MP का ज़ायका रतलामी सेंव कैसे बना और छा गया, आइए जानते हैं...

मालवा के एक शहर से निकलकर देश-दुनिया में छाने वाले इस जायके की ब्रांड बनने की कहानी दिलचस्प है। 200 साल पहले राजस्थान से आए कारीगरों से हुनर सीखकर और नए प्रयोग कर यहां के कारीगरों ने सेंव को रतलामी पहचान दे दी।

एक वह दौर था जब लकड़ियां जलाकर कारीगर सेंव बनाते थे। खरीदार गमछे या तौलिए में सेंव रखकर ले जाते थे। तब न कागज होते थे, न आज जैसी आकर्षक पैकिंग।

1886 से रतलाम में सेंव बेच रहे लादूराम परिवार के सदस्य बताते हैं कि तब तिल्ली के तेल में सेंव बना करती थी। मसालों की खासियत यह थी कि कपड़े पर तेल का दाग तक नहीं छूटता था। आज इसी सेंव की रोजाना 10 से 15 टन की खपत होती है।

मालवा में तो यह लोगों की भोजन की थाली का आवश्यक हिस्सा बन चुकी है। इसका इतिहास करीब 200 साल पुराना है। रतलाम शहर की स्थापना के समय राजस्थान से आए कारीगरों ने यहां सबसे पहले सेंव बनाना शुरू किया था।

तब राजस्थान में सेंव मूंग दाल के आटे से बनाई जाती थी। रतलाम में चने की उपलब्धता ज्यादा होने पर इसे यहां बेसन से बनाया जाने लगा। बस यही बात रतलामी सेंव के ब्रांड बनने में सबसे महत्वपूर्ण साबित हुई। वक्त बीतने के साथ सेंव में नए-नए फ्लेवर भी जुड़ते गए।

चाय के साथ इसे खाने में बड़ा मज़ा आता है और इसे लौंग सेव और इंदौरी सेव भी कहा जाता है। इसकी जड़ें जुड़ी हैं आदिवासियों और मुग़लों से।

19वीं सदी में कुछ मुग़ल शाही परिवार के लोग रतलाम आए थे। उन्हें तब सेवैंया खाने की इच्छा हुई। सेवइयां गेहूं से बनती है और उस दौर में रतलाम में गेहूं उगाया नहीं जाता था। ये तो अमीरों का भोजन हुआ करता था, ग़रीब लोग तो चना, बाजरा, जौ आदि की रोटियां खाया करते थे।

जब उन्हें सेवइयां नहीं मिली तो उन्होंने वहां रहने वाली भील जाति के आदिवासियों से बेसन से सेवइयां बनाने को कहा। इस तरह रतलामी सेव की पहली वैरायटी तैयार हुई! इसे पहले भीलड़ी सेव भी कहा जाता था।

समय के साथ इसमें रतलाम के लोगों ने कई एक्सपेरिमेंट किए और इसे मसालों से बनाना शुरू कर दिया। ये सेव नर्म, खस्ता और कुरकुरा होता है, जो इसे दूसरे सेव से अलग बनाते है।

साल 2017 में रतलामी सेंव को GI टैग मिल चुका है। शादी, समारोह और छोटे आयोजनों में तो इस सेव की कई वैरायटी मेहमानों के लिए रखना मालवा की परंपरा है। तो क्या आपने कभी चखा है रतलामी सेंव?

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