अपना दर्द भूल कर, इस माँ ने केवल अपने बेटे को ही नहीं, बल्कि 71 बधीर बच्चों को बनाया सक्षम!

सुचिता और श्रीकांत बंसोड की स्वयं सेवी संस्था ‘एकविरा मल्टीपर्पस फाउंडेशन’ से आज 71 बधीर बच्चे नॉर्मल स्कूल में जा चुके हैं और फ़िलहाल यहाँ 55 बच्चों को ट्रेनिंग दी जा रही है।

“अंधापन हमें चीजों से काट देता है, लेकिन बहरापन हमें लोगों से दूर कर देता है!”
– हेलन केलर

महाराष्ट्र के अकोला में रहने वाले सुचिता और श्रीकांत बंसोड को जब पता चला कि उनका बेटा निखिलेश सुन नहीं सकता, तो उनका सबसे पहला डर यही था, कि निखिलेश चीज़ों से ही नहीं…लोगों से भी दूर हो जायेगा! पर फिर उन्होंने ठान लिया कि वे अपने या किसी के भी बधीर बच्चे के साथ ऐसा नहीं होने देंगे!

“जिस दिन हमें पता चला कि निखिलेश सुन नहीं सकता, उस दिन हम दोनों रात भर रोये थे, लेकिन अगले दिन सुबह हम दोनों ने तय किया कि अब कभी नहीं रोना है और इसे एक अच्छी ज़िन्दगी देने के लिए वह सब कुछ करना है, जो हम कर सकते है!” – सुचिता बंसोड

आज निखिलेश ने एनीमेशन में मास्टर डिप्लोमा कर लिया है और बैचलर ऑफ़ कंप्यूटर साइंस के तृतीय सेमेस्टर में है। यही नहीं सुचिता और श्रीकांत बंसोड की स्वयं सेवी संस्था ‘एकविरा मल्टीपर्पस फाउंडेशन’ से आज 71 बधीर बच्चे नॉर्मल स्कूल में जा चुके हैं और फ़िलहाल यहाँ 55 बच्चों को ट्रेनिंग दी जा रही है।

निखिलेश बंसोड

पर इन दोनों का यहाँ तक का सफ़र इतना आसान नहीं था…

“सुचिता उस वक़्त मायके में थी, निखिलेश लगभग 3 महीने का था, जब उसके पास रखा एक कांच का वास गिरकर टूट गया। बहुत ज़ोर से आवाज़ हुई थी पर वह नहीं जागा। यहीं से सुचिता को कुछ संदेह हुआ। जब हमने चेकअप कराया तो हमारा डर सही निकला,” श्रीकांत ने बताया।

श्रीकांत उस वक़्त अकोला में सरकारी नौकरी कर रहे थे और सुचिता भी एक कॉलेज में प्राध्यापक थीं। निखिलेश के बारे में पता चलते ही सुचिता ने अपना सारा वक़्त उसके साथ बिताने के लिए नौकरी छोड़ दी। पर यह काफ़ी नहीं था।

अकोला में ऐसी चिकित्सीय सुविधाएँ नहीं थी कि निखिलेश का सही इलाज हो पाता।

श्रीकांत बंसोड, नन्हे निखिलेश को गोद में लिए

ऐसे में श्रीकांत ने मुंबई ट्रांसफर लेने का फ़ैसला किया। शुरुआत के कुछ महीने इस नए शहर में सही चिकित्सा और सही मार्गदर्शन ढूंढने में ही लग गए। निखिलेश को प्रोफाउंड डेफनेस था, और काफ़ी समय भी बीत चूका था इसलिए ट्रेनिंग शुरू होने पर भी वह उस तरह की प्रतिकिया नहीं दे रहा था, जिसकी उम्मीद थी।

ऐसे में सुचिता ने खुद इस क्षेत्र में बी.एड करने की ठानी, ताकि वे निखिलेश को और बेहतर तरीके से समझ और सिखा सके।

बाएं से दायें – निखिलेश, श्रीकांत बंसोड, श्रीकांत की माँ और सुचिता बंसोड

 

“मैं उसकी सिर्फ़ माँ ही नहीं शिक्षक भी बनना चाहती थी। कई बार माँ के तौर पर आप अपने बच्चे का दर्द नहीं देख पाते और उसके साथ सख्ती नहीं कर पाते। पर जब आप एक शिक्षक बन जाते हैं, तो आपको पता होता है कि जो भी सख्ती आज आप कर रहे हैं, उसी से उसका आगे का जीवन बनेगा,” सुचिता कहती हैं।

प्रोफाउंड डेफनेस होने से कोई भी हियरिंग एड उसकी सुनने में मदद न कर सका इसलिए शुरुआत में उसने सांकेतिक भाषा ही सीखी। सुन न पाने की वजह से बच्चों में ध्यान की कमी हो जाती है और उनका व्यव्हार भी उत्तेजक हो जाता है। पर समय पर ट्रेनिंग शुरू कर देने से और श्रीकांत और सुचिता की कोशिशों से निखिलेश में परिवर्तन आने लगा। साथ ही मुंबई आकर बाद दर-दर भटकने के बाद, उन्हें कोक्लियर इम्प्लांट के बारे में पता चला, जिसे करवाने के बाद निखिलेश सुनने लगा और जल्द ही नॉर्मल स्कूल में जाने लगा।

निखिलेश के लिए सब कुछ पता करते हुए, श्रीकांत और ख़ासकर सुचिता इस बात से अवगत हो गए थे, कि बधीर बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए हर एक अभिभावक को कितना संघर्ष करना पड़ता है। वे नहीं चाहते थे कि जितना संघर्ष उन्हें करना पड़ा, या जानकारी न होने से जिस तरह उनके बेटे को समय पर मदद नहीं मिली, ऐसा किसी और के साथ हो।

“ज़्यादातर अभिभावक शुरुआत में इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पाते कि उनके बच्चे में कोई कमी है। उन्हें लगता है कि समय के साथ सब ठीक हो जायेगा। कई बार वे पूजा-पाठ या झाड़-फूंक के चक्कर में भी पड़ जाते है। पर यह एक ऐसी समस्या है, जिसका जितनी जल्दी इलाज शुरू होता है, उतनी ही जल्दी बच्चा मुख्यधारा से जुड़ पाता है,” श्रीकांत ने बताया।

मुंबई में तो सभी सुविधाएँ उपलब्ध थी, जिससे निखिलेश बहुत अच्छे से आगे बढ़ पाता, पर श्रीकांत और सुचिता केवल अपने बच्चे को ही नहीं, बल्कि उन सभी बच्चों के लिए कुछ करना चाहते थे, जिनके माता-पिता अपने बच्चों की केवल इसलिए मदद नहीं कर पाते क्यूंकि या तो उनके पास साधन नहीं होते या तो सही जानकारी नहीं होती।

इसलिए उन्होंने वापस अकोला जाने की ठानी, ताकि इतने वक़्त में उन्होंने मुंबई में रहकर जो कुछ भी सीखा या समझा था वह वहां के लोगों को भी समझा सके।

“हमें पता था, कि हमारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत अकोला में है, जहाँ अभी भी निखिलेश जैसे बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं है और इस विषय में जागरूकता की सख्त ज़रूरत है। आख़िर हर किसी के लिए हमारी तरह मुंबई चले जाना भी तो संभव नहीं होता न,” श्रीकांत कहते हैं।

लगभग 6-7 साल मुंबई में बिताने के बाद बंसोड परिवार बधीर बच्चों को मुख्यधारा में लाने का सपना लिए अकोला लौट आया। यहाँ आकर सबसे पहले इन्होंने बधीर बच्चों के बारे में पता किया और उनके घर जाकर, उनके अभिभावकों से अपने बच्चों को उनके पास भेजने की गुज़ारिश की। शुरुआत में केवल दो-तीन बच्चे ही आये पर एक साल के भीतर ही इन बच्चों में बदलाव को देखते हुए 10-12 बच्चे और आने लगे।

साल 2008 में श्रीकांत ने इस संस्था का आधिकारिक तौर पर रजिस्ट्रेशन करा लिया और नाम दिया ‘एकविरा मल्टीपर्पस फाउंडेशन’!

जैसे-जैसे बच्चे बढ़ने लगे, श्रीकांत और सुचिता ने अपने 9 कमरों के मकान को ही स्कूल बना लिया और खुद परिवार समेत केवल एक कमरे में रहने लगे।

सुचिता और निखिलेश एकविरा मल्टीपर्पस फाउंडेशन के बच्चों के साथ

लोगों में जागरूकता तो फ़ैल रही थी पर अभी भी एक बाधा थी। अभी तक 4-5 साल का होने पर ही लोग अपने बच्चों को भेजते थे, जबकि श्रीकांत के मुताबिक एक साल का होने के पहले ही यदि बच्चों की ट्रेनिंग शुरू हो जाए, तो वे सही उम्र में नॉर्मल स्कूल में जा सकते है और उन्हें भेद-भाव का सामना नहीं करना पड़ता।

पर धीरे-धीरे कई कार्यक्रमों के द्वारा सुचिता और श्रीकांत ने यह बात अभिभावकों तक पहुंचाई। आज उनकी संस्था में 1.5 साल के बच्चे भी आते हैं, जिसे वे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं।

संस्था की सबसे बड़ी खासियत यह है कि थेरेपी के दौरान माता-पिता को पूरी तरह शामिल किया जाता है, जिससे उन्हें घर पर भी बच्चों को सिखाने में आसानी होती है। साथ ही यह ट्रेनिंग केवल पढ़ने-लिखने तक ही सिमित नहीं है, बल्कि  यहाँ गीत-संगीत, तबला वादन, नृत्य और चित्रकारी जैसी कलाओं से भी बच्चों का परिचय करवाया जाता है।

“निखिलेश के वक़्त हमें यह पता नहीं था कि उसे दूसरी कलाएं भी सिखाई जा सकती है। आख़िर, आपको तो नहीं पता होता न कि कौनसे बच्चे में क्या प्रतिभा है। पर इन बच्चों के लिए हमने यह सुविधा दी है, ताकि बचपन से ही उनकी छिपी हुई प्रतिभा को पहचान कर, उस पर और काम किया जा सके,” सुचिता ने बताया।

इसके अलावा, व्यहवारिक प्रशिक्षण, सामजिक संवेदना तथा बदलती टेक्नोलॉजी से भी उन्हें अवगत कराया जाता है।

सुचिता आज भी दिन 14 घंटे इन बच्चों के साथ बिताती हैं। यह उनकी लगन का ही नतीजा है कि उनकी संस्था से पढ़कर करीब 71 बच्चे नॉर्मल स्कूल में जा चुके है और 55 बच्चे अभी यहाँ पढ़ रहे हैं।

“जब कभी बच्चे यहाँ का कोर्स पूरा करके जाते हैं, तो जाते हुए एक स्पीच देते हैं। पहले दिन जो बच्चे अपनी माँ की गोद में दुबककर बैठे होते थे, न बोलते थे, न सुनते थे, उन बच्चों को एक पूरा स्पीच देते हुए सुनना, हमें हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि लगती है,” सुचिता भावुक होते हुए कहती है।

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