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जानिये कैसे! ‘ऑल-विमन कैंटीन’ ने बढ़ाया 3 हजार रूपये के बिजनेस को 3 करोड़ रूपये/वर्ष तक

Women Empowerment

मुंबई में साल 1991 में एक ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत ‘श्रमिक महिला विकास संघ’ ने 300 से अधिक जरूरतमंद महिलाओं को सशक्त बनाया है। यह पहल, महिलाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करती है, जिसमें वे अपनी पाक-कला का उपयोग कर अपनी आजीविका अच्छे से चलाने में सक्षम बन रही हैं।

ढृढ़ इच्छा शक्ति और काम के प्रति निष्ठा हो तो सबकुछ संभव है। ऐसी ही, एक मिसाल कायम कर रही हैं ‘श्रमिक महिला विकास संघ’ की महिलायें। जिन्होंने समाज में अपने प्रयासों से, महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया है। चलिए! आज एक झलक डालते हैं इन प्रेरक किरदारों पर।

वसई, मुंबई की रहने वाली सुमित्रा शिंजे ने 30 साल की उम्र में अपने पति को खो दिया। उनका बेटा तब पाँच साल का था। वह आर्थिक रूप से काफी कमजोर हो गई थीं। अपने बच्चे के पालन-पोषण के लिए, उन्हें एक नौकरी की तलाश थी। इस दौरान, उन्हें ‘श्रमिक महिला विकास संघ’ के बारे में पता चला। जो एक ऐसी पहल है, जिसे सिर्फ महिलाओं ने मिलकर, सुमित्रा जैसी महिलाओं की मदद करने के लिए बनाया है।

वर्तमान में, 53 वर्षीया सुमित्रा कहती हैं कि वह अब आर्थिक रूप से मजबूत हो गई हैं तथा अपने बेटे को शिक्षित करने में सक्षम हैं। उनका बेटा अब 28 वर्ष का है और एक निजी कंपनी में काम करता है। उनका मानना है कि यह सब, इस पहल से जुड़ी सभी महिलाओं के प्रयासों से संभव हुआ है।

1991 में एक ट्रस्ट के रूप में रजिस्ट्रर्ड ‘श्रमिक महिला विकास संघ’ ने मुंबई में, 300 से अधिक जरूरतमंद महिलाओं को सशक्त बनाया है। यह पहल, महिलाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करती है, जिसमें वे अपनी पाक-कला का उपयोग कर अपनी आजीविका अच्छे से चलाने में सक्षम बन रही हैं।

वसई के एमजी रोड पर स्थित न्यू इंग्लिश स्कूल की एक शिक्षिका इंदुमति बर्वे ने, अपनी सहेलियों, उषा मनेरिकर, जयश्री सामंत और शुभदा कोठावले के साथ मिलकर इस ट्रस्ट का गठन किया। ये सभी महिलायें अलग-अलग परिवेश से थीं। एक शिक्षिका, एक गृहिणी तो एक सामाज सेविका। लेकिन इन सभी का उद्देश सिर्फ एक था, शोषित महिलाओं की मदद करना। 80 के दशक में इन महिलाओं द्वारा इस पहल की शुरुआत हुई। तब महिलायें यहाँ सिर्फ पापड़ बनाया करती थीं। हालांकि, आर्थिक कमी के कारण यह बिजनेस बंद हो गया। तब इस ट्रस्ट की फाउंडर्स (संस्थापिकाएं) ने, एक स्कूल कैंपस में एक कैंटीन शुरू करने का फैसला किया।

महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिए

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कैंटीन में रोटियां बनाती महिलायें

इस संगठन से पहले दिन से जुड़ी ट्रस्टी मेम्बर भारती ठाकुर बताती हैं,  “एक बार जब यह बिजनेस असफल हो गया तो हमने सोचा कि ‘खाना बनाना’ बिजनेस के लिए, एक अच्छा विकल्प हो सकता है। हमें एक स्कूल कैंपस में रेस्तरां शुरू करने की अनुमति मिली, जो पहले बंद हो गया था। शुरू में, हमें इसे किराए के बिना उपयोग करने की अनुमति दी गई थी।”

इन महिलाओं ने एक साथ तीन हजार रुपये जमा किए और सात ऐसी महिलाओं की पहचान की, जो कम आय वाले ग्राहकों जैसे- बस ड्राइवर, ऑटोरिक्शा ड्राइवर, कामकाजी युवाओं और अन्य लोगों के लिए खाना बनाकर, बांटने जा सकें। 2021 में, इस बिजनेस का विस्तार करने के लिए, शहर के विभिन्न हिस्सों में छह आउटलेट खोले गए। जिससे 3 करोड़ रुपये का कारोबार हुआ। इससे अब, लगभग 175 महिलायें एक सम्मानित जीवन जी रही हैं।

भारती आगे बताती हैं, “90 के दशक में, महिलायें काम के लिए आसानी से बाहर नहीं निकल पाती थीं तथा कम पढ़ी-लिखी होने के कारण उन्हें काम मिलने में भी काफी मुश्किल होती थी। ये गरीबी में जी रही ऐसी महिलायें थीं, जो पति के सहारे के बिना, अपना परिवार चला रही थीं और उन्हें मदद की जरूरत थी। वे खाना पकाने में कुशल थीं और बस इसलिए, यह पहल शुरू हुई।”

संगठन की फाउंडर जयश्री सामंत (69) कहती हैं कि इस संगठन के निवेश में काफी लोगों ने अपना योगदान दिया। इसके साथ ही, सेटअप के लिए जगह प्रदान करने, हर हफ्ते बर्तन, किराने का सामान और सब्जियों की आपूर्ति के माध्यम से, लोगों ने संस्था को काफी मदद की। “ग्राहकों की भोजन की थाली में दो रोटी, दाल, चावल, दो प्रकार की सब्जियां, पापड़ और अचार को शामिल किया गया। शुरूआत में, एक थाली की कीमत 10 रुपये थी, जो अब बढ़कर 73 रुपये हो गई है। इससे ज्यादा व्यंजनों और मिठाइयों का ऑर्डर देने पर अतिरिक्त पैसे देने पड़ते हैं। यहाँ सुबह 8 बजे से रात 10 बजे तक काम होता है।”

इससे पहले, काम का समय काफी सहज था तथा महिलायें अपने समय के अनुकूल, अपने काम की जिम्मेदारियों को पूरा कर, चली जाती थीं। उन्हें काम के अनुसार ही भुगतान किया जाता था। हालांकि, कुछ सालों बाद वे शिफ्ट (पारी) में काम करने लगीं। अपनी-अपनी पारी में वे कैश काउंटर को संभालने, खाना पकाने, सफाई करने, ग्राहकों को संभालने और राशन लाने जैसी जिम्मेदारियां निभाती थीं। शुरुआत में, बिजनेस काफी धीमा था। कभी-कभी तो महिलायें वही भोजन घर भी ले जाती थीं, जो बिक नहीं पाता था। भोजन की गुणवत्ता और स्वाद को बनाए रखने के लिए भी, उन्हें प्रशिक्षण की जरूरत थी। आखिरकार, बिजनेस फिर से चल पड़ा क्योंकि, लोगों को अच्छा भोजन सस्ते दाम में मिलने लगा था।

जीती हैं सम्मानित जीवन

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कैंटीन में काम करती महिलायें

जयश्री द बेटर इंडिया को बताती हैं, “यहाँ महिलाओं को वेतन दिया जाता है और इस तरह उनके पैसों पर उनका ही नियंत्रण रहता है। मुनाफे के माध्यम से हम, उन्हें भविष्य निधि, पेंशन, बीमा पॉलिसी, शिक्षा के लिए धन, स्वास्थ्य लाभ और अन्य आर्थिक सहायता प्रदान करने में सक्षम हैं। ट्रस्ट की फाउंडर्स अपने लाभ के लिए, बिजनेस के मुनाफे का उपयोग नहीं करती हैं।”

वह कहती हैं, “ये महिलायें कहीं और नौकरी कर सकती हैं लेकिन, शिक्षा के लिए उन्हें यहाँ मिलने वाली मदद, लोन आदि लाभ, उन्हें सुरक्षित और सम्मानित जीवन जीने में सक्षम बनाते हैं।”

सुमित्रा ट्रस्ट के साथ पिछले 23 सालों से काम कर रही हैं। वह बताती हैं, “मेरे पति के निधन के बाद, मुझे एक दोस्त के माध्यम से इस पहल का पता चला और मैंने यहाँ काम करना शुरू किया। ट्रस्ट ने मेरे बेटे की शिक्षा के लिए भुगतान किया और मुझे आर्थिक बोझ के बिना, जीवन जीने में सहायता प्रदान की।”

47 वर्षीया जया लिंगायत कहती हैं कि वह अपनी शादी के बाद कल्याण से वसई चली गईं। वह कहती हैं, “मैं एक नौकरी की तलाश में थी। एक रिश्तेदार के माध्यम से इंदुमती से मेरा परिचय हुआ। मैं एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से थी, जिनकी अपनी कुछ सीमाएँ होती हैं। क्योंकि, मुझे घर के साथ-साथ, काम को भी संतुलित करना था। कैंटीन में अपने अनुकूल समय पर काम करने के कारण, मैं घर और काम में संतुलन बना पाई। इस पहल ने मुझे एक नई पहचान दी तथा लोग मेरे काम के लिए, मेरा सम्मान करते हैं।”

जया कहती हैं कि इस पहल में सभी महिलाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। वह कहती हैं, “हम मुश्किल समय में, हमेशा एक-दूसरे का साथ देते हैं।”

रिटायर होने वाली महिलाओं को 1 लाख रुपये से अधिक की बचत प्राप्त हुई है। साथ ही, उन्होंने अपने घर का बना खाद्य कारोबार भी शुरू किया है। जया कहती हैं, “मैं खुद को सुरक्षित महसूस करती हूँ कि बैंक में पीएफ और पेंशन योजना के माध्यम से, मेरे बुढ़ापे के लिए मेरे पास बचत राशि है।”

ट्रस्ट की 75 वर्षीया को-फाउंडर उषा मंगेरिकर का कहना है कि यहां काम करना, वित्तीय सुरक्षा प्रदान करने से भी कहीं ज्यादा अच्छा है। इस पहल ने इन महिलाओं को जीवन के सुखद अनुभव प्रदान किए हैं। वह कहती हैं, “इन महिलाओं ने ट्रेन में बैठकर लम्बी दूरी का सफर कभी नहीं किया था और ना ही ये कभी पिकनिक के लिए बाहर गई थीं। हम इन महिलाओं में विश्वास जगाने के लिए, छुट्टियों में इन्हें कई जगहों की यात्राएं करवाते हैं। 2020 में, उन्होंने हवाई यात्रा करने की इच्छा व्यक्त की और हम उन्हें हैदराबाद की यात्रा पर ले गए।”

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कोरोना महामारी के कारण रेस्तरां के अन्दर बैठकर भोजन करना बंद कर दिया गया और ग्राहकों के लिए केवल बाहर से ही चीजें उपलब्ध की जाने लगी।

पिछले 30 वर्षों में, इस ट्रस्ट ने सभी प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे और फिर भी, उनके प्रयासों में कभी कोई कमी नहीं आई। इसीलिए, आज भी पूरी ईमानदारी से उनके प्रयास जारी हैं।

जयश्री कहती हैं, “स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों में हमारे छह आउटलेट हैं। लेकिन, हम एक या दो केंद्रों पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं क्योंकि, हमें बाकी आउटलेट्स से उतना लाभ नहीं मिलता। हमें ज्यादा आर्थिक सहयोग नहीं मिलता इसलिए, हमारा सारा काम, हमारे मुनाफे पर ही चलता है। हमारे द्वारा परोसे जाने वाले भोजन की कीमत को बढ़ाया नहीं जा सकता है। साथ ही, बाकी रेस्तरां की तुलना में हमारा खाना सस्ता होना चाहिए। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को भोजन खरीदने में आसानी हो। साथ ही, गुणवत्ता को भी बनाए रखने की जरूरत है। कोरोना महामारी के कारण हम फिलहाल, ग्राहकों के लिए केवल बाहर से ही भोजन उपलब्ध कराते हैं क्योंकि, रेस्तरां के अन्दर बैठकर भोजन करना बंद कर दिया गया है।”

सरकार से गुहार

वह कहती हैं कि सरकार को उनकी इस पहल के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और ‘सब्सिडी’ या ‘कर लाभ’ की अनुमति देनी चाहिए। जयश्री आगे कहती हैं, “इस तरह का समर्थन इन महिलाओं को उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में ज्यादा सक्षम बनाएगा। जिससे, बिजनेस को हो रहे मुनाफे से उन्हें सीधा लाभ मिले सके, ना की हमें सरकार को भारी कर देने के लिए उस मुनाफे का उपयोग करना पड़े। लेकिन, हमने इसके पहले भी सरकार से अनुरोध किया था और हमें अब भी उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया का इंतजार है।”

भविष्य की योजनाओं के बारे में बोलते हुए जयश्री कहती हैं कि पेशेवर मनोवैज्ञानिकों की मदद से, इन महिलाओं के लिए काउंसलिंग सेशन शुरू करने की योजना बनाई जा रही है। वह कहती हैं, “महिलाओं को अपने परिवारों से हमेशा समर्थन नहीं मिलता है। उनमें से कई ऐसी माँ भी हैं, जो अकेली अपना घर-परिवार संभालती हैं तथा संघर्षपूर्ण जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। इन महिलाओं को भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक मदद की जरूरत है। जहाँ तक बात बिजनेस की है तो हम कमाई को बढ़ावा देने के लिए रेडीमेड स्नैक्स और भोजन पेश करने की योजना बना रहे हैं। त्योहारों के दौरान इस तरह की चीजों की पेशकश की जाती है लेकिन, हमारा उद्देश्य ग्राहकों को वर्षभर यह चीजें उपलब्ध कराना है।”

इस ट्रस्ट को मजबूती से खड़ा करने वाली महिलाओं ने, कभी नहीं सोचा था कि वे इस पहल द्वारा इतने सारे लोगों के जीवन को प्रभावित करेंगी। अंत में उषा कहती हैं, “इसका पूरा श्रेय इन महिलाओं को जाता है, जिन्होंने बड़ी ही सहजता से हर कदम पर एक-दूसरे का साथ दिया है।”

मूल लेख: हिमांशु नित्नावरे

सम्पादन – जी एन झा

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