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नानी पालकीवाला : वह वकील, जिनकी वजह से आज आपकी बुनियादी ज़रूरते हैं आपके ‘मौलिक अधिकार’!

नानाभोय 'नानी' अर्देशिर पालकीवाला एक भारतीय जूरिस्ट थे, जिन्होंने संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के महत्व के बारे में हमेशा चर्चा की। उनका जन्म 16 जनवरी, 1920 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में हुआ था। वे अमेरिका में भारतीय राजदूत के पद पर भी रहे।

भारत के संविधान को बनाने में पूरे 2 साल, 11 महीने और 18 दिन का समय लगा। वैसे तो संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ, पर लागू 26 जनवरी 1950 को हुआ। शायद इसी दिन भारत सही मायनों में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बना। इसलिए इस दिन को ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

इतने सालों में हमारे संविधान में समय-समय पर कई संशोधन भी होते आये हैं, पर अगर कुछ नहीं बदला है, तो वह है संविधान की ‘रूह,’ जो भारत देश के हर एक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा आदि जैसे मौलिक अधिकार देती है।

‘भारतीय संविधान के जनक’ बाबा साहेब आंबेडकर ने भारतीय संविधान को जिस अस्मिता और गरिमा से गढ़ा, उसे बनाये रखने के लिए हमारे देश में बहुत से न्यायधीश, वकील और न्यायविदों ने खुद को समर्पित किया है। ऐसे ही एक वकील और न्यायविद थे नानी पालकीवाला, जो भारत के आम लोगों की आवाज़ बने।

नानी पालकीवाला को आज भी न्यायालयों के गलियारों में भारत के संविधान और इसके नागरिकों के अधिकारों का रखवाला कहा जाता है।

आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए, आम नागरिकों के अधिकारों की पैरवी करने वाले विख्यात वकील नाना पालकीवाला की अनसुनी कहानी!

नानी पालकीवाला

नानाभोय ‘नानी’ अर्देशिर पालकीवाला एक भारतीय वकील थे, जिन्होंने संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के महत्व के बारे में हमेशा चर्चा की। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए उनके तर्कों ने सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक की दीवारें हिला दी थीं।

पालकीवाला का जन्म 16 जनवरी, 1920 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में हुआ था। हमेशा से ही पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाले पालकीवाला युवावस्था में हकलाते थे। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हकलाने वाला यह बच्चा एक दिन भारत के न्यायालयों में बिना रुके ऐसी-ऐसी दलीलें देगा कि बड़े-बड़ों की भी बोलती बंद हो जाएगी।

उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज से इंग्लिश में मास्टर्स की। इसके बाद उन्होंने लेक्चरर के पद के लिए बॉम्बे यूनिवर्सिटी में आवेदन किया था। हालांकि, वह नौकरी किसी और को मिली। ऐसे में निराश होने की बजाय पालकीवाला ने आगे और पढ़ने की सोची और बॉम्बे के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में कानून की पढ़ाई के लिए आवेदन दिया।

उन्होंने अपनी डिग्री पूरी की और साल 1946 में बार में शामिल हो गये। उन्होंने प्रसिद्ध जमशेदजी बेहरामजी कंगा के साथ काम करना शुरू किया। बतौर असिस्टेंट उनका पहला केस ‘नुसरवान जी बलसारा बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे’ था जिसमें बॉम्बे शराबबंदी कानून को चुनौती दी गयी थी। उन्होंने जमशेदजी के साथ मिलकर ‘द लॉ एंड प्रैक्टिस ऑफ इनकम टैक्स’ किताब का सह-लेखन भी किया।

साल 1950 तक उन्होंने खुद पैरवी करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे उनके मुकदमों के ज़रिये लोग उन्हें जानने लगे। हालांकि, अपने करियर का एक महत्वपूर्ण मुकदमा उन्होंने साल 1954 में लड़ा।

1954 में नानी पालकीवाला ने एंग्लो-इंडियन स्कूल बनाम महाराष्ट्र सरकार केस में पैरवी की थी। इस केस में बहस के दौरान उन्होंने संविधान की धारा 29 (2) और 30 का हवाला दिया, जिनके तहत अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा की गयी है। हाई कोर्ट से सरकार के ख़िलाफ़ आदेश पारित करवाकर पालकीवाला जीत गए। राज्य सरकार इस मसले को सुप्रीम कोर्ट तक ले गयी, लेकिन वे वहां भी जीत गए। कुछ ही सालों में वे इतने मशहूर हो गए उनकी दलील और पैरवी सुनने के लिए कोर्ट रुम में भीड़ जमा होती थी।

‘नानी पालकीवाला: ए रोल मॉडल’ के लेखक मेजर जनरल निलेन्द्र कुमार के अनुसार, पालकीवाला ने अपने करियर में 140 महत्वपूर्ण मुकदमे लड़े थे। टैक्स और कॉर्पोरेट मामलों में नानी पालकीवाला को महारत हासिल थी, पर वे हमेशा ही जनता की आवाज़ बने।

नानी पालकीवाला के लिए ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ केस शायद उनकी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण केस था। इस मुकदमे को भारतीय संविधान की रूह को अक्षुण रखने वाला सबसे महान मामला कहा जाता है।

संविधान के अपने पहले संशोधन के माध्यम से, संसद ने संविधान की नौवीं अनुसूची को जोड़ा था, जिसके तहत कुछ कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थे। जवाहरलाल नेहरू सरकार ने इन्हें  इसलिए संविधान में जोड़ा था ताकि न्यायपालिका उनके भूमि सुधारों में हस्तक्षेप न कर पाए।

पर उस समय भी ‘सम्पत्ति का अधिकार’ मौलिक अधिकार था और जब सरकार ‘भूमि सुधार’ अभियान पर काम कर रही थी, तो कई बार उन्हें न्यायालयों की चौखट पर आना पड़ा। और इन सभी मुकदमों में कोर्ट ने नागरिकों के पक्ष को ऊपर रखा।

हालांकि, इस बार मामला केरल के कासरगोड जिले में एक मठ चलाने वाले स्वामी केशवानंद और राज्य सरकार के बीच था, जो भूमि सुधार एक्ट के नाम पर उनकी ‘संपत्ति के प्रबंधन’ पर प्रतिबंध लगवाना चाहती थी। ताकि, स्वामी केशवानंद के पास उसकी सम्पत्ति का कोई अधिकार न रहे।

इस केस में पालकीवाला ने स्वामी का बचाव करते हुए, उन्हें आर्टिकल 26 के अंतर्गत मुकदमा दायर करने के लिए कहा क्योंकि कोई भी सरकार उनकी धार्मिक संपत्ति के सञ्चालन में अवरोध नहीं लगा सकती है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट की स्पेशल बेंच ने फ़ैसला सुनाया, “अनुच्छेद 368 (जो संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार देता है) संसद को संविधान की मूल संरचना या रूपरेखा को बदलने का धिकार नहीं देता।”

इसी निर्णय ने “मूल संरचना” सिद्धांत को जन्म दिया, जिसके साथ अन्य प्रावधानों के साथ आम नागरिकों को संविधान जो “बुनियादी सुविधाएँ” देता है; वह हैं नागरिकों के मौलिक अधिकार।

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इस ऐतिहासिक मुकदमे के लिए हमेशा पालकीवाला को याद किया जायेगा। लोग न सिर्फ़ मुकदमों में उनकी दलील या बहस सुनने जाते थे, बल्कि लोग बजट भी पालकीवाला से सुनना पसंद करते थे। कहा जाता था कि बजट पर दो ही भाषण सुने जाने चाहिए- एक वित्त मंत्री का बजट पेश करते हुए और दूसरा नानी पालकीवाला का उसकी व्याख्या करते हुए। उनके व्याख्यान इतने लोग सुनते कि मुंबई में स्टेडियम बुक किए जाते थे।

1970 के दशक में तत्कालीन कानून मंत्री पी गोविंद मेनन ने उनको अटॉर्नी जनरल बनने की पेशकश की थी। पर उन्होंने सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि अगर वे इस पद पर बैठ गये तो आम लोगों की आवाज़ नहीं बन पायेंगें। कुछ इसी तरह जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनने का ऑफर आया तो उन्होंने तब भी विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया।

साल 1977 से लेकर 1979 तक नानी पालकीवाला अमेरिका में भारतीय राजदूत रहे। यहाँ एक बार अपने भाषण में उन्होंने कहा था,

“भारत एक ग़रीब देश है, हमारी ग़रीबी भी एक ताक़त है जो हमारे राष्ट्रीय स्वप्न को पूरा करने में सक्षम है। इतिहास गवाह है कि अमीरी ने मुल्क तबाह किये हैं, कोई भी देश ग़रीबी में बर्बाद नहीं हुआ… हमारी सभ्यता 5000 साल पुरानी है। भारतीयों के जीन इस तरह के हैं जो उन्हें बड़े से बड़ा कार्य करने के काबिल बनाते हैं।”

वे अमेरिका में इतने लोकप्रिय हुए कि वहां के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय उन्हें लेक्चर देने के लिए आमंत्रित करते थे।

अक्सर पालकीवाला के लिए कहा जाता है कि वे ‘राष्ट्र के अन्तःकरण’ को बनाए रखने वालों में से थे। साल 1998 में उन्हें ‘पद्मविभुषण’ से नवाज़ा गया।

साल 2002 में 82 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। पालकीवाला जैसे लोग विरले ही जन्म लेते हैं। वे सच्चे मायनों में भारत के ‘अनमोल रत्न’ थे। उनके जैसे महान व्यक्तित्व के लिए बस यही श्रद्धांजलि होगी कि हम अपने देश के संविधान को जाने-समझे और इसकी गरिमा बनाये रखें।

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