लोगों के ताने और पत्थर की मार खाकर भी इंजीनियर ‘अप्पा’ ने लिया 55 HIV+ बच्चों को गोद!

Engineer adopted HIV+ Kids

HIV+ बच्चों को गोद लेने की वजह से लोगों को लगता था कि महेश खुद HIV+ हैं। इसलिए वह जहाँ भी जाते उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता। लेकिन जब महेश को उनके काम के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो वही लोग उनके स्वागत में रेलवे स्टेशन पर पहुंचे।

र्नाटक स्थित बेलगाम के रहने वाले महेश जाधव अपनी इंजीनियरिंग के दूसरे साल में थे जब पहली बार उनकी मुलाक़ात रुपेश से हुई थी। महेश अपने एक दोस्त के जन्मदिन पर सरकारी अस्पताल गए थे ताकि वहां के गरीब मरीज़ों को फल बांट सकें। वहीं पर बच्चों वाले वार्ड में उन्होंने रुपेश को देखा और जब उन्हें पता चला कि रुपेश को एड्स है तो उन्हें बहुत हैरानी हुई कि 4- 5 साल के बच्चे को एड्स कैसे हो सकता है?

“इससे पहले तक हमें यही पता था कि एड्स ‘यौन संबंधों’ के कारण होता है, लेकिन उस दिन डॉक्टर ने हमें समझाया कि एड्स की बीमारी होने की सिर्फ यह एक वजह नहीं है। रुपेश को उसकी माँ से यह बीमारी आई और उसके पिता का भी इसी बीमारी में देहांत हो गया था,” महेश ने बताया।

उस दिन महेश और उनके दोस्तों को तो इस बीमारी के बारे में जागरूकता मिल गई। लेकिन आज भी हमारे देश में एड्स सिर्फ एक बीमारी नहीं है बल्कि यह एक ऐसा ठप्पा है जो लोगों को समाज से काट देता है। न जाने कितने ही एड्स के मरीज़ कभी खुलकर अपनी बीमारी के बारे में सामने नहीं आ पाते क्योंकि उन्हें पता है कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। ऐसा ही कुछ, रुपेश के साथ हुआ।

महेश आगे बताते हैं कि अपने कॉलेज के दिनों में उनका सरकारी अस्पताल में लगातार जाना होता था। क्योंकि वह और उनके दोस्त अक्सर ज़रूरतमंद मरीज़ों के लिए खाना, बिस्किट और फल जैसी चीजें लेकर जाते थे। वहीं पर दो साल बाद, साल  2010 में एक बार फिर उन्होंने रुपेश को देखा। उसकी माँ अपनी आखिरी सांसे गिन रहीं थीं और रुपेश बिल्कुल अकेला था क्योंकि उनके रिश्तेदारों ने उनसे हर संबंध खत्म कर लिया था। रुपेश की माँ के दुनिया से जाने के बाद, महेश और उनके दोस्तों ने रुपेश को एक सरकारी हॉस्टल में रखने का तय किया।

“बहुत मुश्किल से एक सरकारी अफसर के कहने के बाद रुपेश को हॉस्टल में दाखिल कराया जा सका। लेकिन इसके एक हफ्ते बाद ही मुझे सरकारी अस्पताल की कॉल आई, ‘महेश, तुम जल्दी आओ। रुपेश की हालत बहुत खराब है उसके पास मुश्किल से दो दिन हैं।’ मैं भागकर अस्पताल पहुंचा तो देखा कि रुपेश कुछ खा-पी नहीं रहा था, बात नहीं कर रहा था,” उन्होंने कहा।

सवाल यह था कि आखिर रुपेश फिर से अस्पताल कैसे पहुंचा? महेश को पता चला कि हॉस्टल प्रशासन ने रुपेश को रख तो लिया लेकिन उन्होंने उसकी बीमारी के बारे में सभी बच्चों को बता दिया था। उसके साथ बात करने, खाना खाने और खेलने तक के लिए कोई बच्चा नहीं आ रहा था। हॉस्टल के भेदभाव ने नन्हे रुपेश के मन को बहुत गहरी चोट दी और उसने खाना-पीना छोड़ दिया। महेश के देखकर उसने कई दिन बाद कुछ खाया और उसने बहुत प्यार से महेश से कहा, ‘भैया मुझे घर ले चलो।’

“कहीं न कहीं उसे भी लगने लगा था कि वह अब बचेगा नहीं और एक बार घर जाना चाहता था। मैंने डॉक्टर से अनुमति ली और दो दिन के लिए उसको अपने घर ले गया। घर पहुंचा तो काफी सवाल-जवाब हुए और घरवालों को भी मन में था कि एड्स है इस बच्चे को। पर उन्होंने स्थिति को समझा और सबसे ज्यादा मेरी माँ ने। मैं उसे दो दिन के लिए लाया था लेकिन कब दो हफ्ते बीत गए पता ही नहीं चला। जिस लड़के के लिए डॉक्टर ने कहा था कि बचेगा नहीं वह मेरे घर में हंस-खेल रहा था। दो हफ्ते में ही रुपेश मेरे घर का बच्चा बन गया,” महेश ने हंसते हुए कहा।

इसके बाद, महेश और उनके परिवार ने रुपेश को अपनाने का फैसला किया और उसे गोद ले लिया!

लेकिन यह कहानी यहाँ खत्म नहीं हुई बल्कि कहानी तो यहाँ से शुरू हुई है।

Social awareness on HIV
Mahesh Jadhav, founder of Mahesh Founation

अब होता यह है कि एक स्थानीय अखबार में महेश और रुपेश की खबर छप गई कि कैसे एक इंजीनियरिंग ग्रैजुएट ने एक HIV+ बच्चे को अपनाया है। रातोंरात महेश हीरो बन गए कि कितना अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे उनके बारे में लोगों को पता चलना शुरू हुआ, उनके दरवाजे पर हर रोज़ HIV+ बच्चों की दस्तक होने लगी।

“बेलगाम के आस-पास के इलाकों से बहुत से बच्चों को उनके रिश्तेदार और आस-पड़ोस वाले मेरे यहाँ भेजने लगे कि इनका कोई नहीं है। तुम इन्हें भी रख लो। यह अजीब तो था, लेकिन मैं इन बच्चों में किसी को भी वापस नहीं भेज पाया,” उन्होंने कहा।

देखते ही देखते उनका घर बच्चों का एक हॉस्टल जैसा बन गया। 6 महीने में 26 बच्चे आए और फिर एक साल होते-होते यह कुल 55 बच्चे हो गए। ये सभी बच्चे अनाथ थे और HIV+ होने की वजह से कोई भी रिश्तेदार उनकी ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता था।

महेश और उनका परिवार इन सभी बच्चों की देखभाल करने लगा। यह वह वक़्त था जब उनके घर में एक ही समय पर 60 से ज्यादा लोग रह रहे थे। लेकिन उन्हें कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। तकलीफ हुई तो बाहर के लोगों को और आस-पड़ोस वालों को। उन्होंने महेश के परिवार से हर तरह का संबंध खत्म कर लिया। लोग उन्हें ताने देते और इन बच्चों को अपने घर से बाहर भेज देने के लिए कहते।

कई बार महेश के खिलाफ पुलिस में शिकायतें की गईं लेकिन प्रशासन को पता था कि महेश जो कर रहे हैं वह तो कोई सरकारी हॉस्टल तक नहीं कर पा रहा। महेश बताते हैं कि जिला अधिकारी तक जब यह बात पहुंची तो उन्होंने महेश को सलाह दी कि वह एक संस्था रजिस्टर करवा लें। अगर रजिस्टर्ड संस्था होगी तो कोई भी उनके काम को गैर-क़ानूनी नहीं कह पाएगा।  यहाँ से नींव रखी गई महेश फाउंडेशन की, जो HIV+ बच्चों और अन्य पीड़ितों के हित के लिए शुरू की गई।

महेश ने अपने परिवार के साथ मिलकर तय किया कि वह बच्चों के लिए एक अलग जगह किराए पर लेंगे और वहां पर उनका हॉस्टल होगा। बहुत मुश्किलों के बाद उन्हें दो-तीन कमरों का एक घर मिला, जहां इन बच्चों को शिफ्ट कराया गया। इस सबके साथ, महेश ने अपने एक दोस्त के साथ मिलकर सॉफ्टवेयर कंसल्टेंसी फर्म शुरू की और वहां काम करते हुए वह बच्चों की भी देखभाल कर रहे थे।

HIV and Aids are not social taboo

“मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं थीं। घर ढूंढने निकला तो लोग तैयार ही नहीं होते थे। उन्हें लगता था कि उनकी इमारत को एड्स हो जाएगा। जैसे-तैसे उन्हें घर मिला और फिर समस्या थी इन बच्चों की पढ़ाई की। मैंने सरकारी स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराने की कोशिश की। लेकिन स्कूल प्रशासन ने बच्चों को दाखिला देने से मना कर दिया और फिर मुझे सरकारी अफसरों की मदद लेनी पड़ी,” उन्होंने बताया।

बच्चों को स्कूल में दाखिला तो मिल गया लेकिन वहां भी उनके साथ भेदभाव कम नहीं हुआ और हद तो तब हो गई जब बच्चों को ठीक परीक्षाओं से पहले स्कूल से निकाल दिया। महेश जब स्कूल में पहुंचे तो वहां उनके साथ काफी दुर्व्यवहार हुआ। उनके साथ मार-पीट की गई और कुछ प्रभावी लोगों ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया।

लेकिन उसी दिन इलाके के एसपी वहां के दायरे पर आए हुए थे। उन्हें जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने तुरंत महेश को रिहा कराया और उन्हें बिना FIR के गिरफ्तार करने के लिए पुलिस प्रशासन ने दोषियों को सस्पेंड किया। यह मामला राज्य के शिक्षा मंत्री तक पहुंचा और स्कूल प्रशासन के खिलाफ सख्त कार्यवाही की नौबत आ गई। लेकिन महेश ने इसे रुकवाया और कहा कि यह लोगों की गलती नहीं है, गलती जागरूकता की कमी की है।

इसके बाद, उन्होंने उसी स्कूल में दो घंटे का सेशन किया, जिसमें स्कूल के शिक्षकों, बच्चों के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता भी थे। इस सेशन में सभी को HIV से संबंधित बातों के बारे में जानकारी दी गई। उन्हें समझाया गया कि हमारे समाज को HIV+ लोगों के साथ संवेदनशील होने की ज़रूरत है।

पिछले आठ सालों में, महेश फाउंडेशन के बैनर तले, महेश ने लगातार इस तरह के सेशन किए हैं। जिनकी वजह से 38 हज़ार से भी ज़्यादा HIV+ लोगों को सरकारी अस्पतालों में रजिस्टर करवाया गया है। इनमें 2800 बच्चे भी शामिल हैं।

Engineer Adopted HIV+ Kids

समाज के डर और शर्म की वजह से यह लोग अस्पताल तक नहीं जाते चेक-आप के लिए और इस वजह से स्थिति और बिगड़ जाती है। सरकारी अस्पतालों में रजिस्ट्रेशन के बाद, उन्हें नियमित तौर पर मुफ्त में दवाइयां और इलाज की सुविधा मिलती है।

8-9 साल तक किराए के घर में रहने के बाद, महेश ने अपने बच्चों के लिए उनका खुद का घर बनाने की ठानी। उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन्हें सरकार की तरफ से हॉस्टल के लिए कोई मदद मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। वह कहते हैं कि प्रभावी लोग उनकी सराहना तो बहुत करते थे लेकिन कोई मदद के लिए आगे नहीं आया।

जहां उनके बच्चे रह रहे थे, उस जगह के लोगों ने भी उन्हें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि उनके इस काम की वजह से दो बार उनकी शादी टूट गई क्योंकि लड़की वालों का कहा गया कि इस लड़के को भी एड्स है।

“मेरे रिश्तेदारों और यहां तक कि कुछ दोस्तों ने भी मुझसे रिश्ता खत्म कर लिया था। लेकिन मेरी माँ और मेरा परिवार हमेशा मेरे साथ खड़े रहे। माँ ने ही फैसला किया कि हम अपने पैतृक घर को इन बच्चों के लिए हॉस्टल में बदल दें। मेरा परिवार एक किराए के घर में शिफ्ट हो गया और हमारे 5 हज़ार स्क्वायर फ़ीट में बने घर को तोड़कर हॉस्टल का काम शुरू  किया गया,” उन्होंने कहा।

कुछ अपनी बचत और कुछ क्राउडफंडिंग करके इमारत का निर्माण पूरा हुआ और बच्चों के लिए एक 4 मंजिला हॉस्टल तैयार किया गया। उन्होंने अपने इस हॉस्टल को नाम दिया- आशा किरण। इस हॉस्टल में 6 से 11 साल के बच्चों के लिए अपना प्राइमरी स्कूल भी बनाया गया- उत्कर्ष लर्निंग सेंटर।

अपना स्कूल शुरू करने के पीछे उनका उद्देश्य इन बच्चों के लिए ऐसा माहौल बनाना था, जहां कोई भेदभाव न हो। अच्छी बात यह है कि उनका यह स्कूल, समाज के गरीब तबके के बच्चों को भी मुफ्त में शिक्षा देता है। आज इस स्कूल में 85 बच्चे पढ़ रहे हैं।

उनके इस लर्निंग सेंटर की एक और खासियत है कि उन्होंने स्कूल में 20 किलोवाट की सोलर पावर ग्रिड इंस्टॉल कराई है। जिससे 150 कंप्यूटर, 180 एलइडी लाइट, और 4 एसी चलते हैं। साथ ही, यहां बाहर से पढ़ने आने वाले हर एक बच्चे के घर पर जाकर सबसे पहले HIV के बारे में बताया जाता है। उनके सारे संदेह दूर होते हैं और फिर वह अपने बच्चों को हमारे पास पढ़ने भेजते हैं।

Engineer Adopted HIV+ Kids

अपने बच्चों के साथ-साथ महेश अन्य HIV+ लोगों के लिए भी काम कर रहे हैं। उनके यहां आज 120 से भी ज़्यादा लोग काम करते हैं, जिनमें हॉस्टल की केयरटेकर दीदियां भी शामिल हैं। ये सभी लोग HIV+ हैं और महेश फाउंडेशन की मदद से अच्छी ज़िंदगी जी रहे हैं।

साथ ही, उनके हॉस्टल से 600 से भी ज़्यादा छोटे-बड़े बच्चे कुछ समय रहने के बाद अपनी पढ़ाई, नौकरी आदि की मंजिल की तरफ बढ़ चुके हैं। रुपेश आज 16 साल का है और नौवीं कक्षा में पढ़ रहा है। इन सभी बच्चों के लिए महेश उनके ‘अप्पा’ हैं।

साल 2017 में महेश जाधव को उनके काम के लिए राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रीय सम्मान’ से नवाज़ा गया। इस सम्मान के बाद, लोगों के नज़रिए में काफी बदलाव आया। वह बताते हैं कि जब वह सम्मान लेकर बेलगाम लौटे तो सैकड़ों लोग उनके स्वागत के लिए आए थे। जिन हाथों ने उन्हें कभी पत्थर मारे, वहीं उन्हें फूलों के हार पहना रहे थे।

won national award for child welfare

“उस दिन मुझे अहसास हुआ कि अच्छा काम आपको आपकी जगह और सम्मान ज़रूर दिलाता है। बस थोड़ा-सा धैर्य और संयम रखने की ज़रूरत होती है। उस समय लोगों को लगता था कि मेरी उम्र बहुत कम है यह सब काम करने के लिए। लेकिन बदलाव उम्र का मोहताज़ नहीं होता। 55 बच्चों की ज़िम्मेदारी बड़ी थी लेकिन एक दिन के लिए भी मेरे दिल में ख्याल नहीं आया कि मैंने कुछ गलत किया है। रुपेश को देखकर मेरा दिल गर्व से भर जाता है। आज उसकी वजह से मैं इतने लोगों की ज़िंदगी बदल पाया। इसलिए कभी भी कुछ अच्छा करने से पीछे मत हटो क्योंकि अच्छे काम का नतीजा एक दिन ज़रूर मिलता है,” उन्होंने अंत में कहा।

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अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ है और आप महेश जाधव से संपर्क करना चाहते हैं तो 7353767637 पर कॉल कर सकते हैं।

संपादन – अर्चना गुप्ता


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