“मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटियों की शादी जल्दी कर दी जाए। मैं उन्हें पढ़ाना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि वे पढ़-लिखकर नौकरी करें, खुद कमाएं और आत्म-निर्भर बनें। मैं उन्हें दफ्तरों में देखना चाहती हूँ जहाँ वे कंप्यूटर चलाएं,” यह कहना है ‘शुभम क्राफ्ट्स’ में काम करने वाली कलाकार संतोष का।
संतोष जयपुर के ग्रामीण इलाके मानपुरा से हैं और पिछले डेढ़ साल से शुभम क्राफ्ट्स में बतौर कारीगर काम कर रहीं हैं। इससे पहले संतोष एक आम गृहिणी थी और अपने पति की कमाई पर निर्भर थीं। लेकिन अपनी बेटियों के लिए उनके जो सपने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए उन्होंने खुद बाहर निकलकर काम करने की ठानी। आज संतोष के बनाए प्रोडक्ट्स विदेशों तक जाते हैं और उन्हें एक अलग पहचान मिल रही है। संतोष कहतीं हैं कि ‘शुभम क्राफ्ट्स’ में काम करने से न सिर्फ उनके हुनर को पहचान मिली बल्कि उन्हें अपनी परेशानियों से ऊँचा उठकर जीने की प्रेरणा भी मिली है और उनके इस सपने को साकार किया है पूर्णिमा सिंह ने।
‘शुभम क्राफ्ट्स’ की शुरुआत साल 2018 में पूर्णिमा सिंह ने अपने पति के साथ मिलकर की। NIT कुरुक्षेत्र से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रैजुएशन करने वाली पूर्णिमा ने तीन साल तक इंडस्ट्री में काम किया। लेकिन उनका मन हमेशा से ही अपना कोई व्यवसाय करने का था। वह भी सिर्फ पैसे कमाने के लिए नहीं बल्कि आम लोगों के लिए कुछ करने के लिए।
“मेरे मन में तरह-तरह के आइडिया आते थे। मैं और मेरे पति, हम दोनों जब भी इस बारे में चर्चा करते तो यही सोचते थे कि हमें अपने समाज और पर्यावरण के लिए कुछ करना है। लेकिन क्या? यह समझ नहीं आ रहा था,” उन्होंने बताया।
पूर्णिमा आगे कहती हैं कि एक बार उनका जयपुर के पास मानपुरा गाँव में जाना हुआ और वहां उन्होंने एक-दो घरों में देखा कि कैसे वे अभी भी पारंपरिक तरीकों से जीवन जी रहे हैं। उनके घरों में अनाज रखने के लिए मिट्टी के टाठा (टंकी) हैं और वे मिट्टी के बर्तनों में ही खाना बनाते हैं। कई घरों में उन्होंने सूखी घास से बनी डलिया (टोकरी) देखीं। पूर्णिमा को इस गाँव में आकर समझ में आ गया कि उन्हें क्या करना है।
उन्होंने तय किया कि वह पारंपरिक रहन-सहन के तरीकों को यानी कि उन प्रोडक्ट्स को एक बार फिर बाज़ार में लाएंगी जो भारत की संस्कृति से कहीं खोते जा रहे हैं। ऐसे प्रोडक्ट्स, जिनकी जगह आज हमारे घरों में प्लास्टिक की चीजों ने ले ली है जैसे रसोई में मिट्टी की बरनी की जगह अब प्लास्टिक के डिब्बे होते हैं। घरों को सजाने के लिए भी ज़्यादातर प्लास्टिक से बने सामान का इस्तेमाल हो रहा है। पूर्णिमा ने एक बार फिर लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ने की ठानी और यहीं से शुरुआत हुई ‘शुभम क्राफ्ट्स’ की।
‘शुभम’ का मतलब होता है ‘कुछ अच्छा होना’ और क्राफ्ट तो यहाँ की औरतों के हाथों में है ही। पूर्णिमा के बिज़नेस की शुरुआत सिर्फ 3 महिला कारीगरों के साथ हुई। गांवों की महिलाओं को घूँघट छोड़ घर की दहलीज के बाहर काम करने के लिए ला पाना, कोई जंग जीतने से कम नहीं था। पूर्णिमा कहतीं हैं कि उनकी किस्मत थी कि उनकी मुलाक़ात बिमला आंटी से हुई, जो उनकी सबसे पुरानी कारीगर हैं।
“बिमला आंटी के पति की मौत बीमारी के चलते हो गई थी और उनके जाने के बाद अपनी दोनों बेटियों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई थी। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने तुरंत हमारे साथ काम करने के लिए हाँ कह दी क्योंकि उन्हें काम की ज़रूरत थी ताकि वह अपना घर चला सकें। उन्हें तब यह भी नहीं पता था कि हम उनसे क्या काम करवाएंगे, लेकिन हमारे इस सफ़र में उनका सबसे ज्यादा योगदान है। उन्होंने न सिर्फ खुद काम सीखा बल्कि दूसरी सभी महिला कारीगरों को भी सिखाया है।” – पूर्णिमा
बिमला कहती हैं कि घर में बैठना और बाकी लोगों पर निर्भर होना आसान था। लेकिन उन्हें अपनी बेटियों को कुछ बनाना है और इसके लिए पहले खुद उन्हें कुछ बनना था। आज बिमला अलग-अलग तरह के प्रोडक्ट्स बनाती हैं। क्लाइंट जो डिज़ाइन भेजते हैं, उन पर वह अपने हुनर से चार चाँद लगा देतीं हैं।
इतना ही नहीं, बिमला ने अपने गाँव की और अन्य गांवों की भी महिलाओं को यहाँ पर जोड़ा है। उन्होंने और पूर्णिमा ने गाँव-गाँव जाकर महिलाओं को और उनके परिवारों को समझाया। उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दी और आज ‘शुभम क्राफ्ट्स’ के साथ जयपुर के 3 गांवों से 35 महिलाएँ काम कर रहीं हैं।
पूर्णिमा बताती हैं, “जब भी हम इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल प्रोडक्ट्स की बात करते हैं, तो भारतीय लोगों को यह आसानी से समझ में नहीं आता। उन्हें लगता है कि कागज या फिर मिट्टी से बनी चीजों के हम इतने पैसे क्यों दें? वह इन प्रोडक्ट्स बनाने में लगने वाली मेहनत को नहीं देखते।”
इसलिए पूर्णिमा को जब अपने प्रोडक्ट्स के लिए भारत में ज्यादा मार्केट नहीं मिला, तब उन्होंने अपना यह कॉन्सेप्ट एक्सपोर्टर्स के सामने रखा।
“हैरत की बात है कि हमारे यहाँ पारंपरिक तौर से बनने वाले प्रोडक्ट्स की बाहर के देशों में अच्छी-खासी मांग है। हमने जब एक-दो एक्सपोर्टर्स को अपने प्रोडक्ट्स दिखाए तो वे तुरंत तैयार हो गए और अब हम अपने प्रोडक्ट्स बाहर एक्सपोर्ट करते हैं। हमारे सभी प्रोडक्ट्स क्लाइंट की मांग के हिसाब से बड़े ऑर्डर के लिए बनते हैं,” उन्होंने बताया।
सिर्फ डेढ़ साल में, शुभम क्राफ्ट्स ने यूरोप, कनाडा, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर में ग्राहकों के साथ कारोबार किया है। उनका इस साल का टर्नओवर लगभग 1 करोड़ रुपये था।
उनके प्रोडक्ट्स की एक खास बात यह भी है कि ये ‘बेस्ट आउट ऑफ़ वेस्ट’ के कॉन्सेप्ट पर बनते हैं। पुराने अख़बार, कपड़े और अन्य बेकार पड़ी चीजों से उनकी महिला कारीगर बहुत ही खूबसूरत और उपयोगी चीजें बनातीं हैं और इन प्रोडक्ट्स की मांग काफी ज्यादा है।
जैसे-जैसे उनके प्रोडक्ट्स की मांग बढ़ रही है, वैसे-वैसे पूर्णिमा भी अपने प्रोडक्ट्स और अपने कारीगरों की संख्या बढ़ा रहीं हैं। उनका एक उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण भी है। इसलिए वह हमेशा ऐसे डिज़ाइन पर काम करतीं हैं जिनमें पर्यावरण के अनुकूल मटेरियल इस्तेमाल हो। उन्होंने हाल ही में कुछ किसानों से भी बात की और उन्हें अपने खेतों की पराली न जलाने के लिए समझाया है।
“हमने उनसे कहा है कि वे अपने खेतों की बची हुई पराली हमें दे दें। हम इसे अपने प्रोडक्ट्स बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं और इसके बदले हम उन्हें पैसे दे देंगे। इस तरह से पर्यावरण भी बचेगा और किसानों को भी एक अतिरिक्त आय मिल जाएगी। फ़िलहाल, हमने 7-8 किसानों को जोड़ा है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, गाँव के और भी किसानों से बात करेंगे।” – पूर्णिमा
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धीरे-धीरे ही सही पूर्णिमा की कोशिशें रंग ला रहीं हैं। वह कहतीं हैं कि उन्हें अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है। अभी तो उनके काम की सिर्फ शुरुआत हुई है और फ़िलहाल उनका ध्यान अपने प्रोडक्ट्स को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने पर है। इसके साथ ही, वह अपने यहाँ काम करने वाली हर एक महिला की ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव लाना चाहतीं हैं। अंत में वह अपने जैसी महिलाओं के लिए सिर्फ एक बात कहतीं हैं,
“हर एक महिला में कोई न कोई हुनर होता है। हम अपनी माँ-दादी, नानी और सास से कुछ न कुछ सीखते हैं। बस ज़रूरत है तो इस हुनर को अपनी पहचान बनाने की। ऐसा कुछ भी नहीं है दुनिया में जो औरत नहीं कर सकती, बस आप अपने जुनून को बनाए रखें।”
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संपादन – अर्चना गुप्ता
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