जानें, एक बंगाली डिश के जापान में लोकप्रिय होने का इतिहास!
यह कहानी है भारतीय स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी बोस के भारत की आज़ादी में योगदान और उनके खाना पकाने के हुनर की।
23 दिसंबर 1912 की बात है, भारत में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की हत्या की कोशिश हुई। दिल्ली में उन पर बम फेंका गया।
इस हमले में वायसराय बाल-बाल बचे। तफ्तीश में पता चला कि घटना के मास्टरमाइंड बंगाली क्रांतिकारी रास बिहारी बोस हैं।
पुलिस और खुफिया एजेंसियां उनकी तलाश में जुट गईं। तब 1915 में अंडरग्राउंड रहते हुए रवींद्रनाथ टैगोर के रिश्तेदार की झूठी पहचान के सहारे वह जहाज पर सवार होकर जापान चले गए।
पहले वह पोर्ट सिटी कोबे पहुंचे और फिर वहां से टोक्यो। वहां उन्होंने हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई से हमदर्दी रखने वाले एशियाई नेताओं से मुलाकात की।
उन्हें प्रभावशाली दक्षिणपंथी नेता मित्सुरू तोयामा की मदद से टोक्यो के कारोबारी और घनी आबादी वाले इलाके शिन्जुकु में एक सुरक्षित आश्रय मिला, जो था नाकामुराया बेकरी का बेसमेंट।
एक बंगाली भला कितने दिन बंगाली खाने से दूर रह सकता था। एक दिन उन्होंने पूरे मन से ‘मुरगीर झोल’ पकाया और बेकरी के मालिक व उन्हें पनाह देने वाले पति-पत्नी आइजो सोमा व कोक्को सोमा को भी खिलाया।
रास बिहारी बोस की सोमा परिवार से नज़दीकी बढ़ती गई और उन्होंने आइजो और कोक्को की बड़ी बेटी तोशिको से शादी कर ली।
तब तक बंगाली ‘मुरगीर झोल’ इस परिवार के खाने का हिस्सा बन चुका था। 1927 में बोस ने अपने ससुर के साथ नाकामुराया बेकरी की ऊपरी मंज़िल पर एक छोटा-सा रेस्तरां खोला, जहां की ख़ासियत थी यही टिपिकल बंगाली डिश।
इस डिश को ग्राहकों के बीच लोकप्रिय होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। देखते-देखते बोस के रेस्तरां की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। जापानी नागरिकों के बीच बोस की ‘इंडो-करी’ क्रांति और प्रेम का प्रतीक बन गई।
आज इतने सालों बाद भी रास बिहारी बोस की रेसिपी से बनी इस चिकन करी की कद्र जापान में ज़रा भी कम नहीं हुई है, यह डिश आज भी वहां काफ़ी लोकप्रिय है।
दही, प्याज़, अदरक, लहसुन वाले झोल या तरी में आज भी पहले की तरह ही सीझे हुए आलू के टुकड़े डाले जाते हैं और इसे 'नाकामुराया बोस' या 'बोस करी' के नाम से भी जाना जाता है।