“स्कूल में मुझे एक बेंच पर अकेले बैठाया जाता था। छात्रों को मेरे साथ घुलने-मिलने या मेरे करीब आने तक से मना कर दिया गया था।"
दिल्ली की रहनेवाली जया का बचपन समाज में कुष्ठ रोगियों के साथ होने वाले भेदभाव के साथ गुजरा।
इसीलिए जया, कुष्ठ रोगियों के दुख-दर्द और समस्याओं को बखूबी जानती और समझती हैं और 2 दशकों से ऐसे लोगों की सेवा में लगी हैं।
वह, 52 परिवारों के करीब 30 कुष्ठ रोगियों की हर छोटी-बड़ी ज़रूरत का ध्यान रखती हैं।
जया, न तो किसी संगठन से जुड़ी हैं और न ही उनके पास आमदनी का कोई ज़रिया है, फिर भी अकेले इस काम में लगी हुई हैं।
जया के पिता भी मरते दम तक कुष्ठ रोगियों की सेवा में जुटे रहे थे और जया ने वहीं से शुरुआत की जहां उनके पिता इस काम को छोड़कर गए थे।
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