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नेत्रहीन हैं, पर इनकी बनाई डिज़ाइनर कुर्सियां देख दंग रह जाएंगे आप

inspiring Story Of A Blind Person Magan Bhai From Gujarat
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नेत्रहीन मगन भाई की प्रेरणात्मक कहानी – Inspiring Story Of A Blind Person

गुजरात के एक छोटे से गाँव सोजित्रा के रहनेवाले 68 वर्षीय मगन भाई ठाकोर बचपन से ही नेत्रहीन हैं। लेकिन, पिछले 30 सालों से अपने गांव से 14 किमी दूर, पाटन शहर आकर लकड़ी की कुर्सियों में प्लास्टिक की डोरी से डिज़ाइन बनाने काम कर रहे हैं। इसके लिए वह हर रोज़, अकेले बस में 14 किमी लम्बा सफर करते हैं।    

मगन भाई को बचपन में ही कम दिखने की शिकायत रहने लगी थी। लेकिन, उनका परिवार काफी गरीब था, इसलिए उनके पास इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे। छठी क्लास तक तो, वह अपने एक पड़ोसी दोस्त के सहारे स्कूल जाया करते थे। लेकिन फिर उनकी आँखों की रौशनी पूरी तरह से चली गयी। इसके बाद, उन्हें पालनपुर की एक अंधशाला में भेज दिया गया। 

सीखा हर वह हुनर, जिससे बन सकें आत्मनिर्भर

इस स्कूल में उनके जैसे कई गरीब बच्चों को प्रायोगिक ज्ञान के साथ-साथ किताबी शिक्षा भी दी जाती थी। वहां उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। फिर साल 1986 में उन्होंने अहमदाबाद से ITI का कोर्स भी किया। वह चाहते थे कि उन्हें जीवन में कभी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े।   

मगन भाई जानते थे कि उनकी अवस्था के कारण, कहीं भी नौकरी मिल पाना काफी मुश्किल होगा। इसीलिए, उन्होंने जनरल मैकेनिक का काम भी सीखा और कुछ समय तक घूम-घूमकर मोटर और पाइप रिपेयरिंग का काम भी किया। लेकिन इन सबसे उन्हें ज्यादा फायदा नहीं हुआ। फिर उन्होंने अपने उस हुनर को तराशने का फैसला किया, जो उन्होंने पालनपुर के स्कूल में सीखी थी। वह हुनर था – बुनाई!

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कला ने आखिर दिलाई पहचान

साल 1990 में, उन्होंने बैंक से 8000 रुपयों का लोन लिया और अपने गाँव से 14 किमी दूर पाटन शहर में एक छोटी-सी दुकान खोल ली। वह रोज़ अकेले बस से सफर करके, अपने गाँव से 14 किमी दूर, पाटन में काम करने जाने लगे। यहाँ, वह पुरानी टूटी कुर्सियां में बुनाई से डिज़ाइन बनाकर, उन्हें खूबसूरत बनाने का काम करते। धीरे-धीरे लोगों को उनका काम पसंद आने लगा और उनके ग्राहकों की संख्या भी बढ़ने लगी।

मगन भाई कहते हैं, ‘मैं अपनी कला का इस्तेमाल करके, 100 से भी ज्यादा डिज़ाइन बनाने लगा और लोग मेरी छोटी-सी दुकान का पता पूछ-पूछकर मेरे पास आने लगे।” 

Maganbhai working in his shop

मगन भाई ने अब गृहस्थी भी बसा ली थी और अपनी पत्नी और बेटी के साथ ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ारा कर रहे थे। ज़िन्दगी आखिर पटरी पर आने लगी थी, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था!

काँटों भरा सफर….
साल 2004 में, एक दिन अचानक नगरपालिका ने उनकी दुकान, सरकारी कारणों से हटा दी। मगन भाई के लिए मानों यह उनकी ज़िन्दगी का सबसे मुश्किल दौर था। उन्होंने नगरपालिका में शिकायत दर्ज कराई, कलेक्टर ऑफिस तक चक्कर लगाए और न जाने कितने पापड़ बेले। एक नेत्रहीन व्यक्ति के लिए ये सब आसान नहीं था, लेकिन मगन भाई जानते थे कि उनकी दुकान ही उनके परिवार का एकमात्र सहारा है और इसके लिए वह जी-जान लगाने को तैयार थे। 

… और आखिर उनकी ढृढ़ता के आगे किस्मत को झुकना पड़ा। कुछ समय के संघर्ष के बाद, सरकार ने उन्हें पाटन में ही दूसरी जगह पर,एक छोटा-सा कैबिन दिया।

धीरे-धीरे मगन भाई ने अपनी कला और मेहनत के दम पर यहाँ भी अपना बिज़नेस जमा लिया। यहाँ उन्हें स्कूल, कॉलेज और अस्पताल जैसे सरकारी ऑफिस से कुर्सी बनाने के काफी ऑर्डर्स मिलने लगे। 
लेकिन, फिर एक बार किस्मत ने करवट बदली और कोरोना महामारी के कारण, लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। इससे मगन भाई का काम खासा प्रभावित हुआ। लेकिन लाख मुसीबतों के बावजूद, इस मेहनती शख्स की हिम्मत आज भी नहीं डगमगाई है। 

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हिम्मत की मिसाल!

मगन भाई कहते हैं, “लॉकडाउन से पहले तक, मैं महीने के पांच से दस हजार रुपये कमा रहा था। समय के साथ, इस तरह की हैंडमेड कुर्सियों का चलन कम हो गया है। ऊपर से, पिछले साल लॉकडाउन में काम और कम हो गया। लेकिन मैं हारा नहीं हूँ। मुझे थोड़ा-थोड़ा काम मिलता है और मैं इस उम्र में भी नया सीखने से और काम करने से डरता नहीं।”

मगन भाई की पत्नी भी छोटा-मोटा काम करती हैं और उनकी बेटी नौवीं कक्षा में पढ़ाई कर रही है।

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आज से 30 साल पहले मगन भाई ने अपनी छोटी-सी दूकान में सिर्फ 75 रुपये में एक कुर्सी डिज़ाइन करने का काम शुरू किया था। आज भी, वह पुरानी कुर्सी में नई डिज़ाइन बनाने के सिर्फ 200 रुपये लेते हैं। आज भी, वह रोज़ 14 किमी का सफर अकेले तय करते हैं। आज भी, वह सरकार के दिए उसी छोटे-से कैबिन में बैठकर काम करते हैं। आज भी, उनका हौसला उतना ही बुलंद है!

पूरे पाटन शहर में आज हर कोई मगन भाई की इस हिम्मत और हौसले की कहानी की मिसालें देता है। और मगन भाई बस इसी बात से खुश हैं कि वह या उनका परिवार लाख परेशानियों के बावजूद, कभी किसी पर निर्भर नहीं रहा। आगे भी उनकी बस यही एक छोटी सी ख्वाहिश है!

आशा है आपको भी उनकी कहानी से प्रेरणा जरूर मिली होगी।  

संपादन – मानबी कटोच

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