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कौन थीं नटी बिनोदिनी, जिनका किरदार निभाएंगी कंगना रनौत और क्यों बंगाल की थिएटर आर्टिस्ट होते हुए भी उन्हें कहा गया वेश्या?

एक वक़्त था, जब थिएटर और सिनेमा में महिला किरदार भी पुरुष कलाकार निभाते थे, क्योंकि महिलाओं का इस क्षेत्र में काम करना ओछा माना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे हालात बदले और महिलाओं ने रंगमंच पर कदम रखना शुरू किया। 

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कहते हैं कि बंगाली थिएटर ने अंग्रेज़ी थिएटर से भी पहले अपने नाटकों में महिला कलाकारों को स्टेज पर उतारा। उस शुरुआती दौर की चंद महिला कलाकारों में से एक थीं बिनोदिनी दासी।

बिनोदिनी

साल 1862 में कोलकाता में जन्मीं बिनोदिनी ने बचपन से अगर कुछ देखा, तो सिर्फ गरीबी। उनके छोटे भाई की मात्र 5 साल की उम्र में शादी कर दी गई, ताकि दहेज़ में मिले गहने आदि को बेचकर घर का खर्च चल सके।

बिनोदिनी

बिनोदिनी के नाजुक कंधों पर भी घर चलाने की ज़िम्मेदारी थी। इसलिए 12 साल की उम्र से ही उन्होंने थिएटर करना शुरू कर दिया। थिएटर की दुनिया से उनकी पहचान उस समय की थिएटर गायिका, गंगाबाई ने करवाई थी।

गंगाबाई ने ही बिनोदिनी की मुलाक़ात कोलकाता थिएटर के दिग्गज कलाकार और निर्देशक, गिरीश चंद्र घोष से करवाई थी। गिरीश ने बिनोदिनी को रंगमंच की बारीकियाँ सिखाईं और उनकी कला को तराशा।

बिनोदिनी किसी भी पात्र को जीवंत कर देती थीं। उन्होंने कई बार एक ही नाटक में अलग-अलग भूमिकाएँ निभाईं। उनका सबसे चर्चित नाटक ‘चैतन्य लीला’ था, जिसमें उन्होंने किसी महिला का नहीं, संत चैतन्य का किरदार निभाया।

‘चैतन्य लीला’ के बाद बिनोदिनी का थिएटर करियर अपने शीर्ष पर था। हर तरफ उनका ही नाम था। लेकिन ठीक दो साल बाद, 1887 में उन्होंने ‘बेल्लिक बाज़ार’ नाटक के बाद, महज़ 24 साल की उम्र में रंगमंच की दुनिया को अलविदा कह दिया।

उनके इस फैसले की अलग-अलग वजह लोग देते रहे। किसी ने कहा कि संत चैतन्य की भूमिका ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी और इसलिए उनका मन इस दुनिया से विरक्त हो गया, तो कोई कहता है कि अपने निजी संबंधों की वजह से उन्होंने ये काम छोड़ा।

उन्होंने साल 1912 में ‘अमार कथा’ लिखी और 1924-25 में ‘अमार अभिनेत्री जीबन’ किताब लिखी। उनकी किताबों के ज़रिए लोगों को पता चला कि किस तरह कोलकाता के मशहूर ‘स्टार थिएटर’ के निर्माण के लिए बिनोदिनी ने अपना सौदा किया था!

दरअसल, गिरीश चंद्र घोष ने जब अपना एक थिएटर बनाने का सोचा तो उनका यह सपना, बिनोदिनी का सपना भी बन गया। लेकिन समस्या थी फंड्स की। 

ऐसे में, घोष को एक व्यवसायी गुरुमुख रे का ऑफर आया कि वह उन्हें थिएटर बनाने के लिए पैसे देंगे।

Binodini

लेकिन बदले में गुरुमुख रे ने घोष से मांगा- उनके नाटक मण्डली की सबसे होनहार और मशहूर कलाकार, ‘नटी बिनोदिनी’। बिनोदिनी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? 

बिनोदिनी

लेकिन बिनोदिनी ने एक शादीशुदा आदमी के साथ एक ‘दूसरी औरत’ बनकर रहना स्वीकार किया, ताकि उनकी कला और रंगमंच को सही मुकाम मिल सके। पर उन्हें यह नहीं पता था कि जिस रंगमंच को उन्होंने अपने सिर का ताज बनाया, वही उन्हें कलंक समझ लेगा।

वादा तो था कि जब नया थियेटर बनकर तैयार होगा, तो उसका नाम बिनोदिनी के नाम पर रखा जाएगा, लोकिन जब थियेटर बनकर तैयार हुआ तो उसका नाम 'स्टार थियेटर' रख दिया गया।

उस समय तो बिनोदिनी ने कोई विरोध नहीं किया, लेकिन उनका रोष उनकी किताबों में दिखता है। थिएटर छोड़ने के बाद, उन्होंने अपनी ज़िन्दगी गुरुमुख रे के साथ बिताई। उनकी एक बेटी भी हुई, शकुंतला, लेकिन उन्होंने उसे 12 साल की उम्र में ही खो दिया।

13 वर्षों का थिएटर करियर, 80 से ज्यादा नाटक और 90 से ज्यादा किरदार निभाने वाली इस महान कलाकारा ने साल 1941 में इस दुनिया से विदा लिया। 

उम्मीद है कि यह फिल्म बिनोदिनी को सिर्फ एक दुखी नायिका के रूप में न दर्शाए, क्योंकि बिनोदिनी का अस्तित्व इससे कहीं बढ़कर है।