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चेन्नई: गंदगी का लगा था अंबार, IAS ने 2000+ पौधे लगा, बीच शहर उगा दिया जंगल

Chennai IAS

चेन्नई के कोट्टूरपुरम (Kotturpuram) में शहर के बीचों-बीच, सागौन और महुआ के पेड़ों से भरा एक छोटा-सा जंगल है, जो कई प्रकार के पक्षियों और तितलियों का घर है। हालांकि, 23 हजार वर्ग फुट का यह भूखंड, कई वर्षों से काफी बदहाल स्थिति में था। लेकिन, ग्रेटर चेन्नई कॉरपोरेशन के क्षेत्रीय उपायुक्त (दक्षिण क्षेत्र) डॉ. एल्बी जॉन वर्गीज ने अपनी टीम की मदद से, मियावाकी पद्धति (Miyawaki Method) का इस्तेमाल कर, यहाँ एक ‘मिनी फॉरेस्ट’ विकसित कर दिया।

गंदगी का लगा था अंबार

कोट्टूरपुरम में यह जमीन अड्यार नदी के दक्षिणी किनारे पर है, जो पिछले 15 वर्षों से इमारतों के मलबे और कचरे के कारण, काफी बदहाल स्थिति में थी।

इसके बारे में, डॉ. जॉन ने द बेटर इंडिया को बताया, “हम यहाँ नियमित रूप से कचरे की सफाई करते थे, लेकिन महीने भर में गंदगी का अंबार लग जाता था।”

पहले लगा था गंदगी का अम्बार

इस कड़ी को तोड़ने के लिए, निगम ने इस जमीन को पूरी तरह से बदलने का फैसला किया। शुरू में, उन्होंने यहाँ एक बागान लगाने का फैसला किया। लेकिन, विशेषज्ञों ने बताया कि जमीन पर चार से पांच फीट ऊँचे सीमेंट के मलबे का ढेर होने के कारण, यहाँ पेड़ों को उगाना संभव नहीं है। इसके बाद, IAS डॉ. जॉन ‘मियावाकी जंगल’ के विचार के साथ आए।

क्या है मियावाकी पद्धति

यह जंगल विकसित करने की एक जापानी तकनीक है। इस तकनीक को वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी ने ईजाद किया था। इसकी मदद से जंगलों को काफी कम समय में विकसित किया जा सकता है।

इस तकनीक को पॉटेड सीडलिंग मेथड के रूप में भी जाना जाता है और इसके तहत, देशी प्रजाति के पौधों को एक-दूसरे के नजदीक लगाया जाता है। जो कम जगह घेरने के अलावा, दूसरे पौधों के विकास में भी सहायक होते हैं।

मियावाकी विधि से लगे पौधे

इस तकनीक के अंतर्गत, पौधों का विकास 10 गुना अधिक तेजी से होता है। जिसके फलस्वरूप जंगल सामान्य वृक्षारोपण के मुकाबले, 30 गुना अधिक सघन हो जाता है।

पौधों के बीच दूरी कम होने की वजह से, पौधे धूप को धरती पर आने से रोकते हैं। जिससे जमीन पर ज्यादा खरपतवार नहीं होती है और तीन वर्षों के बाद, इन पौधों को देख-भाल की जरूरत नहीं होती है।

तमिलनाडु के तूतीकोरिन (Thoothukudi) में अपनी पिछली नियुक्ति के दौरान, मियावाकी विधि से पौधे लगाने के बाद, डॉ. जॉन ने यहाँ भी इस पहल की अगुवाई की।

वह इस तकनीक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं के बारे में बताते हैं, “मियावाकी तकनीक के तीन स्तंभ हैं। सबसे पहले, मिट्टी की खुदाई कर, इसमें खाद मिलाई जाती है। फिर, पौधों को एक दूसरे के काफी नजदीक लगाया जाता है ताकि यह ऊपर की ओर बढ़ें और शाखाएं न निकलें। अंत में, इसमें स्थानीय मूल के पौधों को लगाया जाता है।”

यह पहल, नवंबर 2019 में शुरू हुई और इसे पूरा होने में तीन महीने का समय लगा। यहाँ से करीब 2,000 मीट्रिक टन सीमेंट का मलबा हटाया गया और नई मिट्टी में जैविक खाद मिलाकर, उस जगह को भरा गया।

जनवरी 2020 में, गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय लोगों की मदद से, करीब 15 लाख रुपये की लागत से 2,020 स्थानीय किस्म के पौधों को लगाया गया। इस तरह, चेन्नई में पहले ‘मियावाकी जंगल’ की नींव रखी गई।

महज पाँच महीने के अंदर, उनके प्रयासों ने रंग दिखाया और जंगल तेजी से विकसित होने लगा।

क्या हैं लाभ

डॉ. जॉन के अनुसार, कोट्टूरपुरम में इस परियोजना के दो मुख्य प्रभाव हैं। पहला तो यह है कि इससे क्षेत्र में हरित आवरण को बढ़ावा मिला है और यहाँ वनस्पतियों तथा जीवों की कई नई प्रजातियाँ पाई जा सकती हैं और दूसरा, इस तरह के अन्य प्रयासों को प्रेरित करना है।

वह कहते हैं इस जंगल की वजह से ‘अर्बन हीट आइलैंड’ के प्रभाव को कम करने में मदद मिली है। इस अवधारणा के अनुसार, मानवीय गतिविधियों के कारण शहरी क्षेत्रों में दिन के समय का तापमान, अपने आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है।  

चेन्नई में 1000 मियावाकी जंगलों को विकसित करने की योजना

साल 2013 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. जॉन ने अपना बचपन केरल के एर्नाकुलम जिले के एक छोटे से शहर में गुजारा। जहाँ उनके पिता किराने की एक दुकान चलाने के साथ-साथ खेती भी करते थे और माँ एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में नर्सिंग सहायक के रूप में काम करती थीं।

एक ही साल में तैयार हुआ जंगल

वह बड़े हुए तो उन्हें नहीं पता था कि सिविल सेवा परीक्षाओं में सफल होने के लिए क्या जरूरी है और उन्होंने त्रिस्सूर (Thrissur) स्थित ‘जुबली मिशन मेडिकल कॉलेज’ में एमबीबीएस में दाखिला ले लिया, जहाँ वह एक क्विज़िंग टीम का हिस्सा थे।

जब वह अपनी मेडिकल की पढ़ाई के दौरान इंटर्नशिप कर रहे थे, उनके टीम के दो साथियों ने सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल कर ली। इससे उन्हें भी प्रेरणा मिली और उन्होंने अपने पहले ही प्रयास में यूपीएससी में सफलता अर्जित कर ली।

वह कहते हैं, “मैंने सिविल सेवा का चयन इसलिए किया क्योंकि, मुझे लगा कि इससे मुझे एक बदलाव लाने और दुनिया में अपनी एक यादगार छाप छोड़ने के लिए एक बेहतर मंच मिलेगा। इस परियोजना के जरिए मुझे यह करने का मौका भी मिला और मैं आगे भी ऐसा करने के लिए प्रयत्नशील हूँ।”

कोट्टूरपुरम में मियावाकी जंगल की सफलता ने, नगर निगम को पूरे चेन्नई में 30 और शहरी वनों को विकसित करने के लिए प्रेरित किया।

वह कहते हैं, “इस पहल की सफलता को देखते हुए, हमने इसे शहर के अन्य क्षेत्रों में बढ़ाने का फैसला किया। इस परियोजना से प्रेरित होकर, शहर के उत्तरी जोन और मध्य जोन ने भी इस पद्धति को अपनाना शुरू कर दिया है।”

IAS जॉन के अनुसार, कोट्टूरपुरम परियोजना ने लोगों की भागीदारी को भी बढ़ावा दिया है।

वह कहते हैं, “इस परियोजना को शुरू करने के पीछे का मूल उद्देश्य कई सरकारी विभागों, गैर-सरकारी संगठनों और यहाँ तक कि कॉरपोरेट घरानों को, इस तरह के प्रयासों में बढ़ावा देना था। इससे लोगों को भी प्रेरणा मिली और यहाँ तक कि पॉप संस्कृति में भी शहरी वानिकी को जगह मिली।”

कोट्टूरपुरम में यह मियावाकी जंगल, आज एक साल का हो गया है। इससे प्रेरित होकर, चेन्नई कॉरपोरेशन के कमिश्नर जी प्रकाश ने घोषणा की है कि पूरे शहर में ऐसे 1,000 जंगलों को विकसित की जाएगी, जिसमें गैर-सरकारी संगठनों, निजी कंपनियों और लोगों की भी भागीदारी होगी। 

एक बार जंगल पूरी तरह से विकसित हो जाने के बाद, निगम द्वारा रास्तों को बना कर, इसे आम लोगों के लिए खोल दिया जाएगा।

डॉ. जॉन अंत में कहते हैं, “हम सभी के जीवन में ऐसे मौके आते हैं। हमें उन मौकों को खोजना चाहिए और अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए। सही समय में, सही जगह पर होने के कारण, मुझे ऐसा करने का मौका मिला। अब, जब यह परियोजना सफल हो चुकी है, मुझे आशा है कि इससे दूसरों को भी ऐसा प्रयास करने की प्रेरणा मिलेगी।”

मूल लेख – उर्शिता पंडित
संपादन- जी एन झा

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