“यदि पत्थर पूजने से होते बच्चे तो फिर नाहक नर-नारी शादी क्यों रचाते?”

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ये पंक्तियाँ सावित्रीबाई फुले के मराठी कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ से एक कविता का हिंदी अनुवाद है। इस कविता के माध्यम से सावित्रीबाई फुले अंधविश्वास और रूढ़ियों का खंडन कर लोगों को जागरूक करती हैं।

साल 1852 में  ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ था। यह वह समय था, जब भारत में लड़कियों, शूद्रों और दलितों को शिक्षा प्राप्त करने पर मनाही थी । दलितों और महिलाओं के इस शोषण के खिलाफ़ सावित्री बाई फुले ने आवाज़ उठाई। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के समाज सुधार कार्यों में उनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।

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सबसे पहले ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री को शिक्षित किया और फिर सावित्री उनके साथ दलित एवं स्त्री शिक्षा की कमान सम्भालने लगी।

महाराष्ट्र के पुणे में ज्योतिबा ने 13 मई 1848 को लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल ‘बालिका विद्यालय’ खोला। इस स्कूल को आगे बढ़ाया सावित्री बाई फुले ने।

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सावित्री न सिर्फ़ इस स्कूल की बल्कि देश की पहली शिक्षिका बनीं। साल 1848 से 1851 के बीच सावित्री और ज्योतिबा के निरंतर प्रयासों से ऐसे 18 कन्या विद्यालय पूरे देश में खोले गये।

देश में महिला शिक्षा के दरवाज़े खोलने वाली इस महान समाज सुधारिका, सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिराव फुले से कर दी गयी। 

।ज्योतिराव ने उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया और पढ़ने के लिए प्रेरित किया। सावित्री ने न केवल शिक्षा ग्रहण की बल्कि समय के साथ वे एक विचारक, लेखिका और समाजसेवी के रूप में उभरीं।