लाल किले की प्राचीर पर फहराता तिरंगा कितना बुलंद मोटिफ है न हमारे लोकतंत्र का। नेहरू से मोदी तक के आज़ाद भारत के सफर का गवाह। यही वो ”किला-ए-मुबारक” है, जो आज़ादी की हुंकार भरने वाले 1857 के गदर के सिपाहियों को अंतिम मुग़ल बादशाह की इस रिहाइश तक ले आया था। इसके सामने फैले शाहजहानाबाद में गदर का रंगमंच सजा था।
हिंदुस्तान की करवटों का पूरा हिसाब-किताब रखने वाले लाल किले की दीवारों के उस तरफ कैसा था मुगलिया सल्तनत का रहन-सहन, इसे जानने की दिलचस्पी मुझे हर बार किसी इतिहासकार की उंगली थामकर दिल्ली शहर के सीने पर शान से खड़े इस भव्य किले की दीवारों के उस पार ले जाती है।
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हम इसके लाहौरी गेट से किले में प्रवेश करते हैं। लाहौर की दिशा में बना होने के कारण इसे लाहौरी गेट नाम दिया गया था। वैसे किले का मुख्य द्वार शुरू में अकबराबादी दरवाजा था (आगरा की दिशा में होने की वजह से इसे यह नाम मिला), बाद में यह दिल्ली दरवाजा कहलाया जाने लगा। इसके सामने पत्थर दो विशालकाय हाथियों की मूर्तियां थीं। कहते हैं औरंगजेब के ज़माने में इन्हें तोड़ दिया गया। आज जो मूर्तियां हम यहां देखते हैं, उन्हें 1903 में लॉर्ड कर्जन के आदेश पर बनवाया गया था।
नौबत खाने में बजता था संगीत
लाहौरी गेट से किले में घुसते ही आज जो मीना बाज़ार है, वह मुगलों के दौर में छत्ता चौक कहलाता था और इससे होते हुए नौबत खाना या नक्कारखाना पहुंचते हैं। यह लाल पत्थर से बनी दुमंजिला इमारत है, जिसकी ऊपरी मंजिल पर दिन में पांच बार ढोल-नगाड़े बजते थे, जो बदलते पहर का ऐलान करते थे। खास मौकों पर तो दिन भर इन्हें बजाया जाता था। 1909 में अंग्रेजों ने इस इमारत में एक संग्रहालय खोला, जो आज भी चल रहा है।
किले में संगीत का मुखतलिफ इंतज़ाम था और तानसेन के वंशज तानरस खान किले में संगीतकार, जो शाही खानदान को संगीत की तालीम भी देते थे। राग-रंग की पराकाष्ठा देखिए कि उस दौर में लाल किला गत खास तौर से तैयार की गई थी।
नक्कारखाने से होते हुए दीवान-ए-आम पहुंचा जाता है। इस मेहरराबदार भव्य गलियारे को तीन हिस्सों में बांटा गया है जहां बादशाह अपनी रियाया से मिलते थे। इस लाल पत्थर पर मूल रूप से संगमरमर के चूने का पलस्तर किया गया था जिससे यह संगमरमर जैसा दिखे और इन पर शानदार सजावट की गई थी। वक्त के थपेड़ों को झेलते-झालते चूना जगह-जगह से झड़ चुका है और लाल पत्थर उखड़ आया है। इसी गलियारे के आखिरी हिस्से में विशालकाय, सिंहासन है जिसे तख्त-ए-शाही कहा जाता है। संगमरमरी तख्त-ए-शाही की नक्काशी देखने लायक है। सिंहासन को अब एक ग्लास बॉक्स में रखा गया है इसलिए इसे चारों तरफ से घूमकर देखा नहीं जा सकता। बस यहीं काम आती है विरासत की सैर। पिछली सैर में इतिहासकार राणा सफवी ने बताया कि सिंहासन के पीछे की दीवार पर एक जड़ाऊ ऑर्फियस पैनल लगा है जिसे एक इटालियन ज्यूलर ने तैयार किया था।
दीवान-ए-आम के पीछे कुछ बेहद खास इमारतें हैं जो दरअसल, मुगलाई जिंदगी की बानगी पेश करती हैं। सबसे प्रमुख है संगमरमर में ढला दीवान-ए-खास जहां बादशाह खास लोगों से मुलाकात करते थे। इसके खंभों पर कीमती पत्थरों और नगों को बेहद बारीकी से जड़ा गया था, लेकिन अब ज्यादातर पत्थरों का कोई नामोनिशान तक बाकी नहीं है। मशहूर तख्त-ए-ताऊस भी इसी कक्ष में था।
ख्वाब जैसा था ख्वाबगाह का इंतज़ाम
दीवान-ए-खास की दायीं ओर तस्बीह खाना, ख्वाबगाह, बड़ी बैठक, इम्तियाज़ महल और मुमताज़ महल हैं। तस्बीह खाना में बादशाह इबादत करते थे और ख्वाबगाह उनका शयनकक्ष था। बादशाह के इन निजी कक्षों में महल की औरतें रहा करती थीं और बादशाह के अलावा कोई और मर्द यहां नहीं आ सकता था। किले के इस हिस्से की सुरक्षा का दारोमदार किन्नरों और महिला पहरेदारों पर था।
मुगल बादशाहों, शहज़ादों-शहज़ादियों को सुलाने के लिए ख्वाबगाहों में किस्से-कहानियां सुनाते थे दास्तानगो। पैर दबाने के लिए तैनात रहतीं चप्पेवालियां। रोशनदानों और आलों में फूलों और कपूर से किया जाता था खुश्बुओं का इंतज़ाम। दरवाज़ों पर मोहक महक वाली खसखस की चिकों से उठती रहती थी भीनी-भीनी सुगंध। मौलसरी, चंपा, चमेली और ज़र्द फूलों को खुश्बुओं के लिए सिरहाने रखा जाता था। छतों पर पंखे तन जाते, जिन्हें पानी से भिगोया जाता और रात भर कारिंदे पंखा झलते।
हमाम की भव्यता के आगे आधुनिक स्पा-ज़कुज़ी भी फीके
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बायीं तरफ खड़ी है हमाम की इमारत जिसे एएसआई (भारतीय पुरातत्वविज्ञान सर्वेक्षण) ने अब तालाबंद कर दिया है। हमाम के अंदर आधुनिक दौर के स्पा-ज़कुज़ी जैसा इंतज़ाम था, यमुना के पानी को हमाम तक पहुंचाने के लिए बनी खास नालियां। स्टीम बाथ और सॉना से काया को दुलारने के बंदोबस्त थे। मालिश के इंतज़ाम किए गए थे और शाही परिवार के छोटे बच्चों के लिए तो बेंच तक लगायी थीं जिन पर उन्हें लेटाकर मालिश की जाती थी। बादशाह और उनकी बेगमें गर्मियों में इसी हमाम में लंबा वक्त बिताया करते थे।
मॉनसूनी फुहारों की मस्तियां
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एक ज़माना हुआ, जब दिल्ली में बारिश की झड़ी लगती, तो सात-आठ दिन से पहले बादलों की घेराबंदी नहीं हटा करती थी। मानसूनी फुहारों का लुत्फ लेने के लिए किले में सावन-भादो नाम के दो चबूतरे भी बनवाए गए थे। ये चबूतरे किले के बाग-ए-हयात बख़्श में थे। नज़दीक ही एक तालाब है, जिसमें चांदी के फव्वारे लगे थे और नहरों से होते हुए जब इन फव्वारों से पानी गिरता तो कुछ-कुछ मॉनसूनी नज़ारा दिखता। तालाब के बीचों-बीच लाल पत्थर जफर महल है, जिसे आखिरी बहादुर शाह ने बनवाया था। उस वक्त की रंगीनियों, बहारों की याद दिलाता यह महल अब गुज़रे वक्त की यादों को अपने सीने में दबाए चुपचाप खड़ा है।
रमज़ान की रौनकों के तो क्या कहने
सेहरी और इफ्तार के वक्त तोप दागी जाती थी। दिन चढ़ने के साथ ही शाहजहांनाबाद के बाज़ारों की रौनकों का दीदार देखते ही बनता था। और सूरज ढलने पर बादशाह खुद इशारा करते थे, जिसे देखकर कारिंदा एक झंडा हिलाता और तोप दागी जाती, जो रोज़ा खत्म होने की सूचना हुआ करती थी। अज़ान की गूंज सुनाई देती और मम्का के सूखे खजूरों के साथ रोज़ा खोला जाता। फिर दस्तरख्वान बिछ जाते जिन पर तरह-तरह के शरबतों की बहार होती। फलूदा, नींबू पानी, दही बड़े और लौंगचीरा से लेकर कबाब, रोटियां, मिठाइयां सज जातीं।
वैसे आम दिनों सजने वाला दस्तरख्वान भी आम नहीं होता था। अपने सिरों पर भोजन की टोकरियां धरे औरतें बैठक की तरफ आतीं और एक से दूसरी के हाथों होते हुए शाही भोजन सजता। पहले सात फुट लंबा और तीन फुट चौड़ा चमड़े का एक बड़ा टुकड़ा ज़मीन पर बिछाया जाता और इस पर झक् सफेद कपड़ा बिछता, जिसके ऊपर लकड़ी की मेज रखी जाती। अब इस पर फिर से चमड़े और कपड़े का मेजपोश डलता। इस मेज पर बर्तनों और व्यंजनों की रेल-पेल रहती। बादशाह सलामत और उनकी बेगमों, शहज़ादों-शहज़ादियों के लिए किस्म किस्म की रोटियां (चपाती, परांठा, रोग़नी रोटी, बेसनी रोटी, खमीरी रोटी, शीरमल, कुल्चा, बकार खानी, बादाम की रोटी, गाजर की रोटी, चावल की रोटी, मिसी रोटी, नान गुल्ज़ार, नान कीमश, नाम तिनकी), पुलाव (यखनी पुलाव, मोती पुलाव, नूर महली पुलाव, नुक़्ती पुलाव, नरगिसी पुलाव, किशमिश पुलाव, फालसाई पुलाव, सुनहरी पुलाव, रूपहली पुलाव, कोफ्ता पुलाव, शोला खिचड़ी, तहरी, ज़र्दा मुज़फ्फर वगैरह), कोरमा, दोप्याज़ा, हिरन का कोरमा, मुर्ग का कोरमा, मछली से लेकर दही के व्यंजनों में बुर्रानी, रायता, ककड़ी की दोग, खीरे की दोग की भरमार रहती। और फिर होते हलवे, फल, मिठाइयां। ये सब जिस कक्ष में परोसे जाते उसे केवरे, केसर और कस्तूरी से महकाया जाता। हर कटोरे-बर्तन को ढककर रखा जाता ताकि मक्खी-मच्छर न गिरे। भोजन करने के बाद हाथ धुलवाने के लिए चांदी के बर्तन लिए कारिंदे रहते जो खुश्बूदार साबुनों से हाथ धुलवाते। हाथ-मुंह-नाक पोंछने के लिए रुमाल-तौलिए लिए कारिंदे अलग से तैनात रहते।
त्योहारों की रंगीनियों और मुशायरों की गूंज से गुलज़ार लाल किला
हालांकि बहादुरशाह जफर सिर्फ कागज़ी बादशाह रह गए थे और अंग्रेज़ों की पेंशन पर जिंदा थे, लेकिन लाल किले की रौनकें उस दौर में भी कम नहीं हुई थी। दिल्ली मर रही थी मगर गालिब, दाग, जौक, शाह नसीर और मोमिन जैसे शायरों को भरपूर पोस रही थी। फनकारों, कलाकारों को बादशाह का भरपूर समर्थन मिलता था और यही वो दौर था जब बीन नवाज़ (बीन वादक) शाह नसीर वज़ीर और सितारवादकों मिर्ज़ा काले, मिर्ज़ा गौहर के चर्चे ज़माने में थे। खुद बादशाह भी तो सूफी, रहस्यवादी, शायर, खुशनवीस (कैलीग्राफर) थे।
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मशहूर इतिहासकार राणा सफवी कहती हैं – ”किला-ए-मुबारक की परिकल्पना शाहजहांनाबाद के मध्य में अष्कोणीय फूल की तरह की गई थी। बहिश्त की कल्पना के मुताबिक इस किले में नहरों और बाग-बगीचों को साकार किया गया था। कभी मुग़लों की सत्ता का केंद्र रहा किला आज अपने बीते दौर की छाया भर है।”
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