Site icon The Better India – Hindi

हॉलेंड के ट्यूलिप से लेकर महाबलेश्वर की स्ट्रॉबेरी तक; 6000 पौधों का खज़ाना है इनके बाग़ में!

जोधपुर, राजस्थान के 65 वर्षीय रवींद्र काबरा अपने शौक की वजह से काफ़ी लोकप्रिय हैं। वे शौक़ियां और प्रोफेशनल दोनों ही तौर पर गार्डनिंग करते हैं। उन्होंने गार्डनिंग की पहली एबीसीडी अपने दादा गोकुलचंद्र काबरा से सीखी, जब वे बचपन में उनके साथ बगीचे में जाया करते थे।

आज उन्होंने अपने द्वारा बड़ी शिद्दत से तैयार किए इस गार्डन का नाम अपने दादा की स्मृति में ‛गोकुल – द वैली ऑफ फ्लॉवर्स’ रखा है।

‛गोकुल – द वैली ऑफ फ्लॉवर्स’

 

 

स्कूलिंग के दिनों से ही उन्होंने अपने दादा की निगरानी में गार्डनिंग शुरू कर दी थी। बाद में वे ग्रेजुएशन के लिए अहमदाबाद चले गए। 1970-78 तक वहीं रहने के दौरान वहां भी उन्होंने टेरेस गार्डन बनाकर अपनी बागवानी के शौक को ज़िंदा रखा।

रवींद्र बताते हैं, “मेरे जीवन की कहानी बड़ी अजीब है साहब! मैंने कई कार्यों की शुरुआत की, सफल भी हुआ पर पता नहीं दादाजी की उंगलियों को उस वक़्त पकड़कर बगीचे में क्या चला कि बागवानी ही मेरे डीएनए में आ गई और एक समय बाद मुझे लगने लगा कि मैं सिर्फ और सिर्फ पेड़, पौधों, फूल, पत्तियों की सेवा के लिए ही बना हूँ। आज पूरी दुनिया से लोग ‛गोकुल’ को देखने जोधपुर आते हैं।”

1979 में रवींद्र वापस जोधपुर आ गए, उनकी शादी हो गई और वे बिज़नेस करने लगे। 1980 में स्टील प्लांट लगाया, जिसमें स्टेनलेस स्टील को मेल्ट कर चद्दर बनाने का रॉ मटेरियल बनाया जाता था। 1984 में जोधपुर का पहला ऑटोमेटिक ब्रेड प्लांट लगाया, जिसमें शुरू से अंत तक के प्रोसेस में कहीं भी डबलरोटी पर हाथ नहीं लगता था। 1992 में अपनी दोनों फैक्टरियां बन्द कर इलेक्ट्रॉनिक शोरूम खोला। इसे भी 11 साल तक सफलतापूर्वक चलाया। इन सबके साथ बागवानी का जुनून कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था। उन्होंने फैक्टरियों में भी बड़े-बड़े गार्डन विकसित किए, लेकिन मन को जिसकी चाह थी, वह इन जगहों पर नहीं मिल रहा था।

आख़िरकार 2002 में वे पार्ट टाइम से फुलटाइम बागबान बन ही गए।

रवींद्र काबरा।

हॉलेंड के ट्यूलिप से लेकर महाबलेश्वर की स्ट्रॉबेरी तक है इनके बाग़ में!

अनूठी धुन के धनी काबरा ने अपने बगीचे ‛गोकुल’ में देश-विदेश की लगभग सभी प्रजातियों को पनपाने में सफलता हासिल की है। ऐसी-ऐसी प्रजातियों के फूल जोधपुर के हाई टेम्परेचर में खिलाए हैं, जिनका अपनी आबोहवा के अलावा कहीं और खिलना किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं। इसके अलावा उनके बगीचे में 25 प्रकार के कमल, 250 प्रजातियों के अडेनियम, 250 प्रजातियों के गुलाब, 25 प्रजातियों के बोगनवेलिया सहित 6000 गमलों में 150 से भी ज्यादा प्रकार के पौधे हैं।

वे बताते हैं, “ट्यूलिप हॉलेंड में होता है। इस फूल को देखने लोग हॉलेंड जाते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी, पर यह यहां खिल रहे हैं। हाईड्रेंजिया भी फूल की एक किस्म है, जो केवल हिल स्टेशनों पर ही उगती है। अजेलिया एक प्रजाति है, जो हिल स्टेशनों या ठंडे स्थानों पर ही हो सकती है। हेलिकोनियाज, ऐसा प्लांट है जो कोस्टल एरिया में ही होता है। आर्किड, डेजर्ट में होता है, किसी को कहेंगे तो यकीन ही नहीं करेगा। भीषण गर्मी वाले शहर में मुझे स्ट्राबेरी पनपाने में भी कामयाबी मिली।”

रवींद्र को इन पेड़-पौधों की वजह से जीवन में जो सफलताएं मिली हैं, उनका वर्णन मुश्किल है। इन सभी पेड़ पौधों, फूल पत्तियों से अपने आत्मीय लगाव को ही वे अपनी कामयाबी की सीढ़ी मानते हैं। वे इन 6000 गमलों में बसे पौधों को अपनी संतान मानते हैं। उनका पौधों से ऐसा गज़ब का रिश्ता बन गया है कि इनके बगैर वे नहीं रह सकते।

 

कुछ ऐसे रखते हैं अपने पौधों का ख्याल!

रवींद्र रोज़ सुबह अपनी बगिया में 5 बजे आ जाते हैं और 11 बजे तक रहते हैं और अपने पौधों को भजन सुनाते हैं। शाम को भी यही दस्तूर होता है। शाम को 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक यह पौधे भारतीय शास्त्रीय संगीत सुनते हैं। कभी-कभी इन्हें पुराने फिल्मी गाने भी सुनाये जाते हैं। उनकी मानें तो पहले-पहल इन पौधों की ग्रोथ रेट 90 प्रतिशत तक थी, जो अब 110 प्रतिशत हो गई है। उनसे मिलने या रोज़ बगीचे को देखने आने वाले सभी लोग पूछते हैं कि वे अपने भी गमलों में खाद, पानी, खुरपी देते हैं, ध्यान रखते हैं, उनके पौधों में ऐसी वृद्धि देखने को क्यों नहीं मिलती?

बेहद विनम्र प्रवृत्ति के काबरा जहां अपने मिलने जुलने वालों को निःशुल्क पौधे भेंट करते हैं, वहीं बड़े कॉर्पोरेट्स घरानों के लिए भी वे लैंडस्केपिंग प्रोजेक्ट्स कर चुके हैं।

 

देश भर में हैं उनके विकसित किये हुए पार्क 

रवींद्र के विकसित किए पार्क।

उनकी ज़िंदगी का सबसे यादगार साल था 2003, जब उन्होंने ‛रिलायंस इंडस्ट्रीज’ के लिए प्रोजेक्ट किया। इसके अलावा दिल्ली के अंसल ग्रुप के लिए वे 400 एकड़ के चार प्रोजेक्ट्स कर चुके हैं। जोधपुर में विश्व के दूसरे सबसे बड़े निजी महल उमेद भवन पैलेस, पार्श्वनाथ ग्रुप, ताज ग्रुप, मिलिट्री, जोधपुर विकास प्राधिकरण सहित कई शैक्षणिक संस्थानों के लिए भी वे बगीचे विकसित कर चुके हैं। अजमेर, कोटा, दिल्ली, अमृतसर, मुंबई सहित कई स्थानों पर उन्होंने अपनी गार्डनिंग कला के फूल बिखेरे हैं।

 

अपनी फिटनेस का श्रेय देते हैं अपने बगीचे को!

 

 

वे सभी आगंतुकों से यही कहते हैं कि गार्डन में घूमने को दिनचर्या का जरूरी हिस्सा बनाइए। आप बीमार हैं और आधा घंटा बगीचे में फूलों और पेड़ों के साथ व्यतीत करते हैं तो ऐसी कोई बीमारी नहीं जिसका इलाज प्रकृति के पास नहीं! एक महीना बगीचे में गुजारने के बाद बीमार भी हष्टपुष्ट हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उनके पिताजी रहें।

उनके पिताजी को 84 साल की उम्र में चलने फिरने में तकलीफ़ होती थी और चलने के दौरान उनको चक्कर आते थे। इस बगीचे से उनके पिता का कमरा भी दूर था। एक बार उन्होंने पिताजी से बगीचे में चलकर बैठने का आग्रह किया, नहीं चल सकने के चलते उन्होंने मना कर दिया। इस पर वे उन्हें बच्चों की तरह ज़बरदस्ती गार्डन के गेट तक ले ही आए।

इस घटना के 4-5 दिनों तक वे फिर नहीं आए, वे रोज़ बुलाते रहे। फिर वे उनको रोज़ अपने साथ लेकर आने लगे। 7 दिन तक यही सिस्टम चला। 8वें दिन वे खुद चलकर आ गए, 15वें दिन जॉगिंग करने लग गए, 25वें दिन कसरत और दौड़ना शुरू कर दिया। जब उन्होंने पिताजी का वीडियो बनाकर अपने बेटों को भेजा तो वे दंग रह गए। पिताजी चल नहीं सकते थे, दौड़ लगा रहे हैं! हालांकि उनके पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके जीवन के इस अनुभव का रविन्द्र पर गहरा असर पड़ा और उन्हें यकीन हो गया कि स्वस्थ रहने के लिए प्रकृति के पास होना बेहद ज़रूरी है!

शायद इसलिए 65 वर्ष के होने के बावजूद अपनी बगिया के 6000 गमलों की सार संभाल वे बिना किसी हेल्पर के, खुद ही करते हैं। रोज़ाना 100 गमले इधर से उधर करने पर भी रत्तीभर थकान महसूस नहीं करते।

रोज़ाना सुबह शाम ‘गोकुल’ में व्यस्त रहने वाले काबरा रविवार को पूरे दिन बगिया से हिलते भी नहीं। एक लाख रुपए से लेकर 2 करोड़ रुपए तक के लैंडस्केपिंग प्रोजेक्ट्स कर चुके रवींद्र का मकसद बिजनेस की बजाय किसी भी प्रोजेक्ट में लग रहे पौधों को खुद के बगीचे में लगे पौधों की तरह समझने की रहती है। उनकी यह भी सोच रहती है कि यह पौधा मरना नहीं चाहिए। वे कई मौकों पर बागवानों के साथ खुद काम करते हैं, ताकि वे उनसे खुद भी सीखें, अपने अनुभवों से उनको भी सिखाएं।

उनकी माँ कहती हैं, “अब उम्र हो रही है, इस तरह के काम मत किया कर।”

इस पर वे कहते हैं, “मैं इसी काम की वजह से ही जवान हूँ आज तक। खुशनसीब हूँ कि ईश्वर ने मुझे इस कार्य के लिए चुना।”

रवींद्र काबरा से आप 08233321333 पर सम्पर्क कर सकते हैं। आप उनको ravindrakabra@gmail.com पर ईमेल भी कर सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच 


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Exit mobile version