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100 साल पुराना है ‘केसर दा ढाबा’, लाला लाजपत राय और पंडित नेहरू भी थे जिसके मुरीद

Kesar Da Dhaba

स्वर्ण मंदिर से लगभग 800 मीटर की दूरी पर, चौक पस्सियां की तंग गलियों में स्थित है 100 साल पुराना ‘केसर दा ढाबा’। दाल मखनी और राजमा चावल जैसे असली पंजाबी स्वाद के लिए तो यह मशहूर है ही, पर क्या आप इसका रोचक इतिहास भी जानना चाहेंगे?

खाओ-पीयो ऐश करो मित्रों! अब आप सोचेंगे की आज हमें हुआ क्या है? हम क्यों इस पंजाबी गीत के बोल आप तक पहुँचा रहे हैं? तो बात कुछ ऐसी है कि आज हम आपको एक ऐसे ढाबे के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके व्यंजनों का लुत्फ़ उठा कर, आप खुद को यह गीत गाने से रोक नहीं पाएंगे। अब तक तो आपको अंदाजा हो ही गया होगा कि हम किसी पंजाबी ढाबे से ही आपको रू-ब-रू करवाने जा रहे हैं। स्वर्ण मंदिर (श्री हरमंदिर साहिब) से लगभग 800 मीटर की दूरी पर, चौक पस्सियां की तंग गलियों में, सौ साल पुराना एक ‘केसर दा ढाबा’ (Kesar Da Dhaba) है।

काबिल-ए-गौर है कि यह ढाबा आज भी वैसा ही दिखता है, जैसा सौ साल पहले दिखता था। यह ढाबा एक जमाने में, लाला लाजपत राय, पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसी हस्तियों का पसंदीदा ढाबा माना जाता था। यहाँ मौजूद लकड़ी की बेंच तथा मेज आदि देख कर, आपको पुराने जमाने की एक झलक मिलेगी। लोग जितना इसे अपने नाम के लिए जानते हैं, उतना ही इसे अपने घी से लबालब लजीज पंजाबी व्यंजनों के स्वाद के लिए भी जानते हैं।

हालांकि, ‘केसर दा ढाबा’ की शुरुआत अमृतसर की गलियों से नहीं, बल्कि पाकिस्तान के शेखपुरा से हुई थी। इसे मूल रूप से 1916 में लाला केसर मल और उनकी पत्नी, पार्वती ने शुरू किया था। जहाँ वे अपने ग्राहकों को रोटी के साथ दाल मखनी या माह की दाल परोसते थे। 1947 में भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद, दंपति ने ढाबे को अमृतसर में खोलने का फैसला किया।

यह ढाबा, आज भी दिल खुश करने वाली अपनी दाल मखनी के लिए मशहूर है। इस दाल को बनाने के लिए, काली दाल, लाल राजमा, क्रीम और ताजा मक्खन के एक सही मिश्रण को लगभग 8 से 12 घंटों के लिए तांबे के बर्तन में रात भर पकाया जाता है। इसे बनाने की विधि के बारे में यूँ तो लोग अक्सर बहुत सी बातें करते हैं। लेकिन, इसकी सटीक विधि को मौखिक तौर पर ही, पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपा गया है।

पंजाबी संस्कृति और विरासत को सहेजने वाले इस ढाबे में हर रोज़, सैंकड़ों ग्राहक इन लजीज पकवानों का आनंद लेने आते हैं। पंजाबी में कहें तो, ‘लोकी एत्थे रज्ज के, रल-मिल के, स्वाद नाल रोटी खांदे ने..’, जिसका अर्थ है, लोग यहाँ बहुत प्यार से, एक साथ मिलकर, पूरे स्वाद के साथ खाना खाते हैं। इस ढाबे को अगर पंजाबियों की रसोई कह दें, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

यहाँ तैयार होने वाले स्वादिष्ट व्यंजनों की खुशबू से आप खुद को इन्हें खाने से रोक ही नहीं पाएंगे। करारी-खैरी, घी से सराबोर गर्म तंदूरी रोटियों का जायका, मक्खन से भरे गर्म-मुलायम लच्छे पराठे, ताम्बे के बड़े से बर्तन में उबलती हुई माह की दाल की जबरदस्त खुशबु, छोटी-छोटी सिकोरियों (earthen bowl) में दूध और चावल से बनी स्वादिष्ट पारंपरिक मिठाई फिरनी पर सजी चांदी की वर्क, सलाद की सुगंध और पंजाबियों की जान कही जाने वाली ठंडी-ठंडी, ताजा-ताजा मलाईदार लस्सी से भरे बड़े-बड़े ग्लास आदि देख कर, किसी के भी मुँह में पानी आ जाये। ठीक वैसे ही, जैसे अभी आपके मुँह में आ रहा है। क्यों, सही कहा न हमने? तो देर किस बात की! आप भी उठायें इन स्वाद से लबरेज व्यंजनों का लुत्फ़।

100 साल पुराने इस ऐतिहासिक केसर दा ढाबा की खुशबू पाने के लिए देखिये यह विडियो!

मूल लेख: उर्षिता पंडित

संपादन- जी एन झा

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