8वीं पास, छोटा गाँव, घूँघट से ढका सिर, लेकिन हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में सिखा चुकी हैं बिज़नेस के गुर

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"यह मेरा सपना कभी नहीं था। वास्तव में, मुझे यह भी नहीं पता था कि मैं जीवन में ऐसी जगह पर पहुंच सकती हूं।"-  रूमा देवी

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रूमा को फरवरी 2020 में अमेरिका की हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में आयोजित 17वें वार्षिक भारत सम्मेलन में, सूक्ष्म उद्यमों और महिलाओं की क्षमता पर बोलने के लिए बुलाया गया था।

साल 2018 में उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों से 'नारी शक्ति पुरस्कार' भी मिल चुका है।

लेकिन उनकी इन सफलताओं के पीछे छिपा है उनके जीवन का कठिन संघर्ष।  

पांच साल की उम्र में अपनी माँ को खोने के बाद, उनका बचपन चाचा-चाची के घर में बिता था।  

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आर्थिक तंगी के कारण आठवीं के बाद उनकी पढ़ाई छूट गई थी,  जिसके बाद वह ज़्यादातर समय बुनाई का काम ही किया करती थीं।

मात्र 17 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी।

शादी के बाद भी पैसों की तंगी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, उनका परिवार किसानी और मौसमी सब्जियों से ही गुजारा चलाया करता था।

लेकिन उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट तब आया, जब साल 2008 में रूमा पैसों की कमी के कारण अपने नवजात बच्चे को बचा नहीं पाईं।  

उन्होंने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए काम करने का फैसला किया।  

अपनी दादी से मिली कला की बदौलत उन्होंने गांव की दो महिलाओं के साथ एमब्रॉयडरी और सिलाई का काम शुरू किया। ।  

गांव की एक संस्था, ग्रामीण विकास एवम चेतना संस्थान ने उनका काम देखा और उनकी मदद करने का फैसला किया।  

धीरे-धीरे और गांव की महिलाएं जुड़ने लगीं।  हालांकि रूमा कहती हैं कि महिलाओं को जोड़ना आसान नहीं था।  

लेकिन गांव की महिलाओं का हुनर दिल्ली जैसे बड़े शहरों तक पंहुचा और रूमा की मेहनत रंग लाई।

आज वह एक या दो नहीं, बल्कि 30 हजार महिलाओं के साथ मिलकर काम कर रहीं हैं।  

आत्मनिर्भर होने के सही मायने कोई सीखे रूमा देवी और उनके साथ काम करने वाली ग्रामीण महिलाओं से।