शानदार बास्केटबॉल खिलाड़ी इंशा बशीर को तो आप जानते ही होंगे और अगर नहीं जानते, तो हम आपको बताते हैं कि इंशा कौन हैं! आज वह बास्केटबॉल में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली जम्मू और कश्मीर की पहली महिला खिलाड़ी बन चुकी हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने से पहले उन्होंने जो दर्द झेला उसका अंदाज़ा लगा पाना भी हम आपके लिए मुश्किल है।
बात है साल 2009 की, सर्दियों का समय था, अल्सर और ओरल ब्लीडिंग से पीड़ित 12वीं कक्षा में पढ़नेवाली इंशा बशीर ने स्कूल से लौटकर अपने घर की बालकनी में धूप में बैठने का फैसला किया, लेकिन उल्टी महसूस हुई और फिर वह पीठ के बल ज़ोर से गिर गईं।
उस दिन से, वह छोटी बच्ची, हमेशा के लिए व्हीलचेयर पर आ गई। लेकिन यहीं से शुरू हुआ उनके बास्केटबॉल में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली जम्मू और कश्मीर की पहली महिला बनने तक का सफर। उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया, “गिरने के बाद जब मेरी आंखें खुलीं, तो मैं अस्पताल में थी। मुझे नहीं पता था कि क्या हुआ। मुझे कोई कुछ नहीं बता रहा था।”
इंशा को लगा कि सामान्य सी चोट है कुछ दिन में ठीक हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इंशा के अगले तीन महीने डॉक्टर्स और नर्सों की देखभाल के बीच, अस्पताल में ही बीते। तब तक इंशा को भी नहीं पता था कि उनकी दुनिया हमेशा के लिए बदलने वाली है। इस घटना ने उनकी कमर के नीचे के हिस्से को पैरालाइज़ कर दिया, जिससे वह पांच साल तक बिस्तर पर पड़ी रहीं।
”चमत्कार सिर्फ फिल्मों में होते हैं, असल जीवन में नहीं”- इंशा बशीर
डॉक्टर्स, इंशा को उम्मीद देते रहे। इंशा ने अपने माता-पिता को रोते देखा। धीरे-धीरे, उन्हें एहसास होने लगा कि शायद चीज़ें इतनी आसान भी नहीं हैं। लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं हारी थी। चमत्कार की उम्मीद में उन्हें मुंबई और दिल्ली तक ले जाया गया। लेकिन इंशा बशीर ने एक इंटरव्यू में कहा, ”चमत्कार सिर्फ फिल्मों में होते हैं, असल जीवन में नहीं।”
बहुत भाग-दौड़ और खुद हालातों से एक लंबी जंग लड़ने के बाद, साल 2012 में उन्हें पता चला कि वह फिर कभी चल नहीं पाएंगी। आगे चलकर डॉक्टर बनने की चाह और अपने पड़ोस में क्रिकेट खेलना पसंद करने वाली इंशा की दुनिया उजड़ सी गई। वह डिप्रेशन में चली गईं। अगले कुछ साल बहुत कठिन थे। उन्होंने खुद को एक कमरे तक सीमित कर लिया। वह किसी से बात नहीं करती थीं, उन्हें नहीं पता था कि अब आगे क्या करना है!
लेकिन कभी-कभी एक सदमे से बाहर निकलने में दूसरा सदमा मददगार बन जाता है, यही हुआ इंशा के साथ भी। साल 2015 में उनके पिता, पार्किंसंस सिंड्रोम से पीड़ित हो गए। उनके पिता की हालत ने उन्हें बुरी तरह हिला दिया। तभी उन्होंने हताशा को ठोकर मार आगे बढ़ने का फैसला किया।
वह रीहैब में गईं। श्रीनगर के बेमिना के वॉलंटरी मेडिकेयर सोसाइटी ने उन्हें सदमे से बाहर निकलने में मदद की। वहां उन्होंने अपने रोज़ के काम खुद से करना सीखा। उन्होंने जो समय वहां बिताया, उसने उन्हें आज़ाद महसूस करने में मदद की और उन्हें मानसिक रूप से मजबूत बनना सिखाया।
यह एक बहुत बड़ा बदलाव था, इतने समय तक अपने पिता पर निर्भर रहने के बाद, वह व्हीलचेयर का उपयोग करने और अपने दम पर बहुत कुछ करने में सक्षम थीं।
कैसे आया बास्केटबॉल खेलने का ख्याल?
धीरे-धीरे चीजें बेहतर होती जा रही थीं। एक दिन इंशा बशीर ने लड़कों के एक समूह को बास्केटबॉल खेलते देखा और उनके साथ खेलने का फैसला किया। सभी लड़कों में वह अकेली लड़की थीं। अवसाद के दौर से गुज़रने के बाद, वह फिर से ज़िंदगी से प्यार करने लगी थीं।
धीरे-धीरे वह जिला स्तर पर बास्केटबॉल खेलने लगीं, फिर राज्य और फिर 2019 में जब वह बास्केटबॉल टूर्नामेंट में खेलने के लिए यूएसए गईं, तो पहली बार भारत की जर्सी पहनी। वहां उनकी सफलता और शानदार खेल को देख तत्कालीन केंद्रीय खेल मंत्री किरेन रिजिजू ने उन्हें एक स्पोर्ट्स व्हीलचेयर गिफ्ट की। उस तोहफे ने मानों उन्हें उड़ने के लिए पंख दे दिए।
इंशा नोएडा, उत्तर प्रदेश में आयोजित व्हीलचेयर इंटरनेशनल बास्केटबॉल टूर्नामेंट में भाग लेने वाली भारतीय टीम का भी हिस्सा थीं, उनकी टीम ने रजत पदक जीता था।
उन्होंने आगे कश्मीर विश्वविद्यालय से बीएड, दिल्ली विश्वविद्यालय से सोशल वर्क में मास्टर्स किया और फिलहाल श्रीनगर में वालंटरी मेडिकेयर में वालंटियर के तौर पर काम कर रही हैं।
अब इंशा, ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली कश्मीरी बनना चाहती हैं। पैरालिंपिक में भारत के लिए खेलना उनका सपना है।
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