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14 साल की इस क्रांतिकारी ने काटी 7 साल जेल; आज़ाद भारत में बनी मशहूर डॉक्टर!

डॉ. सुनीति चौधरी को आम लोग प्यार से 'लेडी माँ' कहकर पुकारते थे।

ज हम आपको बताने जा रहे हैं भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी महिला सुनीति चौधरी के बारे में। सुनीति चौधरी का जन्म टिप्पेरा के कोमिला सब-डिविजन में एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 22 मई,1917 को हुआ था। क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो कर महज 14 वर्ष की उम्र में ही इन्होंने एक ब्रिटिश मैजिस्ट्रेट की गोली मार कर हत्या कर दी थी। इन पर मुकदमा चला और इन्होंने अपने जीवन के 7 साल जेल में बिताए। और फिर आगे चल कर, स्वतंत्र भारत में ये एक प्रसिद्ध डॉक्टर बनीं।

साल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। इस दौरान लगातार धरना-प्रदर्शन हो रहे थे। आंदोलनकारियों के जुलूस रोज़ ही निकला करते थे। इसके साथ, पुलिस की क्रूरता भी चरम पर पहुँचती जा रही थी। अंग्रेज़ अफ़सरों के अत्याचारों को देख कर सुनीति के मन में उनसे बदला लेने की भावना प्रबल होती जा रही थी।

इसी दौरान, फैजुन्निसा बालिका उच्च विद्यालय में उनकी सीनियर प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा ने उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किताबों को पढ़ने की न सिर्फ सलाह दी, बल्कि उन किताबों को सुनीति तक पहुँचाया भी। “Life is a sacrifice for the Motherland” (जीवन अपनी मातृभूमि के लिए त्याग का नाम है) – स्वामी विवेकानंद के इन शब्दों ने देश के लिए कुछ करने के इनके विचारों को और भी मजबूती दी।

सुनीति चौधरी

आगे चल कर सुनीति आंदोलनात्मक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने लगीं। वे डिस्ट्रिक्ट वॉलन्टियर कॉर्पस की मेजर बनीं। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने विद्यार्थी संगठन को संबोधित करने के लिए शहर का दौरा किया, तब सुनीति लड़कियों की परेड का नेतृत्व कर रही थीं।

प्रफुल्ल नलिनी ने सुभाष चंद्र बोस से क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर उनके विचारों के बारे में पूछा। बोस ने तुरंत जवाब दिया, “मैं आपको आगे की श्रेणी में देखना चाहूँगा।“

इसी बीच, ‘युगांतर’ पार्टी से जुड़ी महिला विंग में युवतियों को क्रांतिकारी कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। इन कार्यों में प्रमुख था क्रांतिकारियों को सूचना, कागजात, हथियार और पैसे पहुँचाना। यह ज़िम्मेदारी सबसे बहादुर और चालाक युवतियों को दी जाती थी।

उल्लेखनीय है कि लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की मांग प्रफुल्ल नलिनी, शांतिसुधा घोष और सुनीति चौधरी ने उठाई थी। जब कुछ वरिष्ठ नेताओं ने इन लड़कियों की क्षमता पर संदेह जताया, तो सुनीति ने इसका विरोध करते हुए कहा, “हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?”

प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा

आखिरकार, उस समय के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक बिरेन भट्टाचारजी ने गुप्त रूप से लड़कियों का साक्षात्कार लिया और इन तीनों लड़कियों के साहस का लोहा माना। इन लड़कियों की ट्रेनिंग त्रिपुरा छात्र संघ के अध्यक्ष अखिल चन्द्र नंदी की देख-रेख में शुरू हुई। ये स्कूल छोड़ शहर से दूर मयनमती पहाड़ी पर गोलियां चलाने का अभ्यास करने लगीं।

उनकी असल चुनौती लक्ष्य को भेदना नहीं, बल्कि रिवॉल्वर के बैक किक को संभालना था। सुनीति की उंगली ट्रिगर तक पहुँच नहीं पाती थी, पर ये हार मानने को तैयार नहीं थीं। ये बेल्जियन रिवॉल्वर से शॉट मारने के लिए अपनी मध्यमा उंगली का इस्तेमाल करने लगीं।

इनका निशाना ज़िला मैजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवन था, जो सत्याग्रह को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था। उसने सारे प्रमुख नेताओं को जेल में बंद कर दिया था। उसका जवाब देने के लिए कुछ करना ज़रूरी था और संती व सुनीति यही करने वाली थीं।

14 दिसंबर, 1931 को सुबह 10 बजे ज़िला मैजिस्ट्रेट के बंगले के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी। दो किशोरियाँ उसमें से हँसते हुए उतरीं। दोनों ने शायद ठंड से बचने के लिए रेशमी कपड़े को साड़ी के ऊपर से ओढ़ रखा था। उनके गलियारे तक पहुँचने के पहले ही गाड़ीवाला पूरी रफ्तार से वहाँ से निकल गया।

उन लड़कियों ने अंदर एक इंटरव्यू स्लिप भेजा, जिसके बाद एसडीओ नेपाल सेन के साथ मैजिस्ट्रेट बाहर निकले। अपने पास आए स्लिप पर स्टीवन ने एक नज़र डाली। इला सेन और मीरा देवी नाम की इन लड़कियों (जैसा कि उस पत्र पर हस्ताक्षर में लिखा था) ने मैजिस्ट्रेट को स्विमिंग क्लब में आमंत्रित किया था। ‘योर मैजेस्टी’ जैसे चापलूसी से भरे शब्दों का ज़्यादा उपयोग और कुछ गलत अंग्रेजी के इस्तेमाल ने उनकी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं होने दिया। इला ने अपनी पहचान एक पुलिस अफसर की बेटी के रूप में कराई, ताकि ‘मैजेस्टी’ की सहानुभूति उसे मिल जाए।

लड़कियाँ स्वीकृति के लिए अधीर हो रही थीं। इसके लिए उन्होंने स्टीवन से उस पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया। वह अपने चेंबर में गया और जल्दी ही हस्ताक्षर किए कागज़ ले कर लौट आया।

इसके बाद उसका घर गोलियों की आवाज़ से गूँज उठा। इस क्रूर मैजिस्ट्रेट ने अपनी आँखें बंद होने के पहले देखा कि ये वही दो लड़कियाँ थीं, जिन्होंने अब रेशमी कपड़ा उतार दिया था और उसके सीने पर पिस्तौल ताने खड़ी थीं।

शांतिसुधा घोष

एसडीओ के आते-आते बहुत देर हो चुकी थी। जब लोग इन लड़कियों को पकड़ने जमा हुए, तब शांति और सुनीति ने किसी भी तरह का विरोध नहीं किया और भीड़ की मार को सहती चली गईं।

ये हर तरह की यातना सहने के लिए खुद को तैयार कर के आई थीं। उनके दर्द सहने की क्षमता को परखने के लिए उनकी उंगलियों में पिन चुभोए गए, पर ये टूटी नहीं और न ही इन्होंने अपने गुप्त संगठन के बारे में एक शब्द बोला। उनके चेहरे पर उस समय भी शिकन तक नहीं उभरी, जब हथियारों की खोज के बहाने उनसे शारीरिक छेड़छाड़ की गई।

यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई।

क्रांतिकारियों ने इन बहादुर लड़कियों के बारे में पर्चे बांटे। मेजर के यूनिफ़ॉर्म में सुनीति की फोटो और उसके नीचे लिखी गई पंक्ति लोगों के दिलों मे बस गई। यह पंक्ति थी – रोकते अमार लेगेछे आज सोर्बोनाशेर नेशा – तबाही की ज्वलंत इच्छा आज मेरे लहू में दौड़ रही है।

यह मिशन तो सफल रहा, पर इन लड़कियों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी थी।

जब अदालत में मुकदमा शुरू हुआ तो उन्हें देख कर सब हतप्रभ रह गए। वे मुस्कुरा रही थीं। जब उन्हें बैठने के लिए कुर्सी देने से इनकार किया गया तो वे जज और कोर्ट के अन्य सदस्यों की ओर पीठ करके खड़ी हो गईं। उन्होंने किसी भी ऐसे इंसान को सम्मान देने से मना कर दिया, जो शिष्टाचार के सामान्य नियमों का भी पालन नहीं कर सकता था।

जब एसडीओ सेन गवाह के रूप में कोर्ट में आए और बनावटी कहानी गढ़ने लगे, तब इन्होंने इतनी ज़ोर से ‘बड़ा झूठा! बड़ा झूठा!’ बोलना शुरू कर दिया कि पूरे कोर्ट रूम में हलचल मच गई। उन्हें अपमानित कर कोई भी उनके आक्रोश से बच नहीं पाया। उनके मन में कोर्ट को लेकर कोई भय नहीं था।

ये पुलिस वैन से कोर्ट रूम तक जाते समय और फिर वापसी में देशभक्ति की गीत गातीं और उन लोगों को देख कर मुस्कुराती रहीं, जो वहाँ इकट्ठे हुए थे और इन्हें दूर से ही आशीर्वाद दे रहे थे।

उस समय छपी खबर

इनकी यह मुस्कुराहट उस समय थम गई, जब कोर्ट का फैसला आया। तब भीड़ ने इनके व्यक्तित्व का अलग ही पहलू देखा – अत्यंत दुखी और निराश। इन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गई थी, जिसका मतलब था कि इन्हें शहीद होने से रोक लिया गया था। रास्ते में इन्हें चिल्लाते सुना गया – “फांसी मिलनी चाहिए थी! फांसी इससे कई गुना बेहतर होती!” पत्रकार इन्हें देख कर अचंभित थे।

अधिकारियों ने इन्हें तोड़ने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी। प्रफुल्ल को मुख्य साजिशकर्ता के रूप में चिह्नित कर जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्हें उनके ही घर में कड़ी निगरानी में रखा गया, जहाँ 5 साल बाद सही चिकित्सा नहीं मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

शांति को जेल में दूसरी श्रेणी के अन्य क्रांतिकारियों के साथ रखा गया, जबकि सुनीति को तीसरी श्रेणी में भेज दिया गया, जहाँ चोर और जेबकतरों को रखा जाता था।

उस समय बांटे गये पर्चे (स्त्रोत)

यहाँ खराब खाना और गंदे कपड़े उन्हें मिलते थे। पर मानवाधिकारों का पूरी तरह हनन होने के बाद भी सुनीति स्थिर और शांत रहीं। वह पुलिस द्वारा अपने माता-पिता पर हो रहे अत्याचारों और अपने बड़े भाई की गिरफ्तारी की खबर को सुन कर भी रोज़मर्रा के काम में व्यस्त रहतीं। अपने छोटे भाई का कलकत्ता की गलियों में फेरीवाला बनने और अंत में भूख और बीमारी के कारण मर जाने की खबर भी सुनीति को तोड़ नहीं पाई।

छोटे अपराधी उनके नम्र स्वभाव के कारण उन्हें पसंद करते थे। बीना दास ने एक घटना के बारे में लिखा है कि कैसे रमजान में रोजे के बाद एक औरत ने सुनीति से अपना नमक-पानी का घोल पीने की ज़िद की, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह नवयुवती इसकी अधिक हकदार है।

यह यातना आखिरकार 6 दिसंबर,1939 को खत्म हुई। द्वितीय विश्व-युद्ध के पहले आम माफ़ी की वार्ता के बाद इन सभी को रिहा कर दिया गया था। तब तक सुनीति 22 वर्ष की हो चुकी थीं। क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं ली थी।

पर क्रांतिकारी कभी कुछ नया करने से पीछे नहीं हटते।

अब इन्होंने पूरे ज़ोर-शोर से पढ़ाई शुरू कर दी और आशुतोष कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स (आई. एससी) प्रथम श्रेणी से पास किया। साल 1944 में इन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल स्कूल में दाखिला लिया। एमबी (आधुनिक एमबीबीएस) करने के बाद इन्होंने आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और भूतपूर्व राजनैतिक कैदी प्रद्योत कुमार घोष से शादी कर ली।

सुनीति का दयालु और समर्पण भरा स्वभाव उनके डॉक्टरी के पेशे से मेल खाता था। जल्द ही वे चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बन गईं। लोग उन्हे प्यार से ‘लेडी माँ’ बुलाने लगे।

अपने पति व बेटी के साथ सुनीति

1951-52 के आम चुनावों में डॉ. सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण इन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

सुनीति ने अपने भाइयों की भी उनके व्यवसाय में मदद की और लकवा से पीड़ित अपने माता-पिता का सहारा भी बनीं। इन्हें बच्चों और प्रकृति से प्रेम था। इन्होंने अपने बच्चों को बागवानी, तैराकी और प्रकृति विज्ञान की शिक्षा दी। 12 जनवरी, 1988 को इस क्रांतिकारी महिला ने दुनिया को अलविदा कहा। इनके देशप्रेम, बहादुरी और दयालुता के किस्से आने वाली पीढ़ियों को हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे।

संपादन – मनोज झा 


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