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5 लाख किसानों ने दो-दो रूपये देकर बनवाई थी, श्याम बेनेगल की यह फ़िल्म!

साल 1976 की बात है, कई ट्रक भर-भर के किसान और उनके नाते-रिश्तेदार पास के सिनेमाघरों में एक फ़िल्म देखने पहुंच रहे थे। यह फ़िल्म उन सभी के लिए ख़ास थी। ख़ास इसलिए नहीं कि ये उनकी कहानी पर आधारित थी। ख़ास इसलिए भी नहीं कि उस फ़िल्म में स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पूरी और गिरीश कर्नाड जैसे दिग्गज कलाकार थे। बल्कि ख़ास इसलिए क्यूंकि इस फ़िल्म के वे केवल दर्शक ही नहीं बल्कि निर्माता भी थे।

यह फ़िल्म थी श्याम बेनेगल की ‘मंथन’, जिसके सह-लेखक थे डॉ. वर्गिस कुरियन और जिसके निर्माता थे गुजरात के 500,000 किसान!

डॉ. कुरियन की ‘श्वेत क्रान्ति’ पर बनी यह फ़िल्म विश्व की ऐसी पहली प्रदर्शित फ़िल्म थी, जिसके इतने सारे निर्माता थे।

कैसे हुई शुरुआत 

आज़ादी के बाद, स्वतन्त्रता सेनानी, त्रिभुवनदास पटेल गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों के साथ काम करने लगे। इन किसानों के साथ मिल कर उन्होंने ही भारत में सहकारी समितियों की शुरुआत की। अभी यह अभियान ज़ोरों पर ही था कि 1949 में अमेरिका से स्नातक करके एक युवक भारत लौटा और त्रिभुवनदास के कार्यों से प्रभावित होकर उनके साथ जुड़ गया। यह युवक और कोई नहीं बल्कि श्वेत क्रांति के जनक डॉ.वर्गिस कुरियन ही थे।

जल्द ही डॉ.कुरियन ने इस सहकारी समिति की बागडोर ऐसी संभाली कि 1955 तक यह एशिया की सबसे बड़ी डेयरी बन गयी। इसी डेरी को आज आप सभी अमूल के नाम से जानते हैं।

डॉ. कुरियन इसी मॉडल को पूरे देश में फैलाना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने 1970 में ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत की, जिससे भारत में श्वेत क्रांति आई और भारत विश्व में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया।

जब कुरियन और बेनेगल मिले 

डॉ, कुरियन इस क्रांति का हर हिस्सा संजो कर रखना चाहते थे ताकि इसे दिखा कर दुनिया भर के किसानों को प्रेरित कर सके। इसके लिए उन्होंने मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल से संपर्क किया। वे चाहते थे कि बेनेगल इस पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाये। बेनेगल मान गए और इसके लिए उन्होंने गुजरात का चप्पा-चप्पा छान लिया। श्वेत क्रान्ति की हर एक बारीकी से अब बेनेगल वाकिफ़ थे।

“मैंने डॉ. कुरियन के लिए ऑपरेशन फ्लड पर कुछ डॉक्यूमेंट्रीज़ बनायी, जिनसे वे बहुत खुश थे, पर मैं खुश नहीं था,” बेनेगल ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया।

जितने मुट्ठीभर लोगों तक ये डॉक्यूमेंट्रीज़ पहुँच रही थी, उससे बेनेगल खुश नहीं थे। वे चाहते थे कि इस विषय पर कुछ ऐसा बनना चाहिए, जो हर आम नागरिक तक पहुंचे और इस महान क्रांति के बारे में देश विदेश तक चर्चा हो। यह काम सिर्फ़ एक अच्छी फीचर फ़िल्म ही कर सकती थी। इसी सोच के साथ बेनेगल, डॉ. कुरियन के पास पहुंचे।

और फिर ‘मंथन’ साकार हुआ!

श्याम बेनेगल ने फ़िल्म बनाने की सोच तो ली थी, पर इसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे, यह एक बड़ा मसला था। आम गाँववाले जो एक सहकारी समिति बनाने में लगे है, ऐसी कहानी पर कौन निर्माता पैसे लगाता? पर डॉ. कुरियन ने इस गंभीर समस्या का जो आसान सा हल ढूंड निकाला, उसने इतिहास ही रच दिया!

डॉ. कुरियन ने बेनेगल से पूछा कि उन्हें फ़िल्म बनाने के लिए कितने पैसे चाहिए होंगे, जिसके जवाब में बेनेगल ने कहा, “10-12 लाख रूपये”। यह सुनकर डॉ. कुरियन मुस्कुराए और कहा,”इतने का तो मैं इंतज़ाम कर सकता हूँ।”

दरअसल, डॉ. कुरियन के गुजरात में बनाये सहकार समिति से अब तक 5 लाख किसान जुड़ चुके थे। गुजरात के अलग-अलग गाँवों में बनी समितियों में ये किसान रोज़ सुबह-शाम अपना दूध बेचने आते थे। उन्हें उस वक़्त एक पैकेट दूध का रु.8 मिलता था।

डॉ. कुरियन ने सभी समितियों को सन्देश पहुँचाया कि वे उस सुबह किसानों से दरख़्वास्त करे कि बस आज वे अपना दूध रु. 8 की बजाय रु. 6 में बेचे। बचे हुए 2 रूपये से वे अपनी कहानी पर एक फ़िल्म बनवा सकते हैं।

सभी पाँच लाख किसान इस प्रस्ताव को ख़ुशी-ख़ुशी मान गए, और इस तरह ये 500,000 किसान ‘मंथन’ के निर्माता बन गए।

जब फ़िल्म थिएटर में लगी तो इसे हाउसफुल होते देर न लगी। आनंद, सूरत, मेहसाना, पोरबंदर… सभी जगहों से किसान ट्रक भर-भर के सिनेमा घरों की तरफ दौड़े, अपनी निर्मित पहली फ़िल्म देखने!

‘मंथन’ को साल 1976 का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। फ़िल्म देश विदेश में छा गयी। और आज भी इस फ़िल्म को भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है!

देखिये इतिहास रचा देने वाली फ़िल्म ‘मंथन’


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