Placeholder canvas

इक इश्क़ की कहानी !

क्या प्रेम हर जगह एक सा होता है? क्या सभी एक सी गहराई (और ऊँचाई) से प्यार कर पाते हैं? सुनिए सरदार जाफ़री की एक नज़्म नग़मा सहर की ज़ुबानी!

जैसे कि होता है वैसे हो गया.
जैसे लगता है वैसे लग गया कि ‘इश्क़ है’.

मेरा मतलब, ‘शायद’ इश्क़ है.
मतलब, इश्क़ ‘सा’ है,
अरे नहीं, मेरा कहना है कि इश्क़ ही है.

ये इश्क़ होता है?
या लगता है इश्क़ हुआ है?

इश्क़ की पहली मुलाक़ातें..
लव-मैरिज के तीन साल बाद का इश्क़..
सत्तर साल के उनका और अढ़सठ की उनका का इश्क़
मीठी, सत्रह की झुनका का इश्क़
छब्बीस के चन्दर का इश्क़

क्या प्रेम हर जगह एक सा होता है?
क्या सभी एक सी गहराई (और ऊँचाई) से प्यार कर पाते हैं?
उसके बिना रह न पाना प्यार है?
उसका दुःख अपनाना प्यार है?
क्या दोनों एक दूसरे को दुःख का इमोशनल डोज़ नहीं देते?

इस बात पर प्यार के मनोविज्ञान को दर्शाता जॉन एलिया का एक शे’र समाअत फ़रमायें  –

“तुम मेरा दुःख बाँट रही हो, मैं दिल में शर्मिंदा हूँ
अपने झूठे दुःख से तुमको, कब तक दुःख पहुँचाऊँ मैं”

कई उस्ताद लोग दिल खोल के वाहवाही देंगे इस शे’र को!

चचा ग़ालिब भी बड़बड़ा के गए हैं कि ठीक है भई ‘इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही’.

शायद यही कुछ लगा होगा उसे भी जब एक दिन वो पधारीं और यूँ ही बेख़याली से तलब कर लिया कि क्या कर रहे थे.

‘कुछ नहीं, यूँ ही बैठा था तुम्हारी और अपनी चाय बना कर और तुमसे बातें कर रहा था’
उसने हँस के कहा, ‘सच कहो न क्या कर रहे थे?’

‘तुमसे बातें!’

‘कौन सी?’

‘वही जो अभी हो रही हैं’

‘हा हा.. आर्टिस्टिक बन रहे हो’

‘नहीं रोमैंटिक’

‘अच्छा ठीक है रोमैंटिक सही’, वो शोखी से हँसी, ‘इसलिए बातें बना रहे हो’

‘बातें बना नहीं कर रहा था. तुमसे. तुम थीं.’

‘फिर मेरी चाय का क्या हुआ?’ चेहरा सपाट हुआ.

‘ओह वो.. वो तो मैंने पी ली. अपनी भी, और तुम्हारी भी.’

ऐसी बहुत सारी बातें हमारे बीच आये दिनों होती रहीं….

अपने गाँव का एक चक्कर मार कर आया, वो मिली तो उसे बताया कि उसके साथ ही गया था.
वो ऑफ़िस में थी तो उसे फ़ोन पर बताया कि वो मेरे साथ सब्ज़ियाँ ख़रीद रही है.
कैसे उसके न होते हुए उसने माथे पर बाम लगाया था. कैसे हम दोनों ने एक गाना लिखा था.
वक़्त गुज़रा…जुनून गुज़रा…

जाते हुए उसने कहा कि…

‘जाना तो नहीं चाहती लेकिन जा रही हूँ क्योंकि तुम्हें मेरी ज़रुरत ही नहीं है’

मेरा समझाना नाकाम रहा… कि उसी की वजह से हर मौसम, हर गाने, हर काम में रस आ रहा है, हर ख़याल भा रहा है, वक़्त अब रक्स करता जा रहा है.

‘तुम अपनी फैंटेसी में रहते हो, मैं हक़ीक़त में.’ उसकी आँखें गीली थीं और हाथ ठण्डे..

उस ज़माने में सरदार जाफ़री की यह नज़्म मेरे जीवन में होती तो उसे ज़रूर सुनाता –

तुम नहीं आये थे जब, तब भी तो मौजूद थे तुम
आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत
दर्द की लौ की तरह, प्यार की ख़ुशबू की तरह
बेवफ़ा वादों की दिलदारी का अन्दाज़ लिये..

NDTV की नग़मा सहर ने बड़े दिल से इसका पाठ किया है, उन्हीं की ज़ुबानी सुनिए 🙂  


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X