इंजीनियरिंग छात्रों ने पास बह रहे गटर से बनायी गैस, चाय वाले की आमदनी की चौगुनी!

जहाँ सभी छात्र नाले की बदबू के कारण नाक-भौं सिकोड़ कर सिर्फ़ शिकायतें करते थे, वहीं अभिषेक ने इस नाले को एक आविष्कार के अवसर के तौर पर देखा।

साल 2013 में कानपुर से आए अभिषेक वर्मा ने ग़ाज़ियाबाद के इंद्रप्रस्थ इंजीनियरिंग कॉलेज के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में दाखिला लिया।

यहाँ उनके हॉस्टल के बगल से एक बड़ा और खुला सीवर बहता था, जिसे सब लोग सूर्यनगर नाला के नाम से जानते हैं और यह छात्रों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था।

जहाँ सभी छात्र नाले की बदबू के कारण नाक-भौं सिकोड़ कर सिर्फ़ शिकायतें करते थे, वहीं अभिषेक ने इस नाले को एक आविष्कार के अवसर के तौर पर देखा।

अभिषेक वर्मा

 

बचपन से ही अभिषेक को विज्ञान में रूचि थी। अक्सर वे बिजली के यंत्रो को खोलकर, उसके काम करने के तरीके को समझने की कोशिश करते, तो कभी कोई खराबी हो जाने पर उसे ठीक करने के नए समाधान खोजने में लग जाते थे |

इसलिए जब एक दिन उन्होंने सूर्य नगर नाले के गंदे पानी से झाग और गैस के बुलबुले निकलते देखा, तो उन्हें सीवर के भीतर होने वाले कार्बनिक कचरे के अपघटन की प्रक्रिया के बारे में याद आया।

उन्होंने तुरंत अपने साथ पढ़ने वाले एक दोस्त, अभिनेंद्र बिंद्रा को इस बारे में बताया। इन दोनों छात्रों ने गैस का सैंपल इकट्ठा किया  औरआईआईटी दिल्ली में परीक्षण के लिए भेज दिया।

जब लैब ने इस सैंपल पर गैस क्रोमोटोग्राफी टेस्ट किया, तब उन्हें पता चला कि नाली से निकलने वाली इस गैस की संरंचना गोबर गैस या बायो-गैस से मिलती जुलती है और इसमें 65 प्रतिशत मीथेन होने के कारण यह ज्वलनशील भी है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए, अभिषेक कहते हैं , “मेरे दिमाग में तुरंत यह विचार आया कि कैसे एक ऐसा सिस्टम तैयार करें, जिससे इस गैस के प्रभाव को कम किये बिना, इसे निकालकर रोज़मर्रा के कामों के लिए इस्तेमाल किया जा सके?”

इन दोनों ने इस प्रोटोटाइप पर काम करना शुरू कर दिया और तय किया कि निकाले गए गैस से, पास में ‘रामू टी-स्टाल’ चलाने वाले शिव प्रसाद की मदद करेंगे।

सारे शोध हो जाने के बाद, जून 2014 में इन दोनों ने पहली बार शिव प्रसाद की ‘रामू टी-स्टॉल पर अपने इस आविष्कार का प्रदर्शन किया। स्थानीय मीडिया ने इसे ‘गटर गैस’ का नाम देकर इस प्रणाली की काफ़ी प्रशंसा की। इसने एलपीजी पर निर्भरता हटाकर रामू के चाय के ठेले की आय पहले की आय से चार गुना अधिक बढ़ा दी।

गटर गैस से चुल्हा जलाकर चाय बनाकर दिखाते हुए अभिषेक

यह कैसे काम करता है?

जब इन्होंने पाया कि इस नाले से 60-70 प्रतिशत मीथेन गैस निकलती है, तब उन्होंने 6 ड्रम का एक सेट लिया। इन ड्रमों को एक अलग केस में रखा गया और फिर लोहे के बैरिकेड से जोड़कर खुले नाले में डुबो दिया।

इससे ड्रमो के अन्दर गैस इकट्ठा होने लगी और जैसे- जैसे गैस का दबाव बढ़ा, इससे ड्रम ऊपर की ओर उठने लगे। इस गैस को लोहे की पाइपों की मदद से निकाला गया, जो कि स्टोव से जुड़े हुए थे। एक वाल्व की मदद से आप गैस को आवश्यकता अनुसार इस्तेमाल कर सकते हैं।

इस छः यूनिट सिस्टम की लागत केवल 5000 रुपये थी और इससे एक बार में 200 लीटर गैस को निकाला जा सकता था।
जहाँ एक ओर कुछ ग्राहक गटर गैस के प्रयोग को लेकर संशय में थे, वहीं दूसरी ओर चाय के स्वाद और गुणवत्ता में कोई कमी न आने से शिव प्रसाद का व्यवसाय बढ़ता गया। कचरे से निकलती यह गैस बिलकुल मुफ्त थी, इसलिए शिव प्रसाद की लागत अब कम हो  थी और आय ज्यादा।

‘रामू टी-स्टॉल’ से पहले जहाँ शिव प्रसाद एक महीने में 5000 रुपये तक कमाया करता था, वहीं अब वह इतनी रकम सिर्फ एक हफ्ते में कमाने लगा था।

शिव प्रसाद की ‘रामू टी स्टॉल’, जहाँ अब गटर गैस से जलता है चुल्हा

 

अभिषेक और अभिनेन्द्र ने इस परियोजना का प्रदर्शन गाज़ियाबाद डेवलपमेंट अथॉरिटी (GDA) के सामने भी किया, जिसने इस प्रस्ताव को यह कह कर स्वीकृति नहीं दी कि यह प्रणाली असुरक्षित है और किसी दुर्घटना का कारण बन सकती है।

इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद ये दोनों अपनी-अपनी राह पर चल दिए। पर अभिषेक ने इस परियोजना को कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने इस सिस्टम को बाज़ार में बेचने के लिए ‘पीएवी इंजिनियर’ नामक एक एलएलपी फर्म की स्थापना की।

 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 10 अगस्त, 2018 को विज्ञान भवन, दिल्ली में ‘वर्ल्ड बायोफ्यूल डे’ पर अपने भाषण में ख़ास तौर पर अभिषेक के इस आविष्कार का उल्लेख किया।

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अभिषेक बताते हैं, “ प्रधानमंत्री द्वारा इस तकनीक का उल्लेख करने के बाद, पूरे देश के लोग इसे अपनाने के लिए आगे आने लगे। इससे आम लोगों में भी इसके बारे में जागरूकता फैली है।

2013 के बाद, अभिषेक ने इस सिस्टम में  कुछ ऐसे बदलाव लाने की कोशिश की, जिनसे आम लोगों को इसे इस्तेमाल करने में परेशानी न हो।

“मेरा लक्ष्य एक ऐसे सिस्टम को विकसित करना था, जिसे लगाना और रखना आसान हो। मैं चाहता था कि इसमें निवेश भी बहुत ज्यादा न हो। पहला प्रोटोटाइप बनाये हुए हमे छः साल हो गए और वह आज तक सही तरीके से काम कर रहा है। नए मॉडल में जो  बदलाव लाये गए हैं, उससे यह 7-10 वर्षों तक चल सकता है।”

इस प्रणाली के फायदे के बारे में पूछे जाने पर ये बताते हैं,
“ इसे आप एलपीजी की जगह इस्तेमाल कर सकते है। इसे चलाने के लिए बिजली भी नहीं लगती और यह मीथेन को ऐसे प्राकृतिक इंधन में बदलता है, जिसे खाना बनाने या गाड़ियों के लिए इंधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। इससे बहुत हद प्रदुषण भी कम किया जा सकता है।”

वे आगे बताते हैं, “कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले मीथेन का ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में 70 प्रतिशत अधिक योगदान है। तो इसे बेहतर बनाने और रीसायकल करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? सीवर से निकली इस गैस को खाना पकाने के लिए एलपीजी या गाड़ी चलाने के लिए सीएनजी के के बदले प्रयोग किया जा सकता है।”

जब इस तरीके से बनाये गैस की मांग बढ़ने लगी तब अभिषेक ने इसे आसानी से कहीं भी ले जाने योग्य बनाने के बारे में  सोचना शुरू किया।

“अब हर किसी के लिए संभव नहीं कि वो नाली के पास अपना स्टाल खड़ा कर ले। इसलिए हमने निर्णय लिया कि इस गैस को हम 5 किलो के सिलिंडर में डालेंगे, जिससे इसे कहीं भी ले जाना आसान हो जाए।”

अभिषेक के मुताबिक़ इस गैस को इस्तेमाल करने से पहले प्युरिफाय करना बहुत ज़रूरी है। बाज़ार में ऐसे मीथेन गैस प्यूरीफायर उपलब्ध है, फिर भी अभिषेक की टीम इस पर भी काम कर रही है।

एक बार फिर अभिषेक के मौजूदा सिस्टम की जांच के बाद अब गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण भी इसको आगे बढ़ाने के लिए उनके काम कर रही है।

अभिषेक का मानना है कि इस सिस्टम को बड़े पैमाने पर लागू करना ज़्यादा फायदेमंद होगा, क्यूंकि ऐसा करने से 70 प्रतिशत अधिक गैस निकाला जा सकता है।

अंत में भविष्य के बारे में बात करते हुए अभिषेक ने कहा, “भारत में मेरे जैसे कई इनोवेटर्स हैं, जो लगातार कुछ नया और बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, पर इनके पास ऐसा कोई मंच नहीं है, जहाँ ये अपनी प्रतिभा को दिखा सके। इन्हीं लोगों के लिए मैं ऐसा ही मंच तैयार करना चाहता हूँ, जिससे वे अपनी तकनीक को भारत के उन लोगों तक पहुंचा पाए, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।”

अभिषेक से आप +91-8588004943 पर बात कर सकते हैं, या abhishek.verma2156@gmail.com. पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच 

मूल लेख – जोविटा अरान्हा


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