बुजुर्गों की माधुरी माँ, जो बच्चों की तरह करती हैं उनकी देखभाल!

‘अपना घर’ केवल नाम का ही ‘अपना’ नहीं है। यहाँ रहने वाले बुजुर्गों को हर वो आज़ादी है, जो शायद कभी उन्होंने अपने घर में महसूस की होगी।

‘रिश्ता’ एक ऐसा शब्द है जिसके बिना जिंदगी अधूरी है। उम्र के आखिरी पड़ाव में जब सब कुछ तेजी से भागता नज़र आता है, तब रिश्ते ही ठहराव का काम करते हैं। भोपाल के ‘अपना घर’ में उन लोगों की ‘अधूरी जिंदगी’ में फिर से रिश्तों के रंग भरे जा रहे हैं, जिन्हें उनके अपने ही अपने हाल पर छोड़ गए। ‘अपना घर’ 25 बेसहारा बुजुर्गों का आशियाना है। एक ऐसा आशियाना, जहां प्यार है, तकरार है, अपनापन है और सम्मान भी।

सम्मान उस शख्सियत के प्रति जिसने अपना पूरा जीवन ईंट-पत्थर के मकान को ‘घर’ बनाने में लगा दिया। वो घर जहां कल के अजनबी, आज एक परिवार की तरह रहते हैं। 53 वर्षीय माधुरी मिश्रा इस परिवार की मुखिया हैं। उन्होंने 2012 में ‘अपना घर’ वृद्धाश्रम की शुरुआत की।

 

माधुरी उन लोगों में से हैं, जिन्हें दूसरों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने में ही ख़ुशी मिलती है, फिर भले ही इसके लिए खुद परेशानी क्यों न उठानी पड़े।

माधुरी मिश्रा और अपना घर के एक सदस्य.

उम्र के इस पड़ाव पर जब लोग आराम से जिंदगी गुजारना चाहते हैं, माधुरी की चाहत अपने हम उम्र के बच्चों (वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्गों को वह अपने बच्चे मानती हैं) के हर उस सपने को पूरा करने की है, जो उन्होंने कभी देखा था।

इस बारे में वह कहती हैं ”हर इंसान सपने देखता है, कुछ वह जवानी में पूरा कर लेता है और कुछ को बुढ़ापे के लिए बचाकर रखता है। मैं बस यही चाहती हूँ कि इनके अधूरे सपनों को पूरा कर पाऊं, इसलिए जब उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ का आयोजन हुआ तो हम सभी वहां गए। हालांकि, इतने बुजुर्गों को साथ लेकर जाना आसान नहीं था, (हँसते हुए वैसे मैं भी बुजुर्ग ही हूँ) लेकिन सबकुछ बहुत अच्छे से हुआ। अपना घर में हम गणेशोत्सव से लेकर दुर्गापूजा तक हर त्यौहार धूम-धाम से मनाते हैं, हाल ही में हमने तीज भी मनाया था”।

 

‘अपना घर’ केवल नाम का ही ‘अपना’ नहीं है। यहाँ रहने वाले बुजुर्गों को हर वो आज़ादी है, जो शायद कभी उन्होंने अपने घर में महसूस की होगी।

 

कोलार इलाके के सर्वधर्म बी सेक्टर की एक तीन मंजिला इमारत से यह वृद्धाश्रम संचालित होता है। जब माधुरी ने ‘अपना घर’ की शुरुआत की तब इस इमारत का किराया 25 हजार था, जो आज 40 हजार पहुँच गया है। लगातार बढ़ता किराया और महंगाई से माधुरी परेशान तो होती हैं, लेकिन यह विश्वास जताना भी नहीं भूलती कि अच्छा करने वालों को मदद मिल ही जाती है।

माधुरी से ‘माधुरी माँ’ बनने की शुरुआत भले ही 30 साल पहले हुई हो, लेकिन इसका बीज तभी फूट गया था जब वह महज 17 साल की थी। इस बारे में वह बताती हैं, ”मेरे पिता मध्य प्रदेश पुलिस में डीएसपी थे और माँ गृहणी। एक बार हमारे पड़ोस में किसी की मौत हो गई, तब माँ ने मेरे नवजात भाई को मेरे हवाले छोड़कर जिस तरह से दुःख की घड़ी में उनकी सहायता की, उससे मैं काफी प्रभावित हुई। हमारे आस-पड़ोस में जब भी किसी को कोई परेशानी होती, वो सबसे पहले माँ के पास आता। उन्हें इस तरह लोगों की मदद करते देख मुझे बहुत ख़ुशी होती थी और उसी ख़ुशी को मैंने अपना जीवन बना लिया है।”

बुजुर्गों की लाठी बनने से पहले माधुरी ने गरीब, अनाथ बच्चों में शिक्षा की अलख जगाई। उन्होंने भोपाल की झुग्गी बस्तियों में घूम-घूमकर बच्चों को न केवल पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि इसमें उनकी हर संभव सहायता भी की। इतना ही नहीं, उन्होंने कई विधवा महिलाओं का पुन: विवाह भी करवाया। आज भी वे महिलाएं हर तीज-त्यौहार पर अपनी मुंह बोली ‘माँ’ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलती।

‘अपना घर’ अस्तित्व में आने से पूर्व माधुरी मिश्रा बुजुर्गों के लिए काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन से भी जुड़ी हुई थी, जब उन्होंने उसका दामन छोड़ा तो कुछ बुजुर्ग भी उनके साथ आ गए।

अपने प्रति बेसहारा बुजुर्गों के इस प्यार को देखकर माधुरी अभिभूत तो हुई, लेकिन चुनौती थी उनके लिए एक नया आशियाना खोजने की और यह काम बिल्कुल भी आसान नहीं था। कुछ दिन उन्होंने सभी को अपने घर में रखा और फिर परिवार के सहयोग से कोलार में एक तीन मंजिला मकान किराए पर ले लिया। माधुरी के लिए बुजुर्गों को अकेला छोड़ना मुमकिन नहीं था, इसलिए खुद भी उनके साथ रहने के लिए पूरे परिवार सहित जवाहर चौक से कोलार आ गई। वृद्धाश्रम का नाम ‘अपना घर’ रखने के पीछे कोई खास वजह ?

इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं ”जो सुकून और आराम आपको अपने घर में मिलता है वो कहीं और नहीं मिल सकता। हमने कभी इस वृद्धाश्रम और यहाँ रहने वालों को अजनबी नहीं माना, हम सभी एक परिवार की तरह यहाँ रहते हैं। इसलिए इसका नाम ‘अपना घर’ रखा गया है।”

माधुरी के पति राजेंद्र मिश्रा आयुर्वेदिक चिकित्सक है, बड़ी बेटी पढ़ाई पूरी कर चुकी है और छोटी कॉलेज में पढ़ रही है। सभी के लिए ‘अपना घर’ और उसमें रहने वाले सबसे ज्यादा अहमियत रखते हैं। माधुरी अपनी बेटियों को खुश नसीब मानती हैं कि उन्हें इतने दादा-दादी का प्यार और आशीर्वाद मिल रहा है।

जब आप समाज के लिए कुछ करते हैं, तो आपको समाज के ही विरोध और आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, क्या आपसे साथ भी ऐसा हुआ?

इस बारे में वह कहती हैं, ”जिस तरह जीने के लिए ऑक्सीजन ज़रूरी है, वैसे ही मेरे लिए समाज सेवा। मैं बचपन से ही दूसरों के लिए कुछ करना चाहती थी, उनके चेहरे पर मुस्कान बिखेरना चाहती थी। उम्र के साथ-साथ यह भावना और बढ़ती गई, मैं कई एनजीओ से जुड़ी। अपने स्तर पर भी काफी कुछ किया। मेरे माता-पिता ने मुझे कभी नहीं रोका, लेकिन शादी के कुछ साल बाद हालात बदल गए। मेरी शादी टीकमगढ़ के रसूखदार खानदान में हुई थी और ससुरालवाले चाहते थे कि मैं समाजसेवा से दूर रहूँ, जो मेरे लिए मुमकिन नहीं था। मैं ससुराल छोड़कर भोपाल आ गई, इस फैसले में मेरे पति भी मेरे साथ थे और आज भी वह मेरे सपने को अपना सपना मानकर जी रहे हैं।”

40 हजार रुपए किराया सहित ‘अपना घर’ के संचालन में हर महीने भारी-भरकम खर्चा होता है। इसका खर्च पहले तो माधुरी जी के पिता की पेंशन से होता था लेकिन पिता के देहांत के बाद पेंशन आधी हो गई। हालाँकि माधुरी की माँ वह आधी पेंशन भी उन्हें दे देती हैं।

अपना घर

इसके अलावा, माधुरी के दोनों भाई और कई अन्य लोग भी मदद करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो समय-समय पर अपना घर के सदस्यों के लिए खाने-पीने का सामान लेकर आते हैं और उन्हें अपने हाथों से परोसने का सुख प्राप्त करते हैं।

‘अपना घर’ में रहने वाले बुजुर्गों को देखकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि वे अब भी उस दर्द से पीड़ित हैं, जो उनके अपनों ने उन्हें दिए थे। वह हँसते हैं, मुस्कुराते हैं और गाने भी सुनाते हैं। फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफसीआई) से जुड़े रहे रमेश चंद्र दुबे अपने अतीत के बारे में ज्यादा कुछ बताना नहीं चाहते। वह वर्तमान में खुश है और इसी ख़ुशी में उन्होंने ‘अजी रूठकर अब कहाँ जाइएगा’ गाना भी सुनाया। रमेश की तरह सुधीर भी संगीत के शौक़ीन है। उन्होंने ‘एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’ सुनाकर ‘अपना घर’ में मिल रही खुशियों को बयां किया।

इस वृद्धाश्रम की एक और खास बात यह है कि यहाँ ‘दादी-दादी की चौपाल’ लगती है, जिसमें बच्चों से लेकर युवा तक शिरकत करते हैं। इस चौपाल को शुरू करने के पीछे उनके दो उद्देश्य थे। पहला, बच्चे बुजुर्गों से मिलेंगे, उनके अनुभव और ज्ञान से कुछ सीखेंगे। बुजुर्गों को भी उनका साथ अच्छा लगेगा, उनका खालीपन कम होगा और दूसरा एवं सबसे महत्वपूर्ण यह कि बच्चों में संयुक्त परिवार की धारणा को मजबूत किया जा सकेगा।

माधुरी मिश्रा केवल बेसहारा बुजुर्गों की लाठी ही नहीं बनती बल्कि उन्हें बेसहारा करने वालों के दिल में फिर से उनके प्रति प्यार जगाने का प्रयास भी करती हैं।

इस बारे में उन्होंने कहा, ”अपनों से अलगाव का दर्द शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, इसलिए मेरी कोशिश रहती है कि बेसहारा किए गए बुजुर्गों के परिवार से बात करके उनके बीच की कड़वाहट को दूर कर सकूँ, हालांकि ये बहुत मुश्किल होता है।”

माधुरी आमिर खान के चर्चित शो ‘सत्यमेव जयते’ में भी अपनी बात रख चुकी हैं। समाज के लिए उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी समाज सेवा सहित अनगिनत पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

‘द बेटर इंडिया’ के माध्यम से माधुरी मिश्रा बस इतना ही कहना चाहती हैं कि उन लोगों को बेसहारा न छोड़े, जो ताउम्र आपका सहारा बने रहे। यदि आप भी ‘अपना घर’ या माधुरी मिश्रा के अभियान में सहयोगी बनना चाहते हैं तो आप उनसे 098935 98376 पर संपर्क कर सकते हैं।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X