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शहर में रहते थे बीमार, गाँव पहुंचे, पथरीली जमीन पर लगाए 1400 पेड़ और हो गए स्वस्थ

अक्सर देखा जाता है कि रिटायरमेंट के बाद लोग आराम की जिंदगी गुजारना पसंद करते हैं। उनकी पहली पसंद, शहर ही होती है। क्योंकि, रिटायरमेंट के बाद लोग सुविधाएं खोजते हैं, ताकि उम्र के इस पड़ाव में अस्पताल आदि की परेशानी न हो। लेकिन, आज हम आपको जिस शख्स की कहानी सुनाने जा रहे हैं, उन्होंने दिल्ली-मुंबई की जिंदगी को छोड़कर उत्तराखंड के पहाडों में अपनी जिंदगी की नई पारी शुरु की है। इनके जीवन का एक ही ध्येय है- ‘जब तक सांस है, प्रकृति से जुड़े रहेंगे।’  

हम बात कर रहे हैं, उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग जिले में स्थित सेमलता गाँव के रहने वाले 67 वर्षीय सोबत सिंह बागड़ी की, जो पिछले लगभग आठ सालों से अपने गाँव में रह रहे हैं और वह भी अकेले। उनका पूरा परिवार, मुंबई में रहता है और उनके बच्चे अच्छे पदों पर काम करते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद, उन्होंने गाँव को चुना। अपने इस फैसले के बारे में सोबत सिंह ने द बेटर इंडिया को बताया कि एक वक्त के बाद उन्हें शहर के जीवन से ऊब होने लगी थी, जिसकी वजह थी उनका बिगड़ता स्वास्थ्य। इसके बाद ही, उन्होंने ठान लिया कि वह अपनी जिंदगी पहाड़ों में गुजारेंगे। 

गाँव लौटकर शुरू किया पौधरोपण

सोबत सिंह बताते हैं, “मेरी स्कूल तक की पढ़ाई गाँव में हुई और फिर मैंने बीकॉम, एमकॉम की पढ़ाई की। दिल्ली में मुझे पंजाब नेशनल बैंक में नौकरी मिल गयी और 2007 में मैंने रिटायरमेंट ले ली। जब मैं रिटायर हुआ तब सीनियर मैनेजर के पद पर था, लेकिन मेरा स्वास्थ्य खराब रहता था। मुझे एक बार दिल का दौरा पड़ चुका था और एक बार ब्रेनस्ट्रोक भी हुआ। इसलिए, मुझे लगा कि मुझे रिटायरमेंट ले लेनी चाहिए।” रिटायरमेंट के बाद कुछ सालों तक सोबत सिंह दिल्ली में ही रहे और फिर कुछ समय मुंबई में रहे। 

Sobat Singh Bagadi

लेकिन, उन्हें शहर का जीवन रास नहीं आ रहा था, इसलिए उन्होंने वापस गाँव आकर बसने की सोची। वह कहते हैं, “जब मैं गाँव लौटा, तो बहुत से लोगों को यह फैसला ठीक नहीं लगा था। क्योंकि, सबको लगता है कि शहर की सुविधाएँ छोड़कर क्यों गाँव आना। लेकिन गाँव और शहर की आबो-हवा में जो फर्क है, उसे मैं अच्छे से जानता हूँ, इसलिए मुझे पता था कि मेरा फैसला बिल्कुल सही है।”

वह आगे कहते हैं कि जब वह गाँव पहुँचे, तो देखा कि गाँव में काफी जगहें खाली पड़ी हैं। समतल जमीन न होने के कारण, लोगों के लिए खेती करना बहुत ही मुश्किल है। ऐसे में सोबत सिंह ने सोचा कि खाली पड़ी बंजर जमीन से अच्छा है कि कुछ पेड़-पौधे लगा दिए जाए। साल 2014 में, उन्होंने एक जगह पर पौधरोपण की शुरुआत की, लेकिन यह इतना आसान काम नहीं था। जिस जगह पर वह काम कर रहे थे, वह एक पहाड़ था, वह भी पथरीला-बंजर पहाड़। पर सोबत सिंह हालात बदलने का फैसला ले चुके थे।

सबसे पहले उन्होंने इस पहाड़ पर सीढ़ीनुमा आकार में छोटी-छोटी पट्टियां बनाई। इसके बाद, वन विभाग से 200 आम के पौधे लेकर लगाए, लेकिन इनमें से कुछ खराब हो गए। इसलिए सोबत सिंह पौधे लेने के लिए खासतौर पर देहरादून गए। वह बताते हैं, “शुरू में, मैंने 300 पौधे लगाए। फिर धीरे-धीरे और पेड़ लगाए। आज यहां पर 1050 आम के पेड़ हैं और लगभग 150 कागजी नीम्बू के पेड़ हैं। पिछले छह-सात सालों में, ये अच्छे से विकसित हो गए हैं और कभी बंजर दिखनेवाला पहाड़, आज दूर से भी हरा-भरा नजर आता है।” 

आसान नहीं था काम 

Drip Irrigation system for the plants

सोबत सिंह कहते हैं कि पहाड़ पर पेड़ लगाना बिल्कुल भी आसान नहीं था, क्योंकि उन्हें खाद, पानी और देखभाल के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी। पानी की व्यवस्था के लिए उन्होंने एक पारंपरिक गदेरे (जल-स्त्रोत) का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि वह बड़ी-बड़ी पाइप लेकर आए और इनकी मदद से गदेरे से पानी पेड़ों तक पहुंचाते रहे। जंगली जानवर पौधों को खराब न कर दें, इसलिए उन्होंने सभी पौधों के चारों तरफ बाड़ भी लगवाई। शुरू के तीन-चार साल, उन्होंने अकेले ही मेहनत की। पौधों के लिए खाद बनाना, निराई-गुड़ाई करना और पानी देने जैसे कामों में उनका पूरा दिन चला जाता था। 

उन्होंने आगे कहा, “अगर जरूरत पड़ती, तो कई बार मजदूर भी लगाता था, क्योंकि लोग मदद करने नहीं आते थे। अक्सर लोग मेरा मजाक बनाते थे। सबको लगता था कि यह पागल है, जो आराम की जिंदगी छोड़ आया है और दिनभर पेड़-पौधे लगाता रहता है। लेकिन मुझे इस जगह को हरा-भरा करना था और सबसे बड़ी बात थी कि यहां आकर स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां कम हो गयी थीं। ऐसा नहीं है कि बीमारी एकदम चली गयी, लेकिन शहरों के मुकाबले, मैं यहां गाँव में ज़्यादा स्वस्थ रहता हूँ। अब तो मेरा कहीं बाहर जाने का दिल भी नहीं करता है।” 

पहाड़ को हरा-भरा करने के साथ, उन्होंने गाँव में एक और जगह पेड़-पौधे लगाए हैं। दूसरी जगह पर उन्होंने लगभग 200 कागजी नीम्बू और 70 कटहल के पौधे लगाए हैं। उनके प्रयासों को देखकर, जिले के उद्यान विभाग ने उनकी मदद की। वह कहते हैं, “उद्यान विभाग की मदद से, मैं इस बगीचे के लिए ड्रिप इरिगेशन सिस्टम लगा पाया। अब पानी की समस्या खत्म हो गयी है। उद्यान विभाग की तरफ से, मुझे मेरे काम के लिए एक अवॉर्ड भी मिला है। हालांकि, मैंने यह काम किसी अवॉर्ड या तारीफ के लिए नहीं किया। यह मैंने अपने लिए किया है, ताकि मुझे अच्छी और शुद्ध हवा मिले।” 

पिछले दो-तीन सालों से उन्हें अपने इन पेड़ों से फल भी मिलने लगे हैं। सोबत सिंह बताते हैं कि उन्होंने दशहरी, चौसा, लंगड़ा सहित कई किस्म के आमों के पेड़ लगाए हैं। पिछले दो सालों से वह लोगों में आम बाँट रहे हैं और इस साल भी उन्हें अच्छे उत्पादन की आशा है। वह कहते हैं कि उन्होंने यह काम किसी आमदनी के लिए नहीं किया, उनका उद्देश्य बंजर जमीन को आबाद करना था। अब उनका यह बगीचा, लोगों के लिए एक मॉडल की तरह है, जिसे अगर अपनाया जाए तो पहाड़ पर लोगों को अच्छी आमदनी मिल सकती है। 

यकीनन, सोबत सिंह बागड़ी हम सभी के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं, जिन्होंने उम्र के इस पड़ाव पर गाँव को चुना और प्रकृति की सेवा कर रहे हैं। द बेटर इंडिया सोबत सिंह के जज्बे को सलाम करता है। 

संपादन- जी एन झा

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