इस चायवाले ने जंगल के बीचो-बीच खोली लाइब्रेरी, पैदल पहुंचकर पढ़ने लगे लोग!

इस पुस्तकालय का नाम ‘अक्षर’ रखा गया। यहाँ एक रजिस्टर में पढ़ने के लिए दी गई पुस्तकों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा। पुस्तकालय की सदस्यता एक बार 25 रुपए दे कर या मासिक 2 रुपए दे कर ली जा सकती थी।

ज के समय में किसी भी शहर या गाँव में पुस्तकालय का होना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन केरल के इदुक्की ज़िले के जंगलों के बीच बसे कस्बे एडमलक्कुडी में रहने वाले आदिवासी मुथुवान जाति के लोगों के लिए अपने आस-पास पुस्तकालय का होना एक सपने जैसा था।

वर्ष 2010 में यहाँ दो चीज़ें हुईं – पहला, एडमलक्कुडी केरल का पहला ऐसा कस्बा बना जहां आदिवासी ग्राम पंचायत का गठन हुआ और दूसरा, इस कस्बे के इरिप्पुकल्लु क्षेत्र के एक छोटी-सी चाय की दुकान पर एक पुस्तकालय की स्थापना की गई।

शायद यह दुनिया का एकमात्र पुस्तकालय है जो एक ऐसे वन क्षेत्र के बीचोंबीच है जहां सिर्फ पैदल ही पहुँचा जा सकता था। हालांकि, इस साल मार्च में पहली बार जीप से एडमलक्कुडी तक पहुँचना संभव हुआ है।

पहली बार यहाँ जीप आई

160 पुस्तकों से आरंभ हुए इस पुस्तकालय की शुरुआती कहानी दो व्यक्तियों के योगदान और समर्पण के इर्द-गिर्द घूमती है। एक हैं चाय की दुकान के मालिक पीवी छिन्नाथमबी और दूसरे हैं शिक्षक पीके मुरलीधरन। मुरलीधरन मुथुवन जाति के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं। दो दशक पूर्व इन्होंने एडमलक्कुडी को अपना घर इसलिए बना लिया था, ताकि यहाँ बसे आदिवासियों को शिक्षित कर सकें।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए इन्होंने उस घटना का ज़िक्र किया, जिसके कारण इन्होंने ऐसी जगह पुस्तकालय की नींव रखी।

मुरली माश, जैसा कि यहाँ के स्थानीय लोग इन्हे बुलाते हैं (मलयालम में माश शिक्षक को कहते हैं), याद करते हुए बताते हैं, “मेरे एक मित्र उन्नी प्रसन्त तिरुअनंतपुरम में आकाशवाणी और रेडियो एफएम में काम करते हैं। 2009-2010 के बीच हमसे मिलने वह एडमलक्कुडी आए। वह छिन्नथंबी की झोपड़ी में रुके थे और तभी हमने यहाँ शिक्षा कि स्थिति और पढ़ने की आदतों पर चर्चा की। उसी समय पहली बार पुस्तकालय बनाने का विचार आया।”

इन्होंने बताया कि इस चर्चा के कुछ महीने बाद उन्नी अपने मित्र और केरला कौमुदी के उप-संपादक बी आर सुमेश के साथ 160 किताबें लेकर आए, जिन्हें इन्होंने खुद इकट्ठा किया था।

ये बताते हैं, “हम सबने इन किताबों को लिया और कई कस्बों को पार करते हुए एडमलक्कुडी के लिए चल पड़े। हमने इरुप्पुकल्लु में पुस्तकालय खोलने के बारे में सोचा, लेकिन हमारे पास इसके लिए कोई बिल्डिंग या कोई और जगह नहीं थी। इसी समय छिन्नथंबी ने आगे बढ़ कर अपनी चाय की दुकान में पुस्तकालय खोलने की पेशकश की।”

छिन्नथंबी की सोच सरल थी। मुरली माश बताते हैं, “लोग इनकी दुकान पर चाय और नाश्ते के लिए आते और या तो यहाँ किताब पढ़ते या कुछ समय के लिए पैसे दे कर किताबें ले जाते। जल्द ही हमारा पुस्तकालय लोकप्रिय हो गया और अधिक से अधिक लोग इस दुकान में न सिर्फ चाय पीने, बल्कि किताबें पढ़ने के लिए आने लगे।“

इस पुस्तकालय का नाम ‘अक्षर’ रखा गया। यहाँ एक रजिस्टर में पढ़ने के लिए दी गई पुस्तकों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा। पुस्तकालय की सदस्यता एक बार 25 रुपए दे कर या मासिक 2 रुपए दे कर ली जा सकती थी।

छिन्नथंबी

दिलचस्प बात यह थी कि यहाँ सामान्य पत्रिकाओं या लोकप्रिय उपन्यासों को जगह नहीं दी गई थी, बल्कि यहाँ सिलप्पठीकरम जैसी उत्कृष्ट राजनीतिक कृतियों के अनुवाद और मलयालम के प्रसिद्ध रचनाकारों जैसे वाईकोम मुहम्मद बशीर, एमटी वासुदेवन नायर, कमला दास, एम मुकुंदन, लालिथम्बिका अंठरजनम की कृतियाँ रखी गई थीं।

गुमनाम-सी जगह पर स्थित इस पुस्तकालय के बारे में दुनिया को तब पता चला, जब पी. साईनाथ के नेतृत्व में पत्रकारों के एक समूह ने एडमलक्कुडी का दौरा किया।

ये बताते हैं, “उनके लिए ‘कातिल ओरु’ पुस्तकालय या ‘एक जंगल में बसा पुस्तकालय’ एक ऐसी चीज़ थी, जिसके बारे में इन्होंने कभी सुना नहीं था और ये इस पुस्तकालय के विस्तार के लिए छिन्नथंबी की मदद करना चाहते थे। इनमें से एक पत्रकार केए शाजी ने इस पर फेसबुक पोस्ट डाल दिया, जिससे 1000 किताबों के लक्ष्य के साथ पुस्तकों का संग्रह अभियान चला। इसके साथ ही मंगलम के संपादक आईवी बाबू ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर इन पुस्तकों की सुरक्षा के लिए एक अलमारी दान की।“

इसके पहले छिन्नथंबी इन किताबों को जूट के बोरे में रखते थे, जिसका इस्तेमाल सामान्यत: चावल या नारियल रखने के लिए किया जाता है। हालांकि, सारी पुस्तकों को अलमारी में भी रखना संभव नहीं था। इसलिए इन्हें अलग-अलग बक्से में रखा जाने लगा।

छिन्नथंबी हमें बताते हैं कि लाइब्रेरी की स्थापना के 1 दशक के बाद भी पंचायत द्वारा जिस धनराशि व पुस्तकालय के निर्माण के लिए संसाधनों का वादा किया गया था, उसके लिए इन्हें कोई सहयोग नहीं मिल पाया है।

साल 2012 में अपनी चाय की स्टॉल पर छिन्नथम्बी द्वारा इकट्ठा की गयी किताबें (स्त्रोत: पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया)

ये दुखी हो कर कहते हैं, “हमें बताया गया था कि 50,000 रुपए की धन राशि स्थानीय निकाय को आवंटित कर दी गयी है। जब पुस्तकालय कि स्थापना हुई थी, तब पंचायत द्वारा इसे जारी रखने के लिए हमसे जो वादे किए गए थे, वो आज तक पूरे नहीं किए गए। शुरुआत में अपनी दुकान में इन पुस्तकों की देखभाल करना आसान था, पर मैं इस उम्र में ये कब तक कर पाऊँगा।“

वर्तमान में, छिन्नथंबी अपनी पत्नी की बीमारी के कारण आदिमली में हैं और हमसे बात करने के लिए कम समय ही निकाल पाए। मुरली माश ने हमें बताया कि छिन्नथंबी के स्वास्थ्य में भी गिरावट आ रही है।

ये बताते हैं, “इतनी किताबों की देखबाल करना छिन्नथंबी के लिए मुश्किल हो रहा था। जून 2017 में हम इसे स्कूल में ले गए और वहाँ पुस्तकालय की स्थापना की। हमने इसका नाम ‘अक्षर’ ही बरकरार रखा है।” मुरली माश आगे बताते हैं कि पुस्तकालय को बनाए रखने और इतने सालों तक चलाते रहने में स्थानीय समुदाय के लोगों का बहुत बड़ा योगदान है।
ये इसका अधिकतर श्रेय जी राजू को देते हैं जो स्कूल के पेरेंट्स टीचर एसोसिएशन (पीटीए) के अध्यक्ष हैं।

आखिर में इन्होंने कहा, “ये एडामलक्कुडी के कुछ बड़े बुज़ुर्गों में से हैं, जिन्होंने किस्मत से उच्च विद्यालय तक की पढ़ाई पूरी की है और इसलिए पुस्तकालय का महत्व समझते हैं। पीटीए के साथ ही इनका व्यवहार सहयोगपूर्ण रहा है।”

हमारे जैसे शहर में रहने वालों के लिए शायद पुस्तकालय का उतना महत्व न हो, पर एडमलक्कुडी जैसे दूरस्थ कस्बे में रहने वालों के लिए यह बाकी दुनिया से जुड़ने का साधन तो बन ही रहा है और इसका श्रेय छिन्नथंबी और मुरली माश जैसे लोगों को जाता है।

अगर आप छिन्नथंबी की मदद करना चाहते हैं तो 8547411084 पर इनसे संपर्क कर सकते हैं!


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मूल लेख: लक्ष्मी प्रिया 
संपादन: मनोज झा

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