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क्या देश ने भुला दिया जैवलिन थ्रो में दो गोल्ड मेडल जीतने वाले देवेंद्र झाझड़िया को?

Devendra Jhajharia, the Olympic Gold Medalist

भारत में एक ऐसा खिलाड़ी भी है, जिसका रिकॉर्ड अब तक नहीं तोड़ा जा सका है। वह खिलाड़ी हैं, जैवलिन (भाला) थ्रोअर देवेंद्र झाझड़िया।

टोक्यो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतकर, देश का सालों का इंतजार खत्म करने वाले नीरज चोपड़ा के बारे में तो खूब बातें हुईं। लेकिन भारत में एक ऐसा खिलाड़ी भी है, जिसका रिकॉर्ड अब तक नहीं तोड़ा जा सका है। वह खिलाड़ी हैं, जैवलिन (भाला) थ्रोअर देवेंद्र झाझड़िया (Javelin Thrower Devendra Jhajharia)। यह 40 वर्षीय ट्रैक एथलीट, कमाल की सकारात्मक सोच रखते हैं। उन्होंने हमेशा गिलास को आधा भरा हुआ ही माना है, न कि आधा खाली। मुश्किल सफर और हम-आप सोच भी न सकें, ऐसी कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने न सिर्फ सफलता हासिल की, बल्कि देश को दो-दो स्वर्ण पदक भी दिलाए।

झाझड़िया, एकमात्र ऐसे भारतीय हैं, जिन्होंने किसी भी ओलिंपिक या पैरालंपिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते हैं। उन्होंने पहला पदक, साल 2004 एथेंस पैरालंपिक में और दूसरा, साल 2016 रियो पैरालंपिक में जीता था। देवेंद्र, देश के प्रतिष्ठित सम्मान पद्म श्री से सम्मानित होने वाले पहले पैरा-एथलीट हैं। साल 2004 में, खेल के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था।

आप यह जानकर दंग रह जाएंगे कि उन्होंने ये सारे कमाल, ये सभी कारनामे, महज़ एक हाथ से ही किए हैं।

सफलता की राह में आने वाली कठिनाइयों से उबरने की प्रेरणा कहां से मिली?

इस सवाल का जवाब देते हुए इस पैरालंपियन ने बताया, “जब मैंने अपने आस-पास देखा, तो मुझे बहुत से ऐसे लोग दिखे, जिनके दोनों हाथ या दोनों पैर नहीं थे। उन्हें देखकर मुझे लगा कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि कम से कम मेरा दाहिना हाथ तो है।”

दुर्घटना से, जीत की गाथा लिखने का सफर

देवेंद्र झाझड़िया का जन्म राजस्थान के चुरू जिले में एक किसान परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही, आम बच्चों की तरह दोस्तों के साथ खेलते थे। लेकिन तब खेलना, उनका केवल शौक़ था।

जब वह आठ साल के हुए, तो उस छोटी सी उम्र में, उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया। उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया, “मैं अपने गाँव में एक पेड़ पर चढ़ रहा था और गलती से एक लाइव केबल को छू गया। वह केबल 11,000 वॉल्ट की थी। दुर्घटना इतनी गंभीर थी कि मेरा बायां हाथ तुरंत काटना पड़ा। तब किसी को यकीन नहीं था कि मैं कभी इससे उबर भी पाऊंगा।”

लेकिन, एक सच्चा खिलाड़ी कभी पीछे नहीं हटता। देवेंद्र का जीवन इसका जीता-जागता उदाहरण है। देवेंद्र के दोस्त और गांववाले, अक्सर उनका मजाक उड़ाते, और आलोचना भी करते थे। लेकिन इसकी वजह से ही, देवेंद्र को कुछ बड़ा करने की प्रेरणा मिली। जल्द ही, उन्होंने केवल एक हाथ से खेले जाने वाले खेलों को देखना शुरू किया। इसके लिए वह, हर दिन अपने स्कूल के स्पोर्ट्स ग्राउंड में जाया करते थे।

देवेंद्र ने बताया, “जो भी मुझे देखता, मेरे माता-पिता से कहता कि इसकी ज़िन्दगी तो बर्बाद हो गयी। आप एक बार सोचकर देखिए, अगर कोई आपके बच्चे के बारे में ऐसा कहे, तो एक माता-पिता होने के नाते आपको कैसा लगेगा? लेकिन मेरे माता-पिता ने मुझे कभी इसका एहसास नहीं होने दिया कि उन्हें बुरा लग रहा है। मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि दुनिया की नज़रों में, मैं कमजोर ना दिखूं। और ऐसा करने का एकमात्र तरीका था सफल होना, चैंपियन बनना। एक चैंपियन बनने के लिए, आपको एक खिलाड़ी बनना पड़ता है। इसलिए मैंने खेल पर और अधिक ध्यान देना शुरू किया। जब मैं 10वीं कक्षा में था, तभी से मैंने हर दिन अभ्यास करना शुरू किया और जल्द ही ओपन श्रेणी में डिस्ट्रिक्ट चैंपियन बन गया। मैं इंटर-कॉलेज, डिस्ट्रिक्ट और स्टेट इवेंट्स में पदक जीतता रहा।” 

बांस से बनाया था पहला भाला

घर में भले ही पैसों की कमी रही हो, लेकिन इस एथलीट का दिल दृढ़ संकल्प से भरा हुआ था। अपना प्रशिक्षण शुरू करने के लिए, देवेंद्र ने अपना पहला भाला स्थानीय रूप से उपलब्ध बांस से बनाया था।

इस तरह शुरू हुआ एक आम खिलाड़ी से स्टार स्वर्ण पदक विजेता बनने का सफर। तब से, उन्होंने अथक प्रशिक्षण और राष्ट्रीय व वैश्विक दोनों स्तरों पर गौरव हासिल करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं।

वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाना था दाएं हाथ का काम

इस ट्रैक स्टार के बारे में कुछ भी सामान्य नहीं है। टोक्यो खेलों के लिए क्वालीफाई करने के दौरान भी, उन्होंने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ते हुए, 65.71 मीटर तक भाला फेंककर, नया विश्व रिकॉर्ड (पैरांलपिक में) बनाया था। अब फिलहाल, उनका लक्ष्य तीसरा पैरालंपिक स्वर्ण पदक जीतना है।

बड़े आयोजन के लिए अपनी तैयारियों पर बात करते हुए, उन्होंने बताया, “मैं कड़ी मेहनत कर रहा हूँ और अपने निजी कोच सुनील तंवर द्वारा तय किए गए, एक सुविचारित प्रोग्राम का पालन कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि एथेंस और रियो की तरह ही, मैं टोक्यो में भी स्वर्ण पदक जीतूंगा।”

कई बड़ी बाधाओं के बावजूद, देवेंद्र झाझड़िया ने, न केवल विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है, बल्कि उनकी इस सफलता ने लोगों का ध्यान पैरालंपिक खेलों की तरफ खींचा है और इस बारे में एक नई चर्चा भी शुरू हुई है।

पैरा-एथलीटों के लिए हैं सुविधाएं

देवेंद्र ने बताया, “अब सरकार भी दिव्यांगजनों के लिए काम कर रही है। जब से मैंने खेलना शुरू किया है, तब से लेकर अब तक लोगों के नजरिए में काफी बदलाव आया है। अब लोग यह नहीं सोचते कि दिव्यांग लोग, बड़े काम करने में असमर्थ होते हैं। लेकिन अभी और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। अगर आप विदेशों में जाकर देखें, तो वहां पैरा-एथलीटों के लिए मल्टीपर्पज़ स्टेडियम हैं, जहां व्हीलचेयर वाले लोग कहीं भी जा सकते हैं और कोई भी खेल खेल सकते हैं।”

हम आशा करते हैं कि देवेंद्र और उन जैसे अन्य खिलाड़ियों पर और उनकी ज़रूरतों पर ध्यान दिया जाएगा। देवेंद्र और उन जैसे सभी खिलाड़ियों को द बेटर इंडिया की ओर से ढेर सारी शुभकामनाएं।

मूल लेख – रिया गुप्ता

संपादन – मानबी कटोच

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