आज के जमाने में जब लोग गांवों, छोटे शहरों, कस्बों और पहाड़ों से निकलकर बड़े-बड़े शहरों में बस रहे हैं, वहीं उत्तराखंड में एक शख्स ऐसा है, जो 78 वर्ष की उम्र में भी अपने पहाड़ों और प्रकृति के बचाव में जुटा हुआ है। यह शख्स आज भी बढ़ते शहरीकरण के विरुद्ध, दिन-रात अपने पहाड़ों के अस्तित्व को (Forest Conservation) बचा रहा है। हम बात कर रहे हैं राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में जिलिंग एस्टेट के मालिक, 78 वर्षीय स्टीव लाल की। कई दशकों से स्टीव, पहाड़ियों पर बसी अपनी 140 एकड़ की जिलिंग एस्टेट को संभाल रहे हैं।
इस 140 एकड़ के एस्टेट में खेती के लिए जमीन, घना बाग और चारों तरफ जंगल है। यहाँ के जंगल तथा बाग जैव विविधता से भरपूर हैं। द बेटर इंडिया ने इसके बारे में स्टीव लाल से बात की, जो खुद को इस जगह का मालिक नहीं बल्कि चौकीदार मानते हैं।
उन्होंने बताया, “मेरे पिता उत्तर प्रदेश कैडर में भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी थे। मेरा जन्म बनारस में हुआ। वहां से साल 1949-1954 तक हम गंगटोक, सिक्किम में रहे। क्योंकि, मेरे पिता को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा सिक्किम के दीवान के रूप में, वहां भेजा गया था। उसके बाद हम देश के अलग-अलग इलाकों जैसे झाँसी, आगरा, बरेली और दिल्ली में भी रहे। मेरा परिवार ज्यादातर ऐसी जगहों पर रहा, जहां घने जंगल हुआ करते थे। इसलिए, मुझे बचपन से ही प्रकृति से गहरा लगाव हो गया था।”

कैसे हुई शुरुआत:
बचपन से ही, स्टीव पायलट बनाना चाहते थे। बड़े होकर उन्होंने भारतीय वायु सेना में लगभग एक दशक तक अपनी सेवाएं दी और फिर अपनी जिलिंग एस्टेट को संभालने के लिए वापस आ गए। वह बताते हैं कि इस एस्टेट को उनकी माँ, होप वायलेट लाल ने 1965 में खरीदा था। उन्होंने यह जमीन एक ऐसे शख्स से खरीदी थी, जिसे यह जमीन देश के विभाजन के बाद भारत सरकार ने दी थी। विभाजन से पहले साल 1900 के आसपास, यह एस्टेट एक ब्रिटिश परिवार के नाम था। तब इस एस्टेट का नाम जिलुंग हुआ करता था। वक्त के साथ, यहां पर जंगल, बाग तथा जीव-जंतु बढ़ने लगे तो इसका नाम जीलिंग पड़ गया। अब यह लाल परिवार के पास है तथा उन्होंने इसका नाम ‘जिलिंग एस्टेट’ कर दिया।
वह आगे बताते हैं, “मैं जब भी छुट्टी से आता था तो इस पूरे इलाके में घूमता था। नौकरी छोड़ने के बाद मैं यहीं पर बस गया। मेरी पत्नी, पार्वती से भी मेरी मुलाकात यहीं पर हुई।” पार्वती इसी इलाके से हैं। उनके पिता ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कुमाऊं रेजिमेंट में सेवाएं दी थीं। वायु सेना की नौकरी छोड़ सीधा पहाड़ों में रहने आना, लाल के लिए बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था। क्योंकि, उन्हें हमेशा से ही प्रकृति से बहुत ज्यादा प्यार था।
लाल कहते हैं कि उन दिनों, कुमाऊं अपनी बर्बादी से उबरने के लिए संघर्ष कर रहा था। “हमारे एस्टेट की सीमा से जुड़े, बाहरी इलाके में समस्याएं तब बढ़ने लगीं, जब बाहरी लोग अपने घरों के निर्माण के लिए यहां से लकड़ियां काटकर ले जाने लगे। तब इस इलाके में, जानवरों के चारे की भी कमी हो गई थी। उन दिनों स्थानीय लोग हमसे, जानवरों को खिलाने के लिए, पेड़ों से पत्ते और चूल्हे के लिए लकड़ियां भी लेकर जाते थे। इसके लिए, मैं उन्हें दोष भी नहीं दे सकता।” साथ ही, पानी के स्त्रोत सूखने लगे थे और स्थानीय लोगों की गरीबी भी बढ़ती जा रही थी।

लाल भी जब यहां आये थे तब उनके पास ज्यादा बचत नहीं थी। अपनी पत्नी की मदद से उन्होंने खेती में अपना हाथ आजमाया। लेकिन, उपज को बेचकर भी ज्यादा कुछ नहीं बचता था। वह कहते हैं, “हमारे लिए यह काम नहीं, प्यार था। हमारी कमाई ज्यादा नहीं हो रही थी।” अच्छी आजीविका के लिए, उन्होंने अपने एस्टेट में आने वाले पर्यटकों की मेजबानी करना शुरू किया। कई दूतावासों के लोग और विदेशी पर्यटक, उनके यहाँ आकर ठहरने लगे। वह और उनकी बेटी नंदिनी, उन्हें ट्रेकिंग के लिए लेकर जाते थे। वह कहते हैं, “हम अपनी आजीविका के लिए ये सब करने लगे थे लेकिन, मैं आज भी यहां का चौकीदार ही हूँ।”
हर दिन किया संघर्ष:
वह कहते हैं कि एस्टेट को रिसोर्ट बनाकर वह करोड़ों कमा सकते थे। लेकिन, उन्होंने अपने काम को छोटे स्तर पर रखा। वह यहाँ, एक बार में पांच या छह से ज्यादा दंपति को नहीं रखते हैं। इससे, उनके इलाके में पर्यटन बढ़ने से जो बर्बादी होने लगी थी, वह कुछ हद तक रुकी हुई है। वह हँसते हुए कहते हैं, “मेरे बैंक में भले ही कुछ नहीं है पर मेरे पास बहुत कुछ है।”
वह आगे बताते हैं कि पहले जो ब्रिटिश परिवार इस एस्टेट का मालिक था, उन लोगों ने यहां बाग लगाए हुए थे। वे जब वह यहां से गए तो लाल ने देखा कि यहाँ काफी खाली जगह पड़ी थी और उन्होंने यहाँ पर फिर से पेड़-पौधे लगाए। उन्हें तब समझ में आया कि उन्हें सीमाओं पर भी नजर रखनी होगी ताकि वहां कोई नुकसान न हो। उनकी चौकीदारी रंग लाने लगी और यहां पर पेड़-पौधों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। वह कहते हैं कि लगभग 30 सालों में, जंगल कई गुना घना हुआ है। इससे, इलाके की क्षेत्रीय वनस्पति भी काफी बढ़ी है। लाल परिवार ने इस जंगल में, कुछ भी बाहर से ला कर नहीं लगाया है। यहां शुद्ध जैव-विविधता है।
वह अपने जंगल को आग और काला झाड़ (एक तरह की खरपतवार) से बचाने की भी दिन-रात कोशिश करते हैं। उनकी बेटी नंदिनी बताती हैं, “मौसम बदलते ही हमारे आसपास का वातावरण सूखने लगता है, खासकर जब बर्फ नहीं गिरती है। अब सर्दियों में भी जंगल में आग लग जाती है।” बारिश के समय भूस्खलन को रोकने के लिए, वे छोटे नालों के बहाव का भी पूरा ध्यान रखते हैं।
लाला जिस परिवेश से हैं, उसे देखते हुए लोगों को यकीन ही नहीं होता कि वह शहर की आरामदायक जिंदगी को छोड़कर पहाड़ों में रह रहे हैं। जिलिंग पहुँचने के लिए आपको पहाड़ियां पार करनी पड़ती हैं। इसलिए, उनके दोस्त भी उनेक पास बहुत ही कम आते-जाते हैं। लेकिन, लाल कहते हैं कि नया भारत बिल्कुल अलग है। क्योंकि, युवा पीढ़ी हर चीज को जानना-समझना चाहती है। अलग-अलग जगह घूमना चाहती है।
वह कहते हैं, “40-50 साल पहले चीजें अलग थीं और अब बहुत कुछ बदल चुका है। पहले मेरे मेहमान सिर्फ विदेशी या दूतावासों के लोग होते थे लेकिन, अब 90% से ज्यादा मेहमान, भारतीय ही हैं।”

अब यहां पर्यटक जिलिंग एस्टेट का आनंद लेने आते हैं और इस वजह से, लाल से अब ऐसे लोग सम्पर्क करने लगे हैं, जो यहां जमीन भी खरीदना चाहते हैं। नंदिनी कहती हैं, “हर कोई पहाड़ों पर अपना एक घर चाहता है। लेकिन वे शहर के जीवन की विलासिता भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। ऐसे में संतुलन बनाना काफी मुश्किल है।”
लाल कहते हैं, “अब हमारे आस-पास बहुत से ऐसे लोग आ गए हैं, जिनके पास काफी जमीन है और जो इस इलाके को बड़े शहरों की तर्ज पर टाउनशिप बनाना चाहते हैं। वे यहां हवेलियां और हेलीपैड बनाना चाहते हैं। लेकिन, हम पूरी निडरता से वही करते रहेंगे, जो करते आये हैं।”
इसके साथ ही, वह और पार्वती मिलकर काला झाड़ से भी जंगल को बचा रहे हैं। यह काफी खतरनाक खरपतवार है, जो बहुत जल्दी फैलती है और जीव-जंतुओं के लिए हानिकारक है। खासतौर पर घोड़ों के लिए। अगर घोड़े इसे खा लेते हैं तो उन्हें साँस संबंधित बीमारी हो जाती है और उनकी मृत्यु हो जाती है।
पहाड़ों के रखवाले:
अपनी चौकीदारी की बात करते हुए, वह कहते हैं कि उन्होंने घुसपैठियों को जिलिंग से बाहर रखने के लिए कई काम किये हैं। वह पहाड़ी रास्तों पर घुसपैठियों का पीछा करते हैं और उन्हें पकड़ कर सबक सिखाते हैं। साथ ही वह कहते हैं, “आखिर वे हैं तो हमारे ही लोग। अगर मैं गरीब होता तो आजीविका के लिए, मैं भी कुछ न कुछ करने की कोशिश करता। लेकिन, इस इलाके में हमारे परिवार का काफी सम्मान है। मैं लोगों को परेशान नहीं करता हूँ। मेरा मानना है कि यदि हम लोगों से अच्छे से बात करेंगे तो वे भी अच्छे से ही जवाब देंगे। मेरी यह सोच, इतने सालों में मुझे काफी काम आई है।”
साल 2014 में लाल के जिलिंग एस्टेट को, एक अंग्रेजी लेखक और एडवेंचरर बेन फोगल ने अपने शो, ‘बेन फोगल: न्यू लाइव्स इन द वाइल्ड’ के दूसरे सीजन के लिए कवर किया था। इस शो में ऐसे ही लोगों की कहानी बताई गयी है, जिन्होंने शहरी जीवन छोड़कर प्रकृति को चुना है।
यह पूछे जाने पर कि क्या पहाड़ों का शांत जीवन बोरियत से भरा होता है? तो उन्होंने जवाब दिया, बिलकुल भी नहीं। वह कहते हैं कि उनकी दिलचस्पी और भी कई चीजों में है। उनकी पसंदीदा मोटरसाइकिल, जिस पर बैठकर वह पहले अपने दोस्तों से मिलने जाया करते थे। लेकिन, कुछ साल पहले हुई एक दुर्घटना के बाद, उन्होंने बाइक चलाना बंद कर दिया। इसके बावजूद, वह कुछ न कुछ पढ़ने, कोई वाद्ययंत्र बजाने या पर्यटकों के साथ एस्टेट घूमने में व्यस्त रहते हैं। इस तरह, उन्हें कभी बोरियत महसूस नहीं होती।
COVID-19 महामारी की शुरुआत में लाल और उनकी पत्नी, कुछ समय के लिए अपने परिवार के अन्य सदस्यों और दोस्तों से दूर हो गए थे तथा पर्यटन भी बहुत मंदा हो गया था। लेकिन, इस बात से उन्हें कोई शिकवा नहीं है। वह दृढ़ विश्वासी हैं और प्रकृति के प्रति उनका लगाव कभी कम नहीं होता। आज इस परिवार के समर्पण से ही जिलिंग एस्टेट हरा-भरा और सम्पन्न है।
मूल लेख: दिव्या सेतु
संपादन – प्रीति महावर
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