स्वतंत्रता की लडाई की एक विस्मृत नायिका ! आइये मिलते हैं, सुशीला चैन त्रेहन से, जिन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि कई लोगो के खिलाफ जा कर पंजाब के गाँव में जा कर लडकियों को शिक्षित करने का भी हौसला दिखाया। अपने जीवन का हर एक क्षण उन्होंने समाज की भलाई को समर्पित कर दिया। पढ़ते हैं इनके साहस और संकल्प की प्रोत्साहित करने वाली कहानी।
भले ही सुशीला चैन त्रेहन, झाँसी की रानी या शहीद भगत सिंह या फिर मदर टेरेसा की तरह प्रसिद्ध न हो पर फिर भी पंजाब जैसी जगहों पर औरतो के अधिकार के लिए की गयी इनकी लड़ाई वाकई प्रशंसनीय है।
भारत की आजादी के बाद से ले कर 28 सितम्बर 2011 में हुई उनकी मृत्यु तक वह लगातार समाज की भलाई के लिए काम करती रही।

1 जुलाई, 1923 को पठानकोट, पंजाब में जन्मी सुशीला अपने चार भाई बहनों में सबसे छोटी थी। इनके पिताजी, श्री मथुरादास त्रेहन पेशे से एक ठेकेदार थे तथा अपनी जगह पर कांग्रेस पार्टी के संस्थापको में से एक थे। साथ ही आर्य समाज के एक प्रमुख सदस्य भी थे।
यह सच में हैरान करने वाली बात है कि किस प्रकार एक छोटी घटना हमारे जीवन में एक बड़ा बदलाव ले आती है। ऐसा ही कुछ सुशीला के साथ हुआ, जब वह एक किशोरी थी, और अपने पिताजी के साथ पठानकोट स्थित आर्य समाज मंदिर में हो रही एक मीटिंग में गयी थी।
उस सम्मलेन को रोकने के लिए ब्रिटिश के अधीन पुलिस ने स्टेज को चारो ओर से घेर लिया था और वहां मौजूद लोगो को पीटना शुरू कर दिया। कई लोगो को गहरी चोटे भी लगी, लेकिन पुलिस की ओर से कोई रहमी नहीं दिखाई गयी। इस घटना ने सुशीला को झंकझोर के रख दिया और उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठान ली।
सुशीला ने भगत सिंह की कहानियाँ भी सुन रखी थी, कि किस प्रकार वे देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे, और उनसे वह काफी प्रभावित भी हुई।

इसी उधेड़ बुन में उनका जीवन अभी चल ही रहा था कि तभी उनके पिताजी की मृत्यु एक बेहद रहस्यमय परिस्थिति में हो गयी। हालाँकि उनका परिवार अत्यंत संपन्न था फिर भी पिताजी की मृत्यु के बाद परिवार को सब कुछ खोना पड़ा।
इन सब घटनाओ ने उन्हें अन्दर से बहुत क्रोधित कर दिया। अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए उन्हें दुसरो पर निर्भर होना पड़ता था। उस समय वह अपने किशोरावस्था में ही थी और आज के मुकाबले एक लड़की हो कर इस स्थिति का सामना करना तब कही ज्यादा मुश्किल हुआ करता था।
इसी बीच सुशीला अपने गुरु, ‘श्री पंडित देव दत्त अट्टल’ के संपर्क में आई जो खुद भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने सुशीला को “गांधीवाद एंड समाजवाद’ नाम की पुस्तक दी।
इसे पढ़ कर भारत को स्वतंत्रता दिलाने की भूख उनके अन्दर और बढ़ गयी। तभी उनकी मुलाकात शकुंतला आज़ाद नाम की एक महिला से हुई। यह 1941 की बात है और इस समय तक सुशीला 18 वर्ष की हो चुकी थी। उन्होंने अपना घर छोड़ कर पूरी तरह से अपनी मातृभूमि को आज़ाद करवाने की ठान ली।
‘गांधीवाद और समाजवाद’ किताब का ही असर था, जिसने सुशीला को अपने गुस्से पर काबू करने की प्रेरणा दी और किसी से भी बदला लेने की भावना को त्यागने का संयम भी दिया।
वह जब लोगो से मिलने में व्यस्त थी, उस समय भी वे समय निकाल कर पंजाब के गाँव जाया करती थी। उन्होंने वहाँ की लडकियों को सिलाई आदि जैसे काम सीखाने का मन बनाया, जिस से वे ज्यादा से ज्यादा आत्मनिर्भर बन पायें।

सुशीला लड़कियों को पढ़ाने दूर-दूर के क्षेत्रो में साइकिल से जाया करती थी। उस समय में लडकियों का साइकिल चलाना अच्छा नहीं माना जाता था और इसके कारण उन्हें गाँव के लोगो और समाज के लोगों के द्वारा भी हतोत्साहित किया जाता था। चूँकि वह एक स्वतंत्रता सेनानी भी थी, वे यह काम ब्रिटिश राज के अधिकारियों से छुप कर किया करती थी।
इस समय वह अन्य नेताओं की तरह लाहौर के ‘किर्ती पार्टी’ में शामिल होने की इच्छुक थी परन्तु इस के लिए उन्हें बहुत विरोध का सामना करना पड़ा क्यूंकि यह पार्टी पुरुषो की थी और ऐसा माना जा रहा था कि ब्रिटिश पुलिस द्वारा दिए जाने वाली कठोर सजा को सहने में सुशीला अपनी छोटी उम्र के कारण कमज़ोर पड़ सकती थी।
पर सुशीला ने पूरी तरह से भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का मन बना लिया था और किसी भी तरह का विरोध उनके इस निश्चय को तोड़ नहीं पाया।

इसी समय उन्होंने अपने परिवार को एक पत्र लिखने का निश्चय किया, जिसमे वह साफ़ तरह से उन्हें यह बता देंगी कि वे लोग उनकी शादी के लिए लड़का न ढूंढे। वह स्वतंत्रता की लडाई में ही खुद को समर्पित करना चाहती थी। इसी दौरान उनकी मुलाकात अपने भावी पति, चैन सिंह चैन से हुई जो खुद भी एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही कीर्ती पार्टी के सदस्य भी थे, जिसमे अब तक सुशीला भी शामिल हो चुकी थीं।
‘कीर्ति किसान मोर्चा’ तथा ऐसे अन्य आयोजनों में सुशीला ने अन्य महिलाओं के साथ बढ़ चढ़ के भाग लिया और पुलिस की यातनाओं का डट के सामना किया।
स्वतंत्रता के बाद भी सुशीला ने सामाजिक भलाई के लिए काम करना नहीं छोड़ा और वह समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ काम कर रहे संगठनो से जुडी रही। वह हमेशा ही शिक्षा के महत्व को समझती थी और शिक्षण संस्थान के निर्माण को प्रोत्साहित करती थी।
पंजाब के गाँव में स्कूल खोलने वाली कमिटी की वह एक महत्वपूर्ण सदस्य रहीं। इनमे से तीन विद्यालय लड़कियों के लिए और एक सह-शिक्षा वाले थे।

सुशीला और उनके पति ने इस लड़ाई में अपने तीन बच्चो को बहुत ही छोटी उम्र में खो दिया क्यूंकि उन्हें अधिकारियों से छिप कर अपना मक्सद पूरा करना पड़ता था। उनके लिए देश की सेवा ही सबसे ऊपर रही। सविता, जो उनकी इकलौती बची हुई संतान है, उसे भी जीवित रहने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते रहना पड़ा।
सुशीला “स्त्री सभा” जलंधर की संस्थापक रह चुकी है। अपने आखिरी दिनों तक वह अन्याय के खिलाफ लड़ती रही। स्त्री सभा आज भी सुशीला के सपनो को पूरा करने में प्रयासरत है। सुशीला जी हम सब के दिलो में हमेशा एक वीरांगना के रूप में जीवित रहेंगी!
टी.बी.आई की पूरी टीम की ओर से आज़ादी की लड़ाई की इस विस्मृत वीरांगना को सलाम !
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