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इस दिवाली पर इस 13 साल की बच्ची की बनायीं कंदीले खरीदकर, बेसहारा लोगो के जीवन में लायें रौशनी!

पना सारा लाभ किसी की भलाई के लिए दान कर देने के लिए आपको कितना बड़ा और समझदार होना चाहिये ?

40 साल? या कम से कम 30 साल? अगर क़ानून के हिसाब से चले तो इतनी समझ आने के लिए कम से कम 18 साल का तो होना ही चाहिए।

पर जवाब है 13 साल! जी हाँ, बम्बई की एक 13 साल की क्षिर्जा राजे, अपने हस्तशिल्प व्यापार से कमायें सारे लाभ को ज़रूरतमंदों की सहायता में ख़र्च करती है। क्षिर्जा की कहानी हाल ही में “ ह्यूमन्स ऑफ़ बॉम्बे “ के फेसबुक पेज पर साझा की गयी थी।

उस पोस्ट में क्षिर्जा ने उस घटना का ज़िक्र किया जिसकी वजह से उनकी सोच में ये बदलाव आया। एक बार  जब वो अपने घर में बने खाने में नुक्स निकाल रही थीं, तो उनकी माँ उन्हें पड़ोस की गंदी बस्ती में ले कर गयी जहाँ पर कुछ लोग एक खाने से भरे ट्रक से गरीब और वंचित लोगो में खाना बाँट रहे थे। खाने के लिए उन बच्चों को फ़ूड ट्रक के पीछे भागते देख, काशिराज के मन में ये विचार आया कि अगली बार इनका खाना कहाँ से आयेगा। उन्होंने उसी वक़्त ये निश्चय कर लिया कि वो उनकी हरसंभव सहायता करेंगी।

उस साल के बाद हर साल दीवाली के समय उन्होंने कंदील बना कर उन्हें बेचना शुरू किया और इस से इक्कठे हुये पैसों से मिठाइयाँ खरीदीं और उन बच्चों के ही साथ दीवाली का त्यौहार मनाया। तभी से , क्षिर्जा लोगों को ख़ुशियों की सौग़ात देने में लगी हुयी हैं। वो कागज़ की छोटी छोटी चीज़े जैसे लिफ़ाफ़ा , फोटो फ्रेम , ग्रीटिंग कार्ड , हेंडीक्राफ्ट , गुड़िया आदी बनाती हैं और इससे कमाए पैसो को किसी नेक काम में लगाती हैं। आप भी चाहे तो उनके फेसबुक पेज “Kshirja’s Creations“ पर उनके इस नेक काम में उनका साथ दें सकते हैं।

जब उनकी माँ को कैंसर का पता चला और उनके कैंसर का इलाज चल रहा था तो क्षिर्जा ने उन कैंसर मरीजों के बारे में सोचा जो इसका खर्चा नहीं उठा सकते। उस साल क्षिर्जा ने 30,000 रुपये कैंसर मरीज़ों के लिए जमा किये। इस साल काशिराज टाटा मेमोरियल अस्पताल में उन कैंसर पीड़ित बच्चों के लिए एक वर्कशॉप आयोजित कर रही हैं जिसमे वो उन्हें हस्तशिल्प की कला सिखाएंगी।
“एक शाम मैं घर पर खाने में बहुत कमियाँ निकाल रही थी , तब मेरी माँ ने मुझे खाना छोड़ , उनके साथ चलने को कहा …….-
18 Oct 2016 को मंगलवार को “ ह्यूमन्स ऑफ़ बॉम्बे “ द्वारा पोस्ट किया गया।

पूरी पोस्ट यहाँ पढ़िये –

“एक शाम घर पर मैं जब खाने को लेकर नखरे कर रही थी, तब माँ ने मुझे खाना छोड़ कर उनके साथ चलने को कहा। वो मुझे मेरे घर के ही पास की एक बस्ती में ले गयीं। वहाँ मैंने अपनी ही उम्र के छोटे छोटे बच्चों को खाने के लिये फ़ूड ट्रक के पीछे भागते देखा जो वहां हर रविवार आता है। ये सब देख कर मेरी आँखे छलक आयीं- वो सब ये तक नहीं जानते थे कि उन्हें अगला खाना कब नसीब होगा और एक मैं थी जो खाने में कमियाँ निकाल रही थी। इसे देखने के बाद मैंने उन लोगों की हर संभव सहायता करने की ठानी।

इसके कुछ समय बाद मैंने अपनी दीवाली की छुट्टियों से पहले स्कूल प्रोजेक्ट के लिये एक छोटी सी कंदील बनाई। मैंने अपनी माँ से पूछा कि, ‘माँ ! अगर हम कंदीलें बनाते हैं तो एक कंदील बनाने में कुल कितना ख़र्च आयेगा’। उन्होंने बताया- ‘लगभग 2 रुपये’। तभी मेरे मन में ये विचार आया था। मैंने कंदील बना कर उन्हें 5 रुपये में अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों को बेचना शुरू किया और मेरी माँ ने उसे अपने सहयोगियों को बेचा। कंदीलें बेच कर मैंने इतना पैसा इक्कठा कर लिया कि मैं उन बच्चों के लिए दीवाली की मिठाइयाँ ख़रीद सकूँ। मैं नहीं जानती कि ये कैसे हो रहा था पर उन बच्चों को मिठाई खाते देख मुझे बहुत ख़ुशी महसूस हो रही थी और ये मेरी सबसे ख़ास दीवाली रही।

मैंने कागज़ के लिफ़ाफ़े, हस्तशिल्प, गुड़िया और भी कई चीज़ें बनायीं। फिर 2013 में मुझे एक दूसरा अनुभव हुआ, जिसने मुझे दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया। जाँच करने पर मेरी माँ को ब्रेस्ट कैंसर का पता चला। जिस दौरान उनका इलाज़ चल रहा था, मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी सारी दुनिया ही बिखर रही हो, पर मेरी माँ हमेशा सकारात्मक रहीं। उन्होंने मुझसे कहा कि हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हम अच्छे से अच्छे इलाज का ख़र्च उठा सकते है जबकि इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग भीलोग  हैं जो इसका ख़र्च नहीं उठा सकते। वो दूसरी बार था जब मैंने खुद को बहुत ही कृतज्ञ महसूस किया और असहाय भी।

इस साल मैंने 30,000 रुपये की अतिरिक्त धनराशि कैंसर मरीजों के लिए इक्कठी की, पर मैं जानती हूँ कि ये पर्याप्त नहीं था पर मैने वो सब किया जो मैं कर सकती थी। इस दीवाली मैं टाटा मेमोरियल अस्पताल में कैंसर पीड़ित बच्चों के लिए एक वर्कशॉप आयोजित कर रही हूँ …उनके साथ खेलने के लिए और उन्हें ढेरों मिठाइयाँ देने के लिये। मैं अब 13 साल की हो चुकी हूँ और आशा करती हूँ कि इसी तरह हर दीवाली मैं उनके जीवन में थोड़ा उजाला भर सकूँ और उनके होठों पर थोड़ी मुस्कान ला सकूँ। इस आशा के साथ कि एक दिन ऐसा भी आयेगा जब कोई बच्चा भूखे पेट नहीं सोयेगा और हर कोई चिकित्सा का ख़र्च उठा पायेगा। मेरी यही कोशिश रहेगी और मैं इसके लिए सब कुछ करुँगी और हम सभी ये कोशिश कर सकते हैं तब तक जब तक ये सच नहीं हो जाता।

मूल लेख – अदिति पटवर्धन

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