किसी ने सही कहा है, अपने सपने तथा शौक पूरे करने की कोई तय उम्र नहीं होती है। जब आप ठान लें, आप तब ही शुरुआत कर सकते हैं। जैसा कि 77 वर्षीय सावित्री राव ने किया। सावित्री एक यक्षगान (Yakshagana) कलाकार हैं। अगर हम आपसे कहें कि, उन्होंने इस कला को 66 साल की उम्र में सीखना शुरू किया था, तो क्या आपको यकीन होगा?
नहीं न! हमें भी नहीं हुआ था लेकिन, यह सच है। ‘यक्षगान’ कर्नाटक का एक पारंपरिक थिएटर रूप है, जिसे एक मंदिर कला के रूप में वर्णित किया जा सकता है। जिसमें पौराणिक कथाओं और पुराणों को दर्शाया जाता है। यह बड़े पैमाने पर अक्सर सर पर बड़े से मुकुट, चेहरे पर कलात्मक सजावट, विशिष्ट परिधानों और गहनों के साथ किया जाता है।
सावित्री कहतीं हैं कि, वह हमेशा से इस कला को सीखना चाहतीं थीं। लेकिन, ज़िंदगी की अन्य ज़िम्मेदारियों के चलते उन्हें कभी इसका मौका ही नहीं मिला। किन्तु, जब उन्हें मौका मिला तो उन्होंने अपने शौक के बीच अपनी उम्र को नहीं आने दिया। बचपन से ही अभिनय में रूचि रखने वाली सावित्री को इस नृत्य-शैली से प्यार हो गया था। वह कहतीं हैं, “मैं हाथ में एक छड़ी ले लेती, और सोचती थी कि, मैं युद्ध में हूँ। फिर एक कोने से दूसरे कोने तक कूदती रहती तथा अपने चेहरे पर चारकोल लगाकर कुछ और ही बन जाती थी।”
हमेशा से ही यक्षगान सीखने और परफॉर्म करने की चाह रखने वाली सावित्री को पहले कभी इसे करने का मौका नहीं मिला। क्योंकि महिलाओं के लिए उस वक़्त इस तरह के कलात्मक समूह का हिस्सा होना अच्छा नहीं माना जाता था। इसलिए वह एक शिक्षिका बन गईं, और उन्होंने इस क्षेत्र में भी नाम कमाया।
पति ने दिया साथ:
1987 में, उन्हें ‘बेस्ट टीचर’ श्रेणी के तहत ‘भारतीय बाल शिक्षा परिषद’ से पुरस्कार मिला। वह 1990 में सेवानिवृत्त हुईं, और कन्नड़ साहित्यिक प्रतिभाओं को साधने तथा बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित संगठन, ‘मक्कला साहित्य संगम’ के प्रबंधन और संचालन में अपने पति का सहयोग करने लगीं।
अपने पति श्रीनिवास राव के बारे में वह कहतीं है कि, वह उनके सबसे बड़े प्रशंसकों में से एक हैं। उन्होंने बताया, “ज्यादातर महिलाओं को लगता है कि, शादी करने के बाद, अपने सपनों को भूल जाना चाहिए। मेरे साथ ऐसा बिलकुल नहीं था। मेरे पति खुद यक्षगान के बहुत बड़े प्रशंसक हैं, और उन्होंने मुझे इस कला को सीखने के लिए प्रोत्साहित किया।”
उन्होंने आगे कहा कि, वह अक्सर मंगलौर के ‘टाउन हॉल’ में अपने पति के साथ परफॉरमेंस देखने के लिए जाया करती थीं।
वह कहतीं हैं कि, ‘टाउन हॉल’ की यात्राओं ने उन्हें इस फैसले को लेने में बहुत ज़्यादा मदद की।
2009 में ही, सावित्री ने मंगलौर के यक्षराधना कला केंद्र की निदेशक, सुमंगला रत्नाकर से संपर्क किया। जो सावित्री की पड़ोसी भी थीं। वह बताती हैं, “मुझे याद है कि उनके पास जाने में मुझे बहुत शर्म आ रही थी। फिर मेरे पति ने मुझे प्रोत्साहित किया। मुझे खुशी है कि मैंने यह निर्णय लिया, क्योंकि यह मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन अनुभवों में से एक है।“ यक्षगान हमेशा से पुरुषों के इर्द-गिर्द रहा है, और काफी वक़्त बाद ऐसा हुआ कि, महिलाओं ने भी इस में भाग लेना शुरू कर दिया। सावित्री ने बताया कि अब इसमें लगभग 60 महिला कलाकार हैं, और वह शायद सबसे उम्रदराज महिलाओं में से एक हैं।
मई 2018 में, सावित्री ने पौराणिक कथा ‘नरकासुर वधे ‘ में दुर्योधन के रूप में अपने 100वें यक्षगान में परफॉर्म किया।
आसान नहीं है यह डांस फॉर्म:
उनके प्रैक्टिस शेड्यूल के बारे में पूछने पर वह बतातीं हैं, “जब हमें कोई शो करना होता है तो, हम हर दिन कुछ घंटों के लिए प्रैक्टिस करते हैं। बाकी समय, हफ्ते में एक-आध बार, दो-तीन घंटे के लिए प्रैक्टिस करते हैं।” उनके द्वारा निभाई गई कुछ भूमिकाओं में वाल्मिकी, दुर्योधन, सुग्रीव, भीष्म और धर्मराय शामिल हैं। उनके अनुसार, उन्हें धर्मराय की भूमिका निभाते समय काफी मजा आया।
परफॉरमेंस में पेचीदगी के अलावा मेकअप में भी काफी वक़्त जाता है। शाम 6 बजे शुरू होने वाले शो के लिए, कलाकारों को शो से पहले कम से कम तीन से चार घंटे पहले अपने मेकअप और पोशाक के साथ शुरुआत करनी होती है। वह कहती हैं, “सिर्फ पोशाक और आभूषण पहनने में ही हमें लगभग आधा घंटा लग जाता है। वह कहती हैं, “यह सब बहुत कठिन है, लेकिन ऐसा करने में अपार खुशी मिलती है।”
इस नृत्य में कलाकार को, जिस शारीरिक परिवर्तन से गुजरना पड़ता है, वह आसान नहीं है। सावित्री की पोशाक ही, उनके वज़न से दोगुनी है। इसके साथ ही, उन्हें बहुत कुशलता से नृत्य करना होता है। इस नृत्य में, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक शक्ति का भी परिक्षण होता है।
उन्होंने बताया, “यक्षगान मुझे उत्साहित करता है। मुझसे सब पूछते हैं कि, मैं इस उम्र में यह कैसे करती हूँ। लेकिन, मैं कहती हूँ कि, उम्र सिर्फ एक संख्या है। ‘उम्र’ परिभाषित नहीं कर सकता कि, मैं क्या कर सकती हूँ और क्या नहीं? मैं इस नृत्य-शैली का आनंद लेती हूँ, और स्वयं को धन्य मानती हूँ कि, मैं इसे करने में सक्षम हूँ।” महिलाओं के लिए उनका संदेश है कि, उम्र चाहे जो हो, वे कभी अपने सपनों को न छोड़ें। वह कहती हैं, “शायद तुरंत नहीं, लेकिन आपके पास हमेशा अपने सपनों को जीने का मौका होगा, इसलिए सतर्क रहें और जब वह पल आये तो झट से इसे लपक लें।”
आखिर में वह सिर्फ एक बात कहतीं हैं कि, “आपका लिंग या उम्र, कभी भी आपके, और आपके सपनों के बीच बाधक नहीं बनने चाहिएं।”
संपादन – प्रीति महावर
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