मुंशी प्रेमचंद का बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था और उपनाम नवाब राय। उन्होंने अपने उपनाम के साथ अपने सभी लेखन लिखे। अंत में उनका नाम बदलकर मुंशी प्रेमचंद कर दिया गया।

वह लमही गांव में पले-बढ़े। वह अपने पिता अजायब लाल की चौथी संतान थे।अजायब लाल, पोस्ट ऑफिस में क्लर्क थे और माँ आनंदी देवी एक गृहिणी थीं।

साल 1897 में पिता की मृत्यु के बाद, उनकी पढ़ाई बंद हो गई। तब उन्होंने ट्यूशन देना शुरू किया, जिसके लिए उन्हें प्रतिमाह पांच रुपये मिलते थे।

इसके बाद, उन्हें चुनार में मिशनरी स्कूल के हेडमास्टर की मदद से एक शिक्षक की नौकरी मिली और वह प्रतिमाह 18 रुपये कमाने लगे।

मुंशी प्रेमचंद ने वर्ष 1906 में शिवरानी देवी नाम की बाल विधवा से दूसरा विवाह किया और दो बेटों श्रीपत राय और अमृत राय के पिता बने. अपनी दूसरी शादी के बाद उन्हें कई सामाजिक विरोधों का सामना करना पड़ा।

मुंशी प्रेमचंद, जब शिक्षा विभाग के डेप्युटी इंस्पेक्टर थे। तब एक दिन इंस्पेक्टर स्कूल का निरीक्षण करने आया। उन्होंने इंस्पेक्टर को स्कूल दिखा दिया। 

दूसरे दिन प्रेमचंद स्कूल नहीं गए और अपने घर में कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे, तभी सामने से इंस्पेक्टर की गाड़ी निकली। इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि प्रेमचंद कुर्सी से उठकर सलाम करेंगे। लेकिन प्रेमचंद कुर्सी से हिले तक नहीं।  

यह बात इंस्पेक्टर को बुरी लगी और उसने अपने अर्दली को मुंशी प्रेमचंद को बुलाने भेजा। जब मुंशी प्रेमचंद गए तो इंस्पेक्टर ने शिकायत की कि तुम्हारे दरवाजे से तुम्हारा अफसर निकल जाता है और तुम सलाम तक नहीं करते। 

यह बात दिखाती है कि तुम बहुत घमंडी हो। इस पर मुंशी प्रेमचंद ने जवाब दिया, 'जब मैं स्कूल में रहता हूं, तब तक ही नौकर रहता हूं। बाद में मैं अपने घर का बादशाह बन जाता हूं।'

साल 1930-40 एक ऐसा दौर था, जब देश भर के लेखक और साहित्यकार बंबई फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमा रहे थे। उन्हीं में से एक प्रेमचंद भी थे। 

1934 में पूरी हुई प्रेमचंद की पहली फिल्म ‘मिल मजदूर’ में वर्किंग क्लास की समस्याओं को इतनी मजबूती से उठाया कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित सेंसर बोर्ड ने घबराकर, इसके प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया।

लेकिन चोरी-छिपे इस फिल्म को लाहौर, दिल्ली और लखनऊ में रिलीज़ किया गया। फ़िल्म का मजदूरों पर ऐसा असर हुआ कि ब्रिटिश सरकार की कार्य पद्धतियों को लेकर विरोध शुरू हो गया।

मुंशी प्रेमचंद ने इस फिल्म में एक मज़दूर (मजदूरों का नेता) की भूमिका भी निभाई, लेकिन उन्हें व्यावसायिक फिल्म उद्योग का माहौल पसंद नहीं था, इसलिए वह एक साल का कॉन्ट्रैक्ट पूरा करने के बाद, वापस बनारस लौट आए।

प्रेमचंद की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने उन पर एक किताब लिखी, जिसका नाम है- प्रेमचंद घर में।