टोक्यो ओलंपिक में भारतीय टीम के शानदार प्रदर्शन के बाद, अब पैरालंपिक के लिए भारतीय खिलाड़ियों ने कमर कस कल ली है। देश में कई ऐसे खिलाड़ी हुए हैं, जिन्होंने पैरालंपिक खेलों में अपनी अलग ही छाप छोड़ी। ऐसी ही एक खिलाड़ी हैं, दीपा मलिक। उन्होंने रियो पैरालंपिक- 2016 में शॉट पुट (गोलाफेंक) में रजत पदक हासिल किया था। वह एशियाई खेलों में, जैवलिन थ्रो और शॉटपुट में कांस्य पदक भी जीत चुकी हैं। आइए जानते हैं इस असाधारण खिलाड़ी की अद्भुत कहानी!
दीपा का जन्म 30 सितम्बर 1970 को, हरियाणा के सोनीपत स्थित भैस्वाल गांव में हुआ था। उनके पिता, बी के नागपाल एक अनुभवी कर्नल थे।
6 साल की उम्र में हुई पहली बार दिक्कत
दीपा जब छह साल की थीं, तब उन्हें अचानक एक दिन पैरों में कमजोरी का पता चला। धीरे-धीरे चलना-फिरना बंद हुआ और वह बिस्तर पर चली गईं। इसके बाद उनका इलाज शुरू हुआ।

उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया, “इलाज के लिए कई बार यहां-वहां आना जाना पड़ता था। अंत में पापा ने पुणे में पोस्टिंग ली और वहां कमांड हॉस्पिटल में मुझे भर्ती करा दिया। उस दौरान, मैं माता-पिता को देखकर, बहुत-कुछ सीखती थी। मैंने उनसे पहली चीज़ सीखी-जिम्मेदारी। पेरेंट्स को इतनी जिम्मेदारियां निभाते देखा, तो उस छोटी-सी उम्र में ही मुझे जिम्मेदारियों का एहसास हुआ। इसके अलावा, मैंने उनसे जो चीज़ें सीखीं, वह थी- उम्मीद बनाए रखना, किताबों से दोस्ती और कि ‘मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है’। मैंने लगभग 8-9 महीने के बाद, धीरे-धीरे चलना सीखा और यह हौसला मुझे मेरे माता-पिता ने ही दिया।”
इलाज के दौरान पैदा हुई कुछ करने की ज़िद
लंबे चले इलाज के बाद, दीपा पूरी तरह ठीक हो गईं। लेकिन अस्पताल में बिताए समय ने उनके अंदर एक ज़िद भी पैदा कर दी। उन्होंने ठान लिया कि उन्हें जीतना है, साबित करना है कि वह दूसरे ऐक्टिव और फिट बच्चों जैसी ही हैं। बचपन से ही, उन्होंने स्कूल में होने वाले खेलों, डिबेट, ग्रुप डांस, थिएटर, पब्लिक स्पीकिंग जैसी हर गतिविधि और प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था और ट्रॉफीज लेकर घर लौटती थीं।
इसी कारण, उनमें खेलों के प्रति रुचि भी बढ़ती गई। उन्होंने सोफिया कॉलेज, अजमेर से ग्रेजुएशन किया। वह, वहां हॉस्टल में रहीं और फिर राजस्थान की क्रिकेट व बास्केटबॉल टीम जॉइन की। इसी बीच, उन्हें टू-व्हीलर से प्यार हो गया। दीपा के घर में एक लूना थी, जिसे अपने भाई से ज्यादा वह चलाती थीं। इसके बाद, उन्होंने लोगों से बाइक मांगनी शुरू कर दी। उनके पेरेंट्स की सबसे बड़ी प्रॉब्लम यही थी कि वह लोगों से बाइक मांगा करती थीं।
जो बाइक देगा, उसी से करुंगी शादी
दीपा ने, 27 जून 1989 को कर्नल बिक्रम सिंह से शादी की और उनकी दो बेटियां हैं- देविका और अम्बिका।
उन्होंने कर्नल बिक्रम से शादी को लेकर मजेदार किस्सा शेयर करते हुए एक इंटरव्यू में बताया, “मैं छुट्टियों में घर आई थी। तभी मैंने एक यंग आर्मी ऑफिसर को एक लेटेस्ट बाइक पर देखा। मैंने उनसे भी बाइक मांगी और चलाई। उन्होंने कॉम्पि्लमेंट दिया, तुम तो बहुत अच्छी बाइक चलाती हो। मैंने कहा, शादी भी उसी से करूंगी, जो बाइक देगा। वह अगले ही दिन मेरे घर आए और पापा से मेरा हाथ मांग लिया। यह 1989 की बात है। मैंने कॉलेज जॉइन किया ही था। साढे 19 साल की उम्र पूरी करते ही शादी हो गई और पति ने वादे के मुताबिक मुझे बाइक दी। हम लोग खेलते, घूमते, बाइकिंग करते।”

दीपा की दूसरी प्रेग्नेंसी के दौरान फिर से परेशानियां शुरू हो गईं। उनकी कमर में दर्द रहने लगा। उन्होंने बताया, “हम ऊटी गए थे, लेकिन वहां मुझे चलने में प्रॉब्लम होने लगी। पैरों में ठंड से स्टिफनेस आने लगी। मुझे लगा, फिजियोथेरेपी करानी होगी। उसी समय कारगिल का युद्ध शुरू हो गया और पति वहां चले गए।”
साल 1999 में, दीपा ने जब चेकअप कराया तो पता चला कि ट्यूमर वापस आ गया है। उन्हें पता था कि पति को छुट्टी नहीं मिल सकती। मई, 1999 में उन्हें बताया गया कि ठीक उसी जगह पर बड़ा-सा ट्यूमर बन चुका है, जहां पहले परेशानी हुई थी। डॉक्टर्स ने कहा कि इसकी सर्जरी मुश्किल होगी। दीपा को दिल्ली के आर.आर. हॉस्पिटल जाने के लिए कहा गया। वहां, डॉक्टर्स ने बताया कि सर्जरी के बाद निचला हिस्सा बेकार हो जाएगा और वह चल नहीं पाएंगी।
हर चुनौती ने उनकी हिम्मत के आगे टेके घुटने
29 साल की उम्र में दीपा की जिंदगी बिल्कुल बदल सी गई थी। लेकिन एक कर्नल की बेटी और पत्नि दीपा ने हार नहीं मानी। उनका हौसला, उनकी परेशानियों के आगे चट्टान बनकर खड़ा रहा। उनके पास हर विपरीत परिस्थिति को अवसर और सफलता में बदलने की ताकत थी।
दीपा जानती थीं कि सबकुछ उन्हें अकेले ही करना है। वह, दिल्ली से चेकअप कराकर लौटीं। उस वक्त, उनकी बेटियां सात और तीन साल की थीं। उन्होंने बच्चों के टीचर्स से मिलकर उन्हें स्थिति समझाई।
उन्होंने बताया, “कारगिल से तब तक कम्युनिकेशन ब्लॉक हो चुका था। पति को दो-तीन लंबे खत लिखे कि अगर सर्जरी के बाद वापस न आ सकी, तो वह कैसे घर संभालें। मानसिक तौर पर मैं पति के बारे में ज्यादा चिंतित थी। इसके कारण अपने दर्द से ध्यान हट गया था। अस्पताल में रोज कारगिल के घायल जवान आते थे।”
उन्होंने तब तय किया, चाहे जैसे भी हो, बच्चों के लिए जीना है। उनके पति जंग में थे और कभी भी कोई खबर आ सकती थी। ऐसे में, वह हर बुरी स्थिति के लिए तैयार थीं।
3 सर्जरी और लगे 183 टांके
दीपा को करीब 8-9 महीने का समय अस्पताल में बिताना पड़ा। पहली सर्जरी गलत हुई, तो दूसरी और फिर तीसरी सर्जरी हुई। इस दौरान उनके कंधे पर 183 टांके लगे। कर्नल बिक्रम कारगिल में ही थे। सर्जरी के तीन महीने बाद, उनके पति उन्हें देखने आ सके। उन्हें इस दौरान, लोगों की नकारात्मक बातें भी सुननी पड़ीं। जैसे, कैसे घर संभालेगी या बच्चों की परवरिश कैसे होगी? यहां तक कि लोग, उनके पति की दूसरी शादी तक की बात करने लगे थे।
उसी दौरान दवाओं के कारण, दीपा के गॉल ब्लैडर में स्टोन हो गया और ब्लैडर भी रिमूव करना पड़ा। सर्जरी के लगभग एक साल बाद, दीपा और उनके पति बिक्रम साथ रह सके। लड़ाई खत्म होने के बाद बिक्रम ने जयपुर पोस्टिंग तो ले ली थी। लेकिन उनकी यूनिट झांसी चली गई और वह फिर दूर हो गए।
दीपा ने बताया, “आर्मी में सेपरेटेड फैमिली क्वार्टर्स की व्यवस्था होती है। लोग पूछते, आपके पति साथ नहीं रहते? मैंने किसी से कहा कि हम सेपरेटेड फैमिली हाउस में रहते हैं, तो मुझे सुनने को मिला कि पति ने मुझे छोड़ दिया है।” वह साल 2001 में पति के साथ शिफ्ट हो सकीं, लेकिन फिर दिसंबर में संसद में फायरिंग हुई और पराक्रम घोषित हुआ, बिक्रम वापस बॉर्डर पर चले गए।
कैसे शुरू हुआ स्पोर्ट्स का सफर?

उन्होंने बताया, “छोटी बेटी स्विमिंग से डरती थी, मैं उसे हौसला देने के लिए पानी में उतरी। तब मुझे लगा, मैं तैर सकती हूं। फिर महाराष्ट्र के पैरालंपिक कैंप से किसी ने मुझसे कहा कि अगर मैं स्विमिंग करूं, तो यह मेरे जैसे और लोगों के लिए प्रेरणा होगी।” उन्होंने साल 2006 में, स्विमिंग में सिल्वर मेडल जीता, लेकिन लंबे समय तक उसे जारी नहीं रख सकीं, क्योंकि ठंडे पानी में ज्यादा रहने से उनकी परेशानी बढ़ सकती थी।
लेकिन, वह हारे हुए व्यक्ति की तरह स्विमिंग नहीं छोडना चाहती थीं। उन्होंने अपने कोच से कहा- “मैं चाहती हूं कि लोग मेरा नाम याद रखें।” इसके बाद उन्होंने प्रयागराज में गंगा नदी के बहाव के विपरीत तैरकर पार किया और लिम्का बुक में अपना नाम दर्ज कराया।
साल 2009 में एथलेटिक्स का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने 39 की उम्र में जेवलिन और शॉट पुट पकड़ना सीखा और मेडल जीता। यही वह मेडल था, जो उन्हें कॉमनवेल्थ गेम्स तक ले गया। यह, उनके लिए एक सुनहरा मौका साबित हुआ। इसके बाद, उन्हें लंदन जाने का मौका मिला और वहां, इंटरनेशनल एक्सपोजर मिला। वहीं, उन्हें पता चला कि उनकी वर्ल्ड रैंकिंग दो है।
कई स्पोर्ट्स इवेंट में लिया भाग
दीपा ने, गोला फेंक और भाला फेंक के अलावा, कई स्पोर्ट्स इवेंट में तैराकी में भी भाग लिया है और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में तैराकी में पदक भी जीत चुकी हैं। भाला फेंक में, उनके नाम पर एशियाई रिकॉर्ड है, जबकि गोला फेंक और चक्का फेंक में, उन्होंने साल 2011 में विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था।
तमाम संघर्षों और चुनौतियों के बावजूद, दीपा ने कई ऐसे काम किए, जो उनसे पहले देश की किसी महिला ने नहीं किया था। वह देश की पहली दिव्यांग महिला हैं, जिन्हें ‘फेडरेशन ऑफ इंडिया मोटर स्पोर्ट्स क्लब’ की ओर से आधिकारिक रूप से रैली लाइसेंस दिया गया है। भारत की सबसे कठिन कार रैली ‘रेड दे हिमाचल 2009′ और ‘डेजर्ट स्टॉर्म 2010’ में उन्होंने हिस्सा लिया और बेहतरीन प्रदर्शन किया।
उन्होंने देश के लिए कई मेडल्स जीते और अनेकों अवॉर्ड्स से उन्हें सम्मानित किया गया।
राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अवॉर्ड्सः
- साल 2006 में, उन्हें महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘स्वावलंबन’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- 2008 में हरियाणा सरकार ने उन्हें ‘हरियाणा करमभूमि’ अवॉर्ड से सम्मानित किया।
- साल 2009-10 में दीपा को ‘महाराष्ट्र छत्रपति’ अवार्ड (खेल) से सम्मानित किया गया।
- दीपा को साल 2012 में, 42 साल की उम्र में ‘अर्जुन अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया।
- वहीं, साल 2014 में उन्हें ‘प्रेसिडेंट रोल मॉडल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया।
भारत सरकार ने साल 2019 में, दीपा को देश के सर्वोच्च खेल सम्मान ‘राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड’ से सम्मानित किया था। दीपा इस अवॉर्ड को हासिल करने वाली पहली महिला पैरा-एथलीट और दूसरी पैरा-एथलीट हैं। इससे पहले जैवलिन थ्रोअर देवेंद झाझरिया को साल 2017 में यह सम्मान दिया गया था।
दीपा ने साल 2009 में शॉट पुट (गोला फेंक) में अपना पहला पदक (कांस्य) जीता था। इसके अगले ही साल, उन्होंने इंग्लैंड में शॉटपुट, डिस्कस थ्रो और जेवलिन थ्रो, तीनों ही खेलों में गोल्ड मेडल जीते।
उन्होंने साल 2011 में, वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में रजत पदक और शारजाह में वर्ल्ड गेम्स में दो कांस्य पदक जीते। साल 2012 में, उन्होंने मलेशिया ओपन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में जेवलिन व डिस्कस थ्रो में दो स्वर्ण पदक और 2014 में चाइना ओपन एथलेटिक्स चैंपियनशिप बीजिंग में शॉटपुट में स्वर्ण पदक जीता।
सामाजिक कर्तव्यों में भी नहीं हैं पीछे
बाइक राइडिंग से लेकर स्विमिंग तक करने के अलावा, दीपा को लिखने का काफी शौक़ है। वह, गंभीर बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए कैंपेन चलाती हैं और सामाजिक संस्थाओं के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। उनका उद्देश्य है कि वह ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और दिव्यांगजनों को कुछ अच्छा करने के लिए प्रोत्साहित करें।
वर्तमान में दीपा मलिक, भारतीय पैरालंपिक समिति (पीसीआई) की प्रमुख हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “उन्हें पूरी उम्मीद है कि देश के पैरा खिलाड़ी टोक्यो खेलों में अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए इतिहास रचेंगे।”
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संपादन – मानबी कटोच
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