्पना की झलक मिल ही जाती है। मयंक जहां सफेद रंग के बैकग्राउंड पर काले रंग से पेंट करते हैं, वहीं जापानी काली पृष्ठभूमि पर सफेद रंगों का इस्तेमाल करती हैं।

कई गोंड कलाकारों की तरह वे भी पेड़, पौधे, फूल, पत्तियों और जानवरों की आकृतियां बनाते हैं। लेकिन उनकी हर कलाकृति के पीछे छिपी एक कहानी उन्हें बाकी सबसे अलग करती है। 

15वीं शताब्दी से जुड़ा है गोंड कला का इतिहास 

गोंड कला का इतिहास 14वीं या 15वीं शताब्दी से जुड़ा है, जब भारत के मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में पहला गोंड साम्राज्य खोजा गया था। आज, गोंड आदिवासी मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और इसके पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और बिहार के छोटे इलाकों में रहते हैं।

ये आदिवासी अपने घरों को पेड़-पौधे, फूल-पत्तियो और जानवरों की आकृतियों से सजाते हैं। उनके चित्र कोयला, सब्जी और खनिज रंगों, रंगीन मिट्टी से बने होते हैं। दरअसल, गोंड, द्रविड़ शब्द ‘कोंड’ से बना है, जिसका अर्थ है हरा पहाड़। ये आदिवासी कलाकार जो कुछ भी बनाते हैं, उनके पास हर उस पेड़ या जानवर से जुड़ी कोई न कोई कहानी होती है।

मयंक कहते हैं, “मेरे पिता (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) एक प्रधान गायक थे। जब भी मुझे अपने जीवन पर आधारित कुछ चित्रित करना होता है, तो मैं अपने गांव वापस जाता हूं, उन गीतों को सुनता हूं और चित्रों की एक सीरीज बनाने के लिए काफी सारे विचार मेरे दिमाग में आ जाते हैं।”

विरासत को आगे बढ़ा रहा ‘जंगगढ़ स्कूल ऑफ आर्ट’

By artist Venkat Raman Singh Shyam

आज, जब हम गोंड कला के बारे में सोचते हैं, तो इस कला को आगे बढ़ाने के लिए केवल एक ‘जंगगढ़ स्कूल ऑफ आर्ट’ ही नजर में आता है, जो इस विरासत को संभाले हुए है। उनके गांव से निकला हर वह कलाकार, जो मुख्यधारा से जुड़ चुका है, कहीं न कहीं स्वर्गीय जंगगढ़ का उसमें योगदान रहा है। इनमें से बहुत सारे कलाकारों के पास अपने काम के लिए एक अंतरराष्ट्रीय मार्केट है, तो वहीं बहुत से कलाकारों को राज्य और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

जंगगढ़ (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) के भतीजे वेंकट रमन सिंह श्याम को मध्य प्रदेश के ‘राज्य हस्तशिल्प पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। जब उनके चाचा उन्हें गांव से भोपाल लेकर आए थे, तो उन्होंने उनसे अपने मन की चीजों को कागज पर उकेरने के लिए कहा था। वह बताते हैं, “मैं कुछ अलग करना चाहता था। मेरे चाचा ने मुझे इसके लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनका क्लोन न बनूं और एक कलाकार के रूप में अपनी अलग पहचान बनांऊ।”

Tribal Artist Jangarh Singh Shyam के एक कलाकार को मिला पद्म श्री

वेंकट रमन, पेंटिंग की गोंड शैली का ध्यान रखते हुए, आसपास होने वाली घटनाओं को अपने चित्रों में जगह देते हैं। साल 2008 में जब मुंबई पर हमला हुआ, तो उन्होंने मुंबई के ताज पैलेस होटल पर हुए हमले को दिखाते हुए ‘स्मोकिंग ताज’ (2009) को चित्रित किया था।

हाल ही में उन्होंने महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन और प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा पर कई कृतियां बनाई थीं। उनके बहुत से चित्र, सरकारी उदासीनता पर भी कटाक्ष करते नजर आते हैं।

साल 2004 में भज्जु श्याम की किताब, ‘द लंदन जंगलबुक’ को काफी सफलता मिली थी। यह गोंड कला के लिए काफी गौरव का पल था। उन्हें साल 2018 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। साल 2008 में ‘द लाइफ ऑफ ट्रीज़ नाइट’ नाम की एक अन्य किताब के लिए उन्हें ‘बोलोगोना चिल्ड्रन बुक फेयर’ से भी सम्मानित किया गया था। 

देश में इस कला के कम हैं कद्रदान 

गोंड कलाकारों की सफलता की ऐसी कई कहानियां मौजूद हैं। लेकिन आज वे जीवन यापन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लॉकडाउन के समय, उनके काम पर खासा असर पड़ा था। वे उससे अभी तक नहीं उबर पाए हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण है, महामारी के दो साल बाद मुंबई में आयोजित एक लोक और आदिवासी कला प्रदर्शनी।

यहां लोगों की भीड़ तो बहुत थी, लेकिन खरीदार काफी कम। शायद यही वजह है कि विदेशों में अपनी कलाकृतियों को मिल रही सराहना के बावजूद, ये गोंड कलाकार मायूस नजर आते हैं। देश में उन्हें न तो इस कला के कद्रदान मिलते हैं और न ही खरीदार। 

खैर! आज अगर जंगगढ़ सिंह श्याम (Tribal Artist Jangarh Singh Shyam) जिंदा होते, तो अपने जंगल कलाम कला विद्यालय से निकलने वाले कलाकारों की सफलता और कला को देख सबसे ज्यादा खुश होते। क्योंकि ये कलाकार, तमाम परेशानियों के बावजूद उनकी विरासत को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। 

मूल लेखः सुरेखा कडपा-बोस

संपादनः अर्चना दुबे

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