अभिनय असंभव है!

आसान सी पंक्तियाँ प्रस्तुत करना ज़्यादा मुश्किल होता है. 'एक राजा था, और एक उसकी रानी थी..' इसे शूट करने वाले दिन सौरभ शुक्ला जी ने बहुत से आँसू बहाये, पता नहीं कितनी सिगरेट और चाय पी गयीं. अभिनय के विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकते हैं इससे.

स्टिन हाफ़मैन एक बार अभिनय की वर्कशॉप में विद्यार्थियों से बात कर रहे थे. ये वरिष्ठ, चुने हुए बच्चे थे. दक्ष. सबको अपना हुनर सामने रखने का मौक़ा मिला और फिर बारी थी डस्टिन की टिप्पणी की. तीन दिनों इतनी सारी बातें हुईं थीं अभिनय के बारे में, उसके इतिहास के बारे में, विभिन्न शैलियों, पद्धतियों, विलक्षण कलाकारों के बारे में, पात्र को गढ़ने की तैयारी के बारे में. अब कुछ बड़ी बड़ी बातें होतीं, सभी के अभिनय की चीर-फाड़ की जाती लेकिन डस्टिन ने यही कहा कि:

“Why act? Just become the character. Acting is impossible for me. I just become the character.”
(अभिनय क्यों करो? पात्र ही क्यों नहीं बन जाते? मैं अभिनय नहीं कर सकता, मैं बस पात्र बन जाता हूँ)

नए कलाकारों के साथ में काम करने के वक़्त हम सबसे पहले ये कहानी उन्हें सुनाते ही हैं. एक मँजे हुए और नए लोगों में अंतर एक एटीट्यूड का होता है, मानसिकता का.

जब लोग कविता पाठ ख़त्म करते हैं और ‘कट’ की आवाज़ आती है. कैमरा बंद हो जाता है. और अभिनेता की निग़ाह डायरेक्टर की ओर जाती है. एक प्रश्न भरी निग़ाह. ‘मैंने ठीक किया?’

इस पर भी हमारा तयशुदा जवाब है. ‘आपने ठीक किया? अगर आपको लगा कि जो शब्द और भावनाएँ आप पढ़ रहे हैं उन्हें अंदर से भी महसूस कर रहे हैं क्या? अगर आपने वह प्यार, वह खोखलापन, वह वासना, वह वाँछना महसूस की है जो इन पन्नों में थी तो बस हो गया. अगर आपने अभिनय किया है तो एक बार फिर से करते हैं.. ‘

इस प्रोजेक्ट पर काम करके बहुत कुछ सीखने को मिला है और सिलसिला ज़ारी है. एक अभिनेता को सबसे पहले अपनी सारी परतें उतारनी पड़ती हैं. तभी कोई नयी परतें ओढ़ी जा सकती हैं. नए लोग अपना बड़ा सा टूल-बॉक्स ले कर आते हैं तो सबसे पहले उन्हें उससे छुटकारा दिलाना होता है.. फिर टूल-बॉक्स वापस पकड़ाना होता है. एक बड़े क्रू के साथ लोगों के लिए आसान नहीं था अपने आपको नग्न करना – पूरी तरह बेनक़ाब करना. इसलिए धीरे-धीरे हम छोटे, और छोटे क्रू के साथ आ गए. बहुत रोना-धोना होता है हर कविता को शूट करने में. जो मँजे हुए कलाकार हैं वे भावनाओं में बह के रो देते हैं. जो नए हैं वो कभी कभी गुस्से से, कभी एक हद से ज़्यादा एक्सपोज़ हो जाने पर. कई लोग दरवाज़ा पटक कर गए हैं कि पता नहीं अपने आपको क्या समझता है लेकिन बहुत से वापस भी आये हैं. कुछ सालों बाद बताते हैं कि अरे हमसे क्या निकलवा लिया, कभी सालों बाद समझ में आता है कि वाह, ये क्या दे गए.

आसान सी पंक्तियाँ प्रस्तुत करना ज़्यादा मुश्किल होता है. ‘एक राजा था, और एक उसकी रानी थी..’ इसे शूट करने वाले दिन सौरभ शुक्ला जी ने बहुत से आँसू बहाये, पता नहीं कितनी सिगरेट और चाय पी गयीं. अभिनय के विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकते हैं इससे.

अब अभिनय का विद्यार्थी कौन है? कब सीखना बंद करता है एक कलाकार? इस बात पर एक क़िस्सा सुनाता हूँ: सुरेखा सीकरी ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की एक नज़्म पढ़ी है ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग’. जब उसे मनोज बाजपेयी को भेजा तो उनका जवाब यह आया: ‘वाह कितना कुछ सीखने मिला इससे!’

हम सब विद्यार्थी हैं. ताउम्र रहें तो बेहतर है. जिसे लगता है उसने सब कुछ सीख लिया उसने अपने आपको बाँध लिया. ऐसा बच्चे समझते हैं. जो गुरु लोग हैं वो हमेशा सीखते रहते हैं.

“You know as a director what you want, but the film is smarter than you, the film says no, the film says there’s something more here.”
~ John Cassavetes

लीजिये अभिनय के विद्यार्थी सौरभ शुक्ला की एक पेशकश
भवानी प्रसाद मिश्र की एक कहानी (कविता) – ‘सन्नाटा’
लिंक:

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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