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अपनों की बेरुख़ी के शिकार बुजर्गों का सहारा बनी, 100 साल की अरुणा मुख़र्जी!

बुढ़ापे में जिन बुज़ुर्गों को अपनों ने ही बाहर का रास्ता दिखा दिया, उन लोगों की ज़िन्दगी की तन्हाइयों को बाँटने और उन्हें आसरा देने के लिए असम की एक 100 वर्षीय वृद्धा अरुणा मुख़र्जी उनकी हमदर्द और मसीहा बनी हैं।

सम की 100 वर्षीय अरुणा मुख़र्जी ने गुवाहाटी नागरिक प्रशाशन से एक वृद्धाश्रम खोलने की अनुमति माँगी है। इस वृद्धाश्रम का संचालन वो खुद ही करेंगी।

 

अरुणा ने हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया, “ मेयर ने मुझसे पूछा कि इस वृद्धाश्रम का संचालन कौन करेगा, मैंने ज़वाब दिया- ‘मैं’। ये सुनकर उनके चेहरे के भाव देखने लायक थे।“

 

मेयर मृगेन सरनिया और उनके सहकर्मी अरुणा के इस कदम से इतने प्रभावित है कि वे इस वृद्धाश्रम को खोलने की साड़ी कार्यवाही जल्द से जल्द पूरा करने की कोशिश में जुट गए है ताकि अरुणा इसे अक्टूबर महीने से ही शुरू कर सके।

 

मृगेन कहते है, “100 साल की उम्र में भी अरुणा में इतना उत्साह है कि वो उम्र के इस पड़ाव में जो कर रही हैं वो लोग अपनी युवावस्था में भी नहीं कर पाते, यह प्रशंशनीय है। “


अरुणा अपनी क्षेत्र की जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता है। वे चार वोकेशनल इंस्टिटुएस चलाती हैं जहाँ कि निःशुल्क पेंटिंग बनाने का, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, ज़रदोज़ी और सॉफ़्ट टॉयज बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

 

100 साल की आयु पार करने के बावज़ूद उनकी दिनचर्या बहुत ही सक्रिय और उत्साह से भरी होती है और उनका स्वस्थ्य भी बहुत अच्छा है। बस ढ़लती उम्र की वजह से उनकी नज़र ज़रा कमज़ोर और सुनने की शक्ति थोड़ी कम हो गयी है। इसके बावजूद वो अपना सारा काम खुद करतीं हैं।

 
अरुणा के बारे में सबसे दिलचस्प बात ये है कि वो पिछले 70 सालों से सिर्फ़ चाय और बिस्कुट खा कर ही जीवित हैं। उन्हें संतरे भी बहुत पसंद हैं और वो संतरों के मौसम में संतरे भी खाती हैं। उन्होंने 1947 में बांग्लादेश ( पूर्वी पाकिस्तान ) के शरणार्थियों को देख कर ये खानपान अपनाया।

 
अरुणा का जन्म ढाका में हुआ था पर 80 साल पहले जादुलाल मुख़र्जी से विवाह होने पर वो उन्हीं के साथ आ कर असम में बस गयीं, उनके पति गुवाहाटी कॉटन कॉलेज में रासायन विभाग में थे।

 

अरुणा ने द न्यू ई इंडियन एक्सप्रेस से साक्षात्कार में बताया, “मैंने बांग्लादेश से भागे सैकड़ों भूखे शरणार्थियों को गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन पर शरण लिए हुए देखा। मैंने छोटे-छोटे बच्चों को भूख से बिलखते देखा, तो उनके लिए खाना बना कर उन्हें खाने के लिये दिया। धन जुटाने के लिए मैंने कागज़ की थैलियाँ बना कर बेचे ताकि मैं उन पैसों से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को खाना खिला सकूँ…..कुछ समय बाद वो लोग कहीं और चले गये पर मैं ये कभी नहीं भूल पायी कि भूखे रहने का एहसास कैसा होता है। इसलिए मैं आज तक बिस्कुट और चाय के अलावा कुछ नहीं लेती।“

 

अरुणा अपने बच्चों से अलग स्वतंत्र रूप से रहती हैं। उनका एक बेटा और बेटी कनाडा में रहते हैं और तीन बेटे गुज़र चुके हैं।

 

 

अरुणा की ज़िन्दगी पर फ़िल्म बना रही, डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर बबिता शर्मा ने कहा, “100 साल की उम्र में भी उनका ये जज़्बा कायम है। वो बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में जाती हैं और बाढ़ पीड़ितों की मदद करती हैं।“

 

 

मूल लेख – निशि मल्होत्रा


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