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झारखंड के 8000+ किसानों के ‘जल संकटमोचक’ बने एक पत्रकार, जानिए कैसे

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लगभग 25 साल पहले झारखंड के खूंटी जिले में विकास कार्यों के लिए, बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटा जा रहा था। इससे यहाँ का भूजल स्तर काफी तेजी से नीचे गिरने लगा, और 2010 आते-आते लोगों को अपने दैनिक इस्तेमाल के लिए पानी मिलना मुश्किल हो गया।

इसके बाद, सरकार ने यहाँ जल संचयन के लिए लाखों रुपए खर्च किये। लेकिन, सभी प्रयास विफल रहे। इसकी वजह यह है कि, कॉन्क्रीट से बने चेक डैम, बारिश के मौसम में पानी के तेज बहाव के कारण टिक नहीं पाते थे।

इन्हीं चिन्ताओं को देखते हुए, वर्ष 2018 में, ‘सेवा वेलफेयर सोसाइटी के संस्थापक’ अजय शर्मा ‘बोरी बाँध’ के विचार के साथ आए। इस पहल के कारण यहाँ जल संरक्षण को बढ़ावा मिला, और 70 गाँवों के 8000 किसानों के लिए निर्बाध पानी की व्यवस्था सुनिश्चित हुई। 

उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “एक पत्रकार के तौर पर, मैंने ग्रामीणों की समस्याओं को करीब से देखा, और मैंने अपने लेखन के जरिए उनकी चिन्ताओं को उजागर करने का प्रयास किया। पानी की किल्लत के कारण लोगों को खेती के साथ-साथ दैनिक कार्यों में भी दिक्कत होती थी।”

वह आगे बताते हैं कि, निर्माण कार्यों के दौरान ठेकेदार सीमेंट की बोरियों को यहीं छोड़ जाते हैं। जिसे ध्यान में रखते हुए, उन्होंने सोचा कि इन बोरियों में, बालू या मिट्टी भर कर बाँध बनाए जा सकते हैं। उनके इस विचार ने जल्द ही जन-आंदोलन का रूप ले लिया।

श्रमदान के लिए लोग बढ़चढ़कर आए सामने

यहाँ के लोग ‘मड़ैत’ (Madait) नामक परंपरा को मानते हैं। जिसमें लोग, किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए एकजुट होते हैं और काम पूरा होने के बाद, एक साथ भोजन करते हैं। लोगों को एकजुट करने के लिए, अजय ने भी इसी सिद्धांत को अपनाया। उन्होंने सुनिश्चत किया कि, शाम को काम पूरा होने के बाद, लोग साथ भोजन कर, अपनी उपलब्धियों का जश्न मनायें।

‘बोरी बाँध’ छोटी नदियों के साथ-साथ, नहर-नालों पर भी बनाए जाते हैं। इसकी संरचना ‘बैरैज’ जैसी होती है, और यह कम से कम 30 फीट चौड़े होते हैं। जिसे बनाने में 3 घंटे का समय लगता है।

अजय बताते हैं कि, अब तक का सबसे बड़ा चेक डैम ‘80 फीट’ का है। बाँध बनाने में मिट्टी और बालू के साथ, घास का इस्तेमाल भी किया जाता है। इससे बाँध की मजबूती बढ़ जाती है। 

Madait involves consuming food together to celebrate the good work.

वह बताते हैं कि, यह बाँध कई वर्षों तक चलते हैं तथा बारिश या बाढ़ के आधार पर, इन्हें मामूली मरम्मत की जरूरत होती है।

अजय ने लोगों से मदद की उम्मीद में, अपने एनजीओ ‘सेवा वेलफेयर सोसाइटी’ को शुरू किया। इस प्रयास को उन्होंने महज 2000 रुपए से शुरू किया। यहाँ डोनर्स से मिले पैसे का इस्तेमाल, श्रमदाताओं के खाने-पीने की व्यवस्था के लिए किया जाता है।

2018 की गर्मियों में, कुछ ग्रामीणों को अपने इस प्रयास के लिए राजी करने के बाद, अजय ने ‘तपकरा ब्लॉक’ में 5 बाँध बनाए। लोगों को इससे फायदा हुआ। जल्द ही इससे, और कई लोग जुड़ गए।

अजय बताते हैं, “हमने 2019 में 118 ‘बोरी बाँध’ बनाए। इसकी सफलता को देख कर कई लोगों ने, खुद भी इस तरीके से बाँध बनाना शुरू कर दिया। हालांकि, कोरोना महामारी के कारण, 2020 में सिर्फ 40 बाँध ही बनाए जा सके।”

इन प्रयासों के फलस्वरूप, क्षेत्र में किसानों को, खेती कार्यों में काफी मदद मिल रही है। 

इस कड़ी में, ‘हस्सा पंचायत’ के मुखिया विल्सन पुरती कहते हैं, “इन प्रयासों से, जल संरक्षण की दिशा में अभूतपूर्व सफलता मिली है। आज कोई भी ऐसा मंडल नहीं है, जहाँ बाँध न बनाया गया हो। छोटी नदियों, नहरों, नालों तथा जहाँ संभव हो सके, किसानों ने जल-संरक्षण का प्रयास किया है। इससे उन्हें, साल में दो फसलों की खेती करने में मदद मिल रही है। पानी की कमी के कारण वे पहले एक फसल ही उगा पाते थे।”

सीमेंट का अच्छा विकल्प

विल्सन कहते हैं कि ‘बोरी बाँध’ किफायती होने के साथ ही, स्थानीय समुदायों के लिए काफी फायदेमंद भी है। पहली फसल की कटाई के बाद, अब किसान बेरोजगार नहीं रहते हैं। खेती कार्यों से सम्बंधित, उनके पास पूरे साल काम होता है। पहले बारिश का पानी यूं ही बह जाता था, लेकिन अब इसे संरक्षित किया जा रहा है, जिससे भू-जलस्तर भी बढ़ता है।

वह बताते हैं कि, यहाँ के किसानों की आय, अब दोगुनी हो गई है। वे धान, गेहूँ, सरसों जैसी पारंपरिक फसलों के साथ-साथ मकई, तरबूज तथा अन्य कई सब्जियों को भी उगाते हैं।

अजय की इस पहल को, राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिल चुकी है। बता दें कि, 2020 में, उनके ‘बोरी बाँध मॉडल’ को ‘केन्द्रीय जलशक्ति मंत्रालय, भारत सरकार’ द्वारा ‘राष्ट्रीय जल शक्ति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा, उन्हें  ‘स्कॉच अवार्ड प्रतियोगिता’ में, गोल्ड मेडल भी मिल चुका है। 

वहीं, अजय द्वारा साझा किए गए एक वीडियो में, जिले के उपायुक्त कहते हैं, “भारी बारिश के कारण यहाँ सीमेंट की संरचनाएँ टिक नहीं पाती हैं। ऐसे में, ‘बोरी बाँध’ एक अच्छा विकल्प है। इन बाँधों में, मार्च तक पानी रहेगा, और किसान इसका इस्तेमाल खेती समेत कई दैनिक कार्यों के लिए कर सकते हैं।”

हालाँकि, अजय का मानना है कि अधिक फंड और लोगों के सहयोग से और बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।

वह कहते हैं, “सबसे मुश्किल काम, ग्रामीणों की मानसिकता को बदलना है तथा उनके अनुसार, इसमें कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं है। एक सामाजिक कार्य के लिए, लोगों को एकजुट करना मुश्किल काम है। उन्हें राजी करने में कई दिन लग जाते हैं। साथ ही फंड की कमी भी, हमेशा से एक समस्या रही है। यात्राओं तथा कार्यक्रमों के आयोजन के लिए, मुझे अपने पैसे खर्च करने पड़ते हैं।”

वह अंत में अपील करते हैं कि, यदि सरकार उनकी आर्थिक मदद करती है, तो खूंटी जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कई कठिनाइयों को कम किया जा सकता है।

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मूल लेख – HIMANSHU NITNAWARE

संपादन – प्रीति महावर

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