अक्सर घर में जब मूर्तियां खंडित हो जाती हैं या फिर पूजा का सामान इकट्ठा हो जाता है, तो लोग उसे किसी बड़े पेड़ के नीचे, या फिर नदी या झील में डाल देते हैं। क्योंकि भगवान से जुड़ी इन चीजों को पानी में विसर्जित करना हमारी संस्कृति में है और सालों से ऐसा ही होता चला आ रहा है। लेकिन क्या आप पानी में विसर्जन के पीछे की सच्चाई जानते हैं?
नासिक की रहने वाली तृप्ति गायकवाड़ कहती हैं, “हमारी संस्कृति में हमेशा से मूर्ति पूजा का विशेष महत्त्व रहा है। पूजा के बाद उन मूर्तियों में एक सकारात्मक ऊर्जा होती है, जिसे बहते पानी में बहाने से वह ऊर्जा हर जगह फ़ैल जाती है। लेकिन यह धारणा मिट्टी की मूर्तियों के लिए थी, जिसे हमने आधुनिक मूर्तियों के साथ भी जोड़ दिया। कई लोग मूर्तियों के साथ-साथ फोटो फ्रेम भी नदी में बहाने लगे।”
हममें से शायद ही कोई आज मिट्टी की मूर्ति की पूजा करता होगा। इन दिनों प्लास्टर ऑफ़ पेरिस, थर्माकोल, सिन्थेटिक रंग आदि का इस्तेमाल करके बेहतरीन मूर्तियां बनाई जाती हैं। बड़े-बड़े फ्रेम में लोग अपने पूर्वजों व भगवान की तस्वीरें लगाते हैं और पुराने होने या खंडित हो जाने पर, इसे या तो किसी पेड़ के नीचे रख देते हैं, या फिर नदी में बहा देते हैं। ऐसा करके न सिर्फ हम पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं, बल्कि भगवान की भी अवहेलना कर रहे हैं। लेकिन 33 वर्षीया तृप्ति गायकवाड़ ने इस समस्या को न सिर्फ समझा, बल्कि इसके लिए जरूरी उपाय भी ढूंढ निकाला।
वह पिछले दो सालों से अपनी संस्था संपूर्णम के जरिए पुराने फ्रेम्स और खंडित मूर्तियों को पानी में जाने से रोककर, उससे गरीब बच्चों के लिए खिलौने और पक्षियों के लिए घोंसले आदि बना रही हैं। उन्होंने इस तरह, तक़रीबन 2000 लोगों की मदद की है और 10 हजार फ्रेम्स को पानी में जाने से बचाया है।
एक सोच ने दिखाई दिशा
तृप्ति, पेशे से एक वकील और इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर भी हैं। साल 2019 में, उन्होंने एक शख्स को नदी में भगवान की फोटो को बहाने से रोका, जिसके बाद उन्हें लगा कि अगर सही तरीके से समझाया जाए, तो हम ऐसे कई लोगों को रोक सकते हैं। वह बताती हैं, “मेरा घर गोदावरी नदी के पास ही है। मैं एक दिन यूँ ही बाढ़ के हालात देखने नदी पर गई थी। तभी मैंने देखा कि एक आदमी कुछ पुराने फ्रेम्स लेकर आया और नदी में डालने लगा। मैंने उसे रोका और समझाया कि आप इस पेपर और फ्रेम की लकड़ी को रीसायकल कर सकते हैं और वह मान भी गया। तभी मुझे लगा कि अगर हम, इन चीज़ों को रिसायकल करने में लोगों की मदद करें, तो काफी अच्छे परिणाम मिल सकते हैं।”
उन्होंने अपने दोस्तों से इस आइडिया के बारे में बात की और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों को मैसेज भेजा कि जिसके पास भी खंडित मूर्तियां व फ्रेम हों, वह हमें रीसायकल करने के लिए दे सकता है। तक़रीबन 10 दिनों के अंदर, उन्हें कई लोगों ने सम्पर्क किया। लोगों से मिलने वाले इस सामान को वह बड़े ही अनोखे ढंग से रीसायकल करती हैं।
खंडित मूर्तियों से मशीन के जरिये प्लास्टर ऑफ पेरिस को अलग कर लिया जाता है और फिर उसका इस्तेमाल छोटे-छोटे खिलौने बनाने में किया जाता है। ये खिलौने बाद में गरीब समुदाय के बच्चों को दे दिए जाते हैं। इसी प्लास्टर ऑफ पेरिस को सीमेंट में मिलाकर प्लेट बनाई जाती है। जिसे बाद में पक्षियों के लिए दाना चुगने और पानी पीने के बर्तन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
वहीं, वह लकड़ी के फ्रेम को रीसायकल करने के लिए अलग-अलग फैक्ट्रीज़ में दे देती हैं, और छोटे-छोटे घोंसले बनाकर आस-पास के पेड़ों में लगा देती हैं।
कई शहरों में बनाए गए कलेक्शन सेंटर
चूँकि भगवान की इन मूर्तियों और तस्वीरों से हमारी आस्था भी जुड़ी होती है। इसलिए तृप्ति पहले, मुर्तियों की उत्तर पूजा करती हैं, इसके बाद ही उन्हें रिसायकल करने के लिए आगे भेजा जाता है। उत्तर पूजा का अर्थ है कि हमारी आस्था और इन मूर्तियों से जुड़ी हमारी श्रद्धा को भगवान स्वीकार करें। यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि संपूर्णम, सही मायनों में मूर्तियों और तस्वीरों को सम्पूर्ण रूप से रीसायकल करने में मदद करता है।
तृप्ति बताती हैं कि आज कई लोग पुणे, नागपुर और मुंबई से भी हमसे जुड़ चुके हैं और यह सबकुछ सोशल मीडिया के माध्यम से संभव हो पाया है। फिलहाल, मूर्तियों व फ्रेम्स का कलेक्शन करने में कई लोग उनकी मदद कर रहे हैं। जबकि उत्तर पूजा और रिसायकल का काम वह खुद ही करती हैं। वह रीसायकल करने के लिए प्रति मूर्ति या तस्वीर के 50 रुपये लेती हैं।
अंत में वह कहती हैं, “जो आधुनिकता भगवान की मूर्ति बनाने में आई है, वही आधुनिकता हमें भगवान की खंडित हो चुकी मूर्तियों और तस्वीरों को रीसायकल करने में भी लानी होगी। संपूर्णम के जरिए हम यही प्रयास कर रहे हैं।”
आप संपूर्णम के बारे में ज्यादा जानने या खंडित मूर्ति और फोटो फ्रेम्स को रीसायकल करने के लिए यहां संपर्क कर सकते हैं।
संपादन- अर्चना दुबे
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