एक दक्षिण अफ्रीकी पायलट और युवा जेआरडी टाटा की सोच का परिणाम है भारत का एयरलाइन सेक्टर!

उद्योगपति जे. आर. डी टाटा और दक्षिण अफ्रीकी पायलट नेविल विंसेंट द्वारा साल 1932 में शुरू की गई टाटा एयर सर्विसेज, देश भर में मेल और यात्रियों को ले जाने वाली पहली प्राइवेट एयरलाइन थी और आज आप इसे एयर इंडिया की पूर्वज भी कह सकते हैं।

ब भी हम भारत के एविएशन सेक्टर की बात करते हैं, तो सबसे पहला नाम हमारे दिमाग में आता है, वह है जे. आर. डी टाटा (JRD Tata  का। साल 1932 में शुरू की गई उनकी टाटा एयर सर्विसेज, देश भर में डाक और यात्रियों को ले जाने वाली पहली प्राइवेट एयरलाइन थी और आज आप इसे एयर इंडिया की पूर्वज भी कह सकते हैं।

हालांकि, टाटा के आलावा, एक और व्यक्ति हैं जिनका भारत की प्रारंभिक एयरलाइन सर्विसेज में अहम योगदान रहा, लेकिन उनके बारे में हमने बहुत कम ही सुना है।

और यह शख्स थे नेविल विंसेंट, जिन्होंने ब्रिटिश एयर फ़ोर्स में पायलट के तौर पर काम किया और उन्होंने ही एयर इंडिया की नींव रखी थी। टाटा ने भी विंसेंट को ही “भारतीय वायु परिवहन का संस्थापक” माना है ।

JRD Tata
जेआरडी टाटा (बाएं) और नेविल विंसेंट (दायें)

कई बार बताया जाता है कि उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान RAF को अपनी सेवाएँ दीं, तो कुछ लोग मानते हैं कि उनकी नियुक्ति प्रथम विश्व युद्ध के चार साल बाद हुई थी ।

इसी के साथ, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्वी क्षेत्र जैसे मिस्र, कुर्दिस्तान, जॉर्डन और इराक में भी साल 1926 तक सर्विस की। इसके बाद उन्होंने तय किया कि सिविल एविएशन के बेहतर अवसर दक्षिण एशिया में हैं।

RAF में उनकी सेवा के लिए, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें प्रतिष्ठित फ्लाइंग क्रॉस और ऑर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर (OBE) से सम्मानित किया।

विंसेंट बहुत ही साहसी व्यक्ति थे। आरएएफ छोड़ने के तुरंत बाद, उन्होंने भारत, बर्मा और दक्षिण-पूर्व एशिया का हवाई सर्वेक्षण करना शुरू किया। इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप से ब्रिटिश स्ट्रेट के बीच प्रथम हवाई जहाज मेल उड़ाने के अलावा, उन्होंने मलक्का और सिंगापुर के लिए भी सेवाएँ दीं।

साल 1928 में उन्होंने कैप्टन जे. एस. नेवॉल के साथ यूनाइटेड किंगडम से भारत तक की उड़ान पूरी की। यह इतिहास की सबसे लम्बी दूरी की उड़ानों में से एक मानी जाती है। विंसेंट और नेवॉल, दोनों ने ही भारत में दो, ‘दे हैविलैंड डीएच 9’ हवाई जहाज उड़ाए और यहाँ सिविल एविएशन की संभावनाओं को देखते हुए, विंसेंट ने भारत में ही बसने का फ़ैसला किया।

जिस साल विंसेंट ने इस फ्लाइट को उड़ाना शुरू किया, उसी वर्ष उन्हें ख़बरें मिली कि भारत में व्यवसायिक एयरलाइन इंडस्ट्री शुरू होने के अच्छे अवसर हैं। उन्होंने सुना था कि ब्रिटिश इंपीरियल एयरवेज (ब्रिटिश एयरवेज के प्रेरक) एशिया भर में, ऑस्ट्रेलिया के लिए एक अंतरराष्ट्रीय मेल और यात्री सेवा शुरू कर रहे थे, जबकि डच कैरिएर, केएलएम और एयर फ्रांस, इंडोनेशिया और वियतनाम में अपनी सेवाएँ शुरू करने की प्रक्रिया में थे।

भारत में प्रतिबंध की वजह से, ये विमान कंपनिया डाक और यात्रियों को कराची (अब पाकिस्तान) में छोड़ देती थीं। जहाँ से इन्हें रेल यातायात के माधयम से भारत में लाया जाता था। यह बहुत-ही असुविधाजनक प्रक्रिया थी और इसमें काफ़ी समय बर्बाद होता था।

इसे विंसेंट ने एक अच्छे बिज़नेस अवसर के रूप में देखा और यहाँ घरेलु एयरमेल सेवा के बारे में सोचा, जो कि कराची में उतारे गए मेल और यात्रियों को, यहाँ से 24 घंटे के भीतर भारतीय उपमहाद्वीप के गंतव्य स्थानों तक पहुँचायेगा।

लेकिन विंसेंट के पास वित्तीय/आर्थिक साधन नहीं थे और इसलिए वे भारत के जाने-माने उद्योगपतियों के पास पहुँचे।इसकी शुरुआत उन्होंने मशहूर पारसी व्यवसायी सर होमी मेहता से की। पर मेहता ने इस विचार में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन मेहता ने उन्हें टाटा से बात करने का सुझाव दिया। जेआरडी के चाचा, सर दोराबजी टाटा, उस समय टाटा समूह के अध्यक्ष थे। दोराबजी को भी विंसेंट के इस प्रोजेक्ट में कोई खास रूचि नहीं आई।

पर उस समय उनके 24-वर्षीय भतीजे जेआरडी टाटा को विंसेंट का विचार काफ़ी पसंद आया, क्योंकि उन्होंने खुद एक पायलट लाइसेंस प्राप्त किया था और उन्होंने दोराबजी को एविएशन कंपनी के लिए मनाने में विंसेंट की मदद की।

इस तरह, साल 1932 में 2 लाख रुपये के शुरुआती लागत के साथ, ‘टाटा एविएशन सर्विसेज’ अस्तित्व में आई। उन्होंने 2 छोटे विमान खरीदे, जो 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से उड़ते थे। ये विमान खासतौर पर डाक और ज़्यादा से ज़्यादा सिर्फ़ 1 यात्री के साथ उड़ान भरते थे। पहले कराची से मुंबई जाते और फिर मद्रास के लिए रवाना होते थे।

उसी साल अप्रैल में टाटा एविएशन सर्विसेज ने काफ़ी विचार-विमर्श के बाद कराची से डाक भेजने के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ 10 साल का अनुबंध किया।

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जेआरडी टाटा अपनी एयरलाइन के साथ

जुलाई, 1932 में सिंगापुर में द स्ट्रेट टाइम्स से बात करते हुए, जेआरडी टाटा ने कहा था, “हालांकि, इतने कम समय में सर्विस शुरू करना चिंता का विषय रहेगा, लेकिन जल्द ही व्यावसायिक जगत… इसकी सराहना करेगा और इसका इस्तेमाल भी करेगा और कंपनी को लाभ भी मिलेगा।”

पायलट रेलमार्ग का अनुसरण करेंगें और अगर फिर भी कोई परेशानी होती है, तो वे नक्शा देख सकते हैं, जो उन्हें हमेशा अपने साथ रखना होगा।

विंसेंट को इस नए व्यवसायिक एविएशन वेंचर का मुख्य पायलट बनाया गया। हालांकि, उन्होंने बहुत-सी चुनौतियों का सामना किया। स्ट्रेट टाइम्स के अनुसार, “उनके विमानों में कोई वायरलेस उपकरण नहीं था, क्योंकि उस समय यह बहुत महँगा था और कंपनी के पास बहुत ज्यादा फंड्स नहीं थे। इसके अलावा कोई भी रात की फ्लाइट नहीं होती थी, क्योंकि भारत में रात की उड़ान के लिए पर्याप्त सुविधा उपलब्ध नहीं थी।“

जे. आर. डी. टाटा की जीवनी लिखने वाले, आरएम लाला ने “द जॉय ऑफ अचीवमेंट” नामक किताब में टाटा और विंसेंट, दोनों के बीच होने वाली बातचीत की एक सीरीज़ लिखी। किताब में, जेआरडी ने कहा, “वे (विंसेंट) बहुत ही असाधरण थे। एक बहुत अच्छे आदमी।… वे जानते थे कि इम्पीरियल एयरवेज एयरलाइन भारत में, कराची से आ रहा था, जो कि ऑस्ट्रेलिया की ओर पहला कदम था…. और ये दिल्ली और कोलकाता भी जायेंगें। पर फिर पूरा दक्षिण भारत इस सेवा से वंचित रह जायेगा और इसी पर काम करते हुए उन्होंने इस एयरलाइन को कराची से अहमदाबाद और फिर बॉम्बे से मद्रास के लिए उड़ान भरने का प्रस्ताव दिया।”

सितंबर, 1932 में भारी बारिश के चलते टाटा की पहली उड़ान एक महीने की देरी से शुरू हुई। इस ख़राब मौसम ने टाटा को मजबूर कर दिया और उन्होंने अपनी पहली उड़ान 15 अक्टूबर तक टाल दी।

आख़िरकार, जब यह फ्लाइट पहली बार कराची से उड़ी, तो उसमें 100 पौंड से भी अधिक डाक थी। (विन्सेंट को दूसरे चरण की उड़ान, बाम्बे से बेल्लारी होते हुए, मद्रास तक की भरनी थी)

ट्रेन से, कराची-बॉम्बे की दूरी को तय करने के लिए 45 घंटे लगते थे, लेकिन टाटा आठ घंटे से भी कम समय में जुहू पहुँचे, इस दौरान उन्होंने विमान को अहमदाबाद में रोक कर ईंधन से भरा और इस ईंधन को एक बैलगाड़ी के माध्यम से रनवे तक पहुँचाया जाता था। इस पर एक रिपोर्ट में न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि कैसे बॉम्बे (मुंबई) में पोस्टमास्टर खुद जुहू जाकर जे. आर. डी टाटा से डाक लेने के लिए आया था।

टाटा एयरलाइन्स का फाइल फोटो

उनकी एयरलाइन का सिद्धांत था, “आपका डाक खो सकता है लेकिन कभी देरी नहीं होगी; यात्रियों को देरी हो सकती है, लेकिन कभी खोएंगे नहीं।”

शुरू होने के पहले साल में, एयर मेल सेवा ने 155 यात्रियों के अलावा लगभग 10 टन डाक पहुँचाये और इसी के साथ उन्हें 60,000 रुपये का फायदा हुआ। एयरलाइन की सेवाओं को देखते हुए, इस उद्योग को शुरूआती सफलता मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

विशेष तौर पर, उनकी एयरलाइन को ख़राब मौसम होने के बावजूद अपनी समय की पाबंदी के लिए जाना जाता था।इतना ही नहीं, बल्कि नागरिक उड्डयन निदेशालय ने साल 1933 में बताया था कि ब्रिटिश इंपीरियल एयरवेज अपने कर्मचारियों को टाटा के यहाँ यह देखने के लिए भेजता था कि आख़िर ये लोग किस तरह से काम करते हैं।”

बाद के वर्षों में, एयरलाइन सेवा ने दिल्ली (इंदौर, भोपाल और ग्वालियर के रास्ते में रुकते हुए), गोवा, हैदराबाद और कोलंबो के लिए अपने परिचालन को बढ़ाया। बेहतर व्यवसाय के साथ इसका विस्तार हुआ, इसकी सेवाओं में सुधार हुआ और अधिक से अधिक यात्रियों को सवारी करवाई जाने लगी। आगे चल कर इसका नाम बदल कर टाटा एयरलाइन्स कर दिया गया।

साल 1934 में अपने चाचा के बाद, जे. आर. डी टाटा ने टाटा ग्रुप के अध्यक्ष का पद संभाला। लेकिन, उनकी रूचि एयरलाइन व्यवसाय में जरा भी कम नहीं हुई।

हालांकि, दूसरे विश्व युद्ध के बाद टाटा एयरलाइन्स के लिए सब कुछ बदल गया। ब्रिटिश सरकार ने इनके एयरक्राफ्ट की मदद सैनिकों को और उनकी आवश्यक चीजों को लाने-ले जाने के लिए मांगी। और इसे भी टाटा और विंसेंट ने एक अवसर के रूप में देखा।

उन्होंने निर्णय लिया कि एयरक्राफ्ट खरीदने की बजाय, अपने यहाँ ही निर्मित किया जाना बेहतर रहेगा। युद्ध पूरे ज़ोरों पर था और उन्होंने साल 1942 में ब्रिटिश सरकार के समक्ष ‘बॉम्बर एयरक्राफ्ट’ का पुणे स्थित टाटा ग्रुप के प्लांट में निर्माण करने का प्रस्ताव रखा।

हालांकि, ब्रिटिश सरकार से तो यह बनाने की स्वीकृति मिल गयी और टाटा ग्रुप ने इस पर काम शुरू किया। पर कुछ समय बाद ही, ब्रिटिश आरएएफ़ को ऐसे एयरक्राफ्ट की कोई जरूरत नहीं रही। बल्कि, उन्हें अब आक्रमण के लिए ग्लाइडर की आवश्यकता थी। इस घटना से टाटा ग्रुप को बहुत नुकसान हुआ। इसलिए, अपने प्रस्ताव पर दोबारा काम करने के लिए विंसेंट, तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के विमान उत्पादन मंत्री , लार्ड बीवरब्रूक से मिलने इंग्लैंड गये।

JRD Tata
15 अक्टूबर 1962 को बॉम्बे हवाई अड्डे पर ली गई प्रचार तस्वीर में जेआरडी टाटा, एयर इंडिया के बॉबी कूका के साथ खड़े हैं

इस बैठक के बाद, विंसेंट को इम्पीरियल एयरवेज से वापस लौटना था, जो कि उस समय, इंग्लैंड में चल रहे युद्ध के कारण, अपने निश्चित मार्ग से न जाकर दूसरे रास्ते से जाने वाला था। पर विंसेंट के पास इतना समय नहीं था और इसलिए वे आरएएफ के बॉम्बर एयरक्राफ्ट में बैठ गये, ताकि भारत जल्दी पहुँच सकें।

पर दुर्भाग्यवश, इस एयरक्राफ्ट को फ्रांस में ही बम से उड़ा दिया गया। जे. आर. डी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। विंसेंट के साथ मिल कर उन्होंने भारत में सिविल एविएशन के भविष्य से जुड़े कई सपने देखे थे और इस से भी ज्यादा, उन दोनों की दोस्ती बहुत गहरी थी।

विंसेंट सही मायनों में दूरदर्शी थे। उनकी सोच, अनुभव और उर्जा ने ही आगे चल कर टाटा को भारत के सिविल एविएशन सेक्टर में पहला कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। ये विंसेंट ही थे, जिन्होंने भारत में एविएशन सेक्टर का सपना सच किया और साथ ही, इस सेक्टर के सरकार के नियंत्रण में आ जाने पर होने वाले नुकसानों के बारे में भी आगाह किया था।

साल 1931 में, एयर एंड स्पेस मैगज़ीन में विंसेंट ने लिखा था, “अगर यह रास्ता राज्य द्वारा संचालित होगा, तो मैं कहना चाहूँगा कि यह निजी कंपनियों द्वारा दूसरे रास्तों पर चल रहे काम पर रोकेगा, क्योंकि वे कहेंगें कि उन्होंने जो काम पूरा कर लिया है, उससे वे मुनाफ़ा कमायेंगे।”

उन्होंने आगे लिखा, “मैं ये भी कहना चाहूँगा कि निजी कंपनियां, सरकार की अपेक्षा में ज़्यादा जल्दी एयरलाइन सेक्टर को विकसित कर सकती हैं, और इस से भारतीयों के लिए इस व्यवसाय में रोज़गार के नए अवसर खुलेंगे।”

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, टाटा एयरलाइन 19 जुलाई 1946 को एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गयी और इसका नाम भी बदल कर ‘एयर इंडिया’ कर दिया गया। सात साल बाद, भारत सरकार ने एयर इंडिया के राष्ट्रीयकरण की एक प्रक्रिया शुरू की, और टाटा समूह से इस एयरलाइन को अपने नियंत्रण में ले लिया ।

आज जिस आर्थिक परिस्थिति में यह एयरलाइन खड़ा है, उस से पता चलता है कि विंसेंट के साल 1931 में कहे गए शब्द किसी भविष्यवाणी से कम नहीं थे। वे सही मायनों में दूरदर्शी थे और उनकी दूरदर्शिता के बिना, भारत में एयरलाइन सेक्टर इतनी तेज़ी से विकसित नहीं हो पाता। और हमें उनके इस योगदान को याद रखना चाहिए।

संपादन: निशा डागर 
मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक 


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