1970 के दशक में, भारत में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा गहराता जा रहा था। इसी दौरान केरल में ऐतिहासिक सेव साइलेंट वैली आंदोलन को अंजाम दिया गया। यह एक सामाजिक आंदोलन था, जिसे सदाबहार वर्षा वन, साइलेंट वैली को बचाने के लिए छेड़ा गया था।
दरअसल, केरल राज्य विद्युत बोर्ड ने यहाँ एक हाइड्रो इलेक्ट्रिक डैम बनाने का प्रस्ताव रखा था। जैसे ही बाँध बनाने की घोषणा हुई, लोगों ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया।
बेशक, साइलेंट वैली अपने समृद्ध जैव विविधता के लिए जानी जाती है। मसलन, बाँध बनने से इसको काफी क्षति हो सकती थी। यही कारण है कि लोगों ने इसके खिलाफ अपने आवाज को बुलंद कर दिया। फिलहाल, यह घाटी नील गिरी जैव विविधता पार्क के अंतर्गत संरक्षित है।
इस दौरान, मराठिनु स्तुति (Ode to a Tree) नाम की एक कविता इस आंदोलन की पहचान बन गई। इस कविता को आवाज सुगत कुमारी (Sugathakumari) ने दी थी, जो इस आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही थीं। उनका निधन हाल ही में, 23 दिसंबर 2020 को हुआ।
“सुगत टीचर”
मशहूर कवयित्री और कार्यकर्ता सुगत कुमारी (Sugathakumari) को लोग स्नेहवश “सुगत टीचर” कहकर पुकारते थे। उनके कार्यों में करुणा, मानवीय संवेदना और दार्शनिक भाव का समावेश था। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण और महिला सशक्तिकरण के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया था।
उनका जन्म अरणमुला में, स्वतंत्रता सेनानी बोधेश्वरन और संस्कृत की विद्वान वीके कार्त्यायिनी अम्मा के घर 22 जनवरी, 1934 को हुआ था। जबकि, उनकी परवरिश तिरुवनंतपुरम में हुई थी।
जिस परिवेश में उनकी परवरिश हुई, उसके कारण उनकी रुचि साहित्य और दर्शन में बढ़ने लगी। लेकिन, बचपन में वह अपनी कविताओं को अपने नाम से प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। इसके बजाय, वह अपनी रचनाओं को चचेरे भाई, श्रीकुमार के नाम से प्रकाशित होने के लिए भेजती थीं।
हर कविता से उन्हें 6 आने मिलते थे, जिसमें से दो वह श्रीकुमार को दे देती थीं। इस रहस्य का पता तब चला जब श्रीकुमार ने गलती से एक ही कविता को दोनों नामों के तहत, मलयाली अखबार मातृभूमि में प्रकाशित होने के लिए दे दिया।
इसके बाद, सुगत कुमारी (Sugathakumari) को अपनी पहचान जाहिर करनी पड़ी। फिर, तत्कालीन संपादक, एन वी कृष्णा वारियर ने उन्हें अपनी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया।
इसके बाद, उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1968 में अपनी कविता पथिरापुक्कल (फ्लावर्स ऑफ मिडनाइट) के लिए केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता। फिर, 1978 में उन्हें रतिमाझ (नाइट रेन) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
फिर, धीरे-धीरे उनका रुझान सामाजिक और पर्यावरणीय विषयों के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के मुद्दे की ओर बढ़ने लगा।
आगे का कैसा रहा सफर
सुगता कुमारी (Sugathakumari) को राज्य में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विमर्श को एक नया धार देने के लिए जाना जाता है। सेव साइलेंट वैली आंदोलन के अलावा, उन्होंने कुछ लोगों के साथ मिलकर अट्टापडी में बंजर भूमि को जंगल के रूप में बदल दिया। आज इसे कृष्णा वन के रूप में जाना जाता है।
इस कड़ी में, इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया, “यह 100 हेक्टेयर के दायरे में एक बंजर पहाड़ था। लेकिन, हमने इसे हरा-भरा बनाने का फैसला किया। इसके लिए हमने CAPART से 7.5 लाख रुपये की मदद ली। अब, जंगल के बीचोंबीच से नदी गुजरती है और यह कई प्रकार के वन्यजीवों का घर है। इस प्रयास में स्थानीय आदिवासी समुदायों और अन्य कार्यकर्ताओं का भरपूर सहयोग मिला।”
उन्होंने तिरुवनंतपुरम में सोसाइटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के सचिव के साथ-साथ प्रकृति संरक्षण समिति के संस्थापक सचिव के रूप में भी काम किया। इसके साथ ही, उन्होंने कई नारीवादी आंदोलनों और संगठनों की भी कमान संभाली। वह 1996 में केरल राज्य महिला आयोग की पहली अध्यक्ष थीं।
इसके अलावा, 1985 में, उन्होंने मानसिक रूप से बीमार लोगों के लिए अभय नामक सामाजिक संगठन की नींव रखी, अब इस संगठन में मानसिक रोगियों के अलावा असहाय बच्चों और महिलाओं की भी मदद की जाती है।
सुगता कुमारी (Sugathakumari) को रचना के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदानों के लिए, साल 2006 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। इसी कड़ी में, उन्होंने एक रिपोर्टर को बताया कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ देखा है और वह उससे दूर जाना चाहती हैं।
लेकिन, 2018 में, वह एर्नाकुलम में एक इसाई मिशनरी में 5 नन से बलात्कार के मामले में आरोपी बिशप फ्रैंको मुलक्कल की गिरफ्तारी के लिए फिर से सामने आईं। उस समय वह 84 साल की थीं।
“मुझे पता है कि देश में महिलाओं पर कितना अत्याचार होता है और वास्तव में कितनों को न्याय मिलती है। आज अधिकांश महिलाएं इन घटनाओं के बारे में खुल कर बात नहीं करती हैं। यही कारण है कि हर दाखिल मामले के मुकाबले सैकड़ों वास्तविक मामले हैं,” एक इंटव्यू के दौरान वह द न्यूज मिनट को बताती हैं।
सामाजिक न्याय की प्रतीक
करीब डेढ़ साल पहले, उन्हें मातृभूमि अखबार द्वारा एक समारोह में आमंत्रित किया गया। इस दौरान उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि मैं अपने अंतिम पड़ाव में हूँ। क्योंकि, हाल ही में, मुझे दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा है। यह बिल्कुल अप्रत्याशित था और मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिख रहा था।”
अपने जीवन के आखिरी दिनों में, वह साइलेंट वैली और कृष्णा वन को फिर से देखना चाहती थीं। इस दौरान उन्होंने अभय के बैकयार्ड में एक बरगद के पौधे को भी लगाने की इच्छा जताई। लेकिन, उन्हें अपने पति और बेटी के साथ न्याय न कर पाने का दुःख था।
23 दिसंबर 2020 को तिरुवनंतपुरम के सरकारी मेडिकल कॉलेज में, कोरोना वायरस के कारण उनकी मौत हो गई। वह 86 साल की थीं। वह अपने पीछे अपनी बेटी, लक्ष्मी को छोड़ गईं।
सुगत ने अपने जीवन में कभी किसी पुरस्कार या औहदे की चिन्ता नहीं की। यदि वह एक निःसहाय बच्चे के चेहरे पर मुस्कान बिखेर सकती थीं, उनके लिए इतना काफी था। उन्होंने अपनी उम्र या स्वास्थ्य की चिन्ता कभी नहीं की और वह अपने जीवन के अंत तक, दूसरों के लिए खड़ी रहीं। समाज को उनकी कमी हमेशा खलेगी।
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मूल लेख – DIVYA SETHU
संपादन – जी. एन. झा
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