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9 साल तक लड़ी कानूनी लड़ाई ताकि अपराधी न बन सकें MLA या MP

Lily Thomas

यह कहानी भारत की उस महिला वकील की है, जिन्होंने अपनी अंतिम सांस तक देश में विभिन्न मुद्दों पर याचिका दायर करके समाज के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश की।

यह उनकी याचिकाओं का ही असर था जो आज देश में आपराधिक मामलों में सजा काट रहे या फिर काट चुके सांसद दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। हम बात कर रहे हैं देश की सबसे पुरानी महिला वकीलों में से एक लिली थॉमस की।

साल 2019 में 91 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाली लिली हमेशा देश में महत्वपूर्ण बदलावों के लिए याद की जाएँगी। कोट्टयम में जन्मीं थॉमस त्रिवेंद्रम में पली-बढ़ीं और फिर पढ़ाई के लिए मद्रास चली गयीं। साल 1955 में उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट के बार में एनरोल किया।

दो साल बाद, उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय के एलएलएम पाठ्यक्रम में दाखिला लिया और यहाँ से स्नातक करने वाली पहली महिला बन गईं। इसके बाद, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बतौर वकील अपने करियर की शुरूआत की। उस समय अदालतों में प्रैक्टिस करने वाली केवल चार महिलाओं में से एक लिली थॉमस थीं। सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान ही उन्होंने केंद्र सरकार के खिलाफ कई मुकदमे और याचिका दायर कीं। यहाँ तक कि उन्हें उपनाम भी मिल गया था- ‘लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया!’

उनका पहला सबसे बड़ा केस साल 1964 में था जब उन्होंने एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एग्जाम को चुनौती थी। यह परीक्षा सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित होती है और जो वकील इसे पास करता है उसे ‘एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड’ कहा जाता है। इकनोमिक टाइम्स के मुताबिक, 1964 से लेकर अपनी आखिरी साँस तक वह समाज में विभिन्न मुद्दों पर लड़ीं। सरकारी परीक्षाओं की वैधता से लेकर रेलवे कर्मचारियों के मुद्दों को सुलझाने तक, और तो और उनकी याचिकाओं की वजह से हिंदू मैरिज एक्ट 1955 में भी संशोधन हुआ।

इसके अलावा, मुख्य तौर पर उन्हें जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों को चुनौती देने के लिए याद रखा जायेगा। साल 2003 में लिली ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1952 के विरुद्ध याचिका दायर की और सुप्रीम की कि इसके सेक्शन 8 (4) को असंवैधानिक करार दिया जाए। इस सेक्शन में प्रावधान किया गया था कि दोषी करार दिए जाने के बाद भी जनप्रतिनिधि अपनी कुर्सी पर बने रह सकते हैं अगर वह अदालत के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देते हैं।

 

Lily Thomas

लेकिन थॉमस के मुताबिक यह बिल्कुल भी सही नहीं था क्योंकि देश को भ्रष्ट नेता चलाएं, यह तो नहीं हो सकता। उन्होंने देखा कि कैसे बार-बार अपराधी करार पाने के बाद भी सांसद अपने पदों पर बने रहते हैं और उन्हें पार्टी से टिकट भी मिल जाती है चुनाव लड़ने के लिए। इसलिए लिली थॉमस ने इस कानून को चुनौती दी।

हालांकि, पहली बार में उनकी इस याचिका को ख़ारिज कर दिया गया था लेकिन लिली थॉमस ने हार नहीं मानी। उन्होंने फिर से याचिका दायर की और करीब 9 साल बाद, तीसरे प्रयास में उनकी याचिका के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, किसी भी हाल में आपराधिक मामलों में दोषी पाए गए जनप्रतिनिधि को कुर्सी पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।

साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला आया और इसने लगभग 5 हज़ार सांसदों को प्रभावित किया। इस फैसले के बाद प्रभावी तौर पर किसी भी कोर्ट द्वारा अपराधी करार मिलने के बाद तुरंत सांसदों को उनके पदों से निरस्त करने का आदेश दिया गया। और तो और सजा काटने वाले सांसद चुनाव लड़ने की योग्यता भी खो देते हैं।

तत्कालीन, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरुद्ध याचिका दायर की थी। लेकिन लिली ने भी इसके साथ ही एक रिव्यु पेटीशन दायर कर दिया और सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले पर डटे रहने के लिए अपील की। हालांकि, बाद में लोगों की प्रतिक्रिया को देखते हुए सरकार ने अपनी याचिका वापस ले ली।

अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “भारत का संविधान हमें भयमुक्त जीवन जीने की गारंटी देता है। किसी को अधिकार नहीं है कि हमसे ये आजादी छीन ले। कानून में लचक की वजह से दागदार लोग चुनाव लड़ते आ रहे हैं और अहम पदों को सँभालते आ रहे हैं। ये ग़लत है। मैं नहीं चाहती कि देश के भविष्य का फैसला उनके हाथों में हो जो आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं या फिर जो भ्रष्ट हैं। इसी लिए मैंने अदालत में ये लड़ाई लड़ी। अगर हम वकील होकर इसके लिए नहीं लड़ेंगे तो फिर कौन करेगा?”

10 दिसंबर 2019 को लिली थॉमस ने इस दुनिया को अलविदा कहा। लेकिन अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ भी लोगों के लिए किया उसे सदैव स्मरण रखा जाएगा!

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मूल लेख – RINCHEN NORBU WANGCHUK

संपादन : जी.एन. झा


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