उत्तराखंड के नैनीताल स्थित तल्ला गेठिया गाँव को राज्य का हस्तशिल्प गाँव कहा जाता है। इस गाँव की महिलाएं हाथ से ही एक से बढ़कर एक कलात्मक चीजें बनाती हैं। पारंपरिक आभूषणों से लेकर घऱ में बने मसाले तक यहां की महिलाएं बनाती हैं, जिस वजह से देश से लेकर विदेशों तक इस गाँव की चर्चा होती है। इस गाँव की महिलाएं हाथ के हुनर से अपना घर चला रही हैं।
यह सब संभव हो पाया है एक व्यक्ति की कोशिश और पहाड़ की महिलाओं के लिए कुछ करने की चाह से। गौरव अग्रवाल जो खुद पहाड़ों में पले-बढ़े और फिर खाटिमा से निकलकर नौकरी के लिए दिल्ली पहुँच गए। उन्होंने बीकॉम के बाद पत्रकारिता की और कई वर्षों तक मीडिया संस्थानों के साथ काम भी किया। हालांकि पहाड़ों के प्रति उनका जो लगाव था, वह हमेशा उन्हें वापस लाता रहा। हर साल अपने दोस्तों या फिर अकेले, वह पहाड़ों की यात्रा पर निकल आते।
गौरव ने द बेटर इंडिया को बताया, “मुझे पहाड़ घूमना पसंद है लेकिन इसके लिए मैं मशहूर टूरिस्ट प्लेस नहीं जाता था। बल्कि मैं पहाड़ों की तलहटी में कभी पहाड़ों के ऊपर बसे छोटे-छोटे गांवों की यात्रा करता। यहाँ पर मैंने जो जनजीवन देखा, उसने मुझे काफी प्रभावित किया। शाम होते ही अंधेरे में गुम होते गाँव, दूर-दूर तक कोई अस्पताल नहीं, बाज़ार जाने के लिए दो-तीन पहाड़ों को पार करना और सबसे बड़ी समस्या पलायन, क्योंकि कोई रोज़गार नहीं है यहाँ और खेतों में कुछ बचता नहीं।”
कैसे हुई शुरूआत:
सालों से गौरव पहाड़ों में यही स्थिति देख रहे थे। हर बार वह कोई नए गाँव पहुंचते और हर बार यही सोचते कि वह उनके लिए क्या कर सकते हैं? यात्रा के दौरान उनका तल्ला गेठिया गाँव जाना हुआ। गाँव में उन्होंने एक खास बात देखी और वह थी यहां की महिलाओं के हाथ का हुनर। तल्ला गेठिया की रहने वाली रजनी देवी गाँव की औरतों और लड़कियों को सिलाई का प्रशिक्षण देती थीं, जिससे यह महिलाएं महीने के 300-400 रुपये कमा पाती थीं।
हमारे लिए यह पैसे भले ही बहुत कम हों लेकिन उन महिलाओं के लिए यह भी बहुत कुछ थे। गौरव ने रजनी देवी से बात की और जाना कि कैसे सुई-धागे के काम से भी सुंदर से सुंदर चीजें बन सकती हैं। किसी भी काम के लिए मशीन की ज़रूरत नहीं है। गौरव ने महिलाओं की इस कारीगरी को और निखारने की ठानी और उनसे कपड़े की ज्वैलरी बनाने के लिए कहा। रजनी देवी के लिए यह बहुत नया था लेकिन उन्होंने गौरव को आश्वासन दिलाया कि वह ज़रूर कुछ न कुछ कर लेंगी।
गौरव बताते हैं कि रजनी देवी ने अपनी बेटी नेहा के साथ मिलकर सबसे पहले कपड़े से गलूबंध बनाया। ‘गलूबंध’ उत्तराखंड का पारंपरिक आभूषण है। इसे पॉपुलर ट्रेंड में ‘चोकर’ भी कहा जाता है। पारंपरिक गलूबंध में सोने का काम होता है लेकिन रजनी देवी ने कपड़े के ऊपर कारीगरी करके बहुत ही खूबसूरत ‘गलूबंध’ बनाया। इसके बाद, उन्होंने बहुत अलग-अलग डिज़ाइन में झुमके, पायल, कमरबंद जैसे आभूषण भी कपड़े से बनाकर गौरव के सामने रखे।
गौरव ने बताया, “एक-डेढ़ साल तक हमारा यह प्रोजेक्ट ट्रायल पर चला और जब हमारे पास काफी डिज़ाइन हो गए और अन्य महिलाएं भी हमसे जुड़ने लगीं तब हमने ‘कर्तव्य कर्मा संस्था’ की नींव रखी। साल 2014 में शुरू हुए इस संगठन में मैंने अपनी बचत के पैसे लगाए। इस सबके दौरान मुझे मेरी पत्नी का पूरा सहयोग मिला। ”
कपड़े के आभूषणों से लेकर घर पर बने मसालों तक:
कर्तव्य कर्मा संस्था ने इन महिलाओं के द्वारा बनाए गए सभी उत्पादों को सोशल मीडिया के ज़रिए लोगों तक पहुंचाना शुरू किया। साथ ही हस्तशिल्प मेलों में, आयोजनों और प्रदर्शनियों में वह इन उत्पादों को लेकर पहुंच जाते थे। उन्होंने इन आभूषणों के लिए मॉडल अपनी कारीगरों को ही बनाया। वह बताते हैं, “मुझसे अक्सर यहां की महिलाएं पूछती थी कि ‘हमारा सामान कौन खरीदेगा? हम तो गाँव के लोग हैं, हमारी क्या पहचान।’ लेकिन मैंने उनसे वादा किया था कि उन्हें उनकी पहचान ज़रूर मिलेगी।”
इन महिलाओं का अपने काम पर विश्वास तब बना जब विदेश से भी लोग यहां पहुंचने लगे। फेसबुक पर तल्ला गेठिया के बारे में एक पोस्ट देखकर, न्यूयॉर्क की एक वेडिंग प्लानर की टीम यहां पर आई। वह विदेशी टीम भारत में ही अलग-अलग ज्वेलरी और डिज़ाइन पर रिसर्च कर रही थी। उन्हें जब कपड़े की ज्वैलरी का पता चला तो वह खुद को रोक ही नहीं पाए। उनके आने के बाद गाँव को सोशल मीडिया पर ‘हैंडीक्राफ्ट विलेज/हस्तशिल्प गाँव’ कहा जाने लगा।
आज इस गाँव की 40 महिलाएं यह काम करती हैं और इनके अलावा लगभग 70 और महिलाओं ने भी ट्रेनिंग ली है जिनमें दूसरे गाँव की महिलाएं भी शामिल हैं।
गौरव बताते हैं, “इन महिलाओं में से कुछ कपड़े के आभूषणों का काम करती हैं तो कुछ को हमने बुनाई का काम दिया है। वह स्वेटर, शाल, टोपी आदि बनाती हैं। फिर हमारे पास कुछ ऐसी महिलाएं हैं जिनका हाथ आर्ट और क्राफ्ट पर नहीं बैठता, लेकिन उन्हें रोज़गार की ज़रूरत थी। ऐसे में हमने सोचा कि क्यों न पहाड़ों में उगने वाली जड़ी-बूटियों और मसालों को प्रोक्योर किया जाए। इनसे हम जैविक चाय के अलग-अलग विकल्प और जैविक मसाले तैयार करवा रहे हैं। इन्हें कूटने से लेकर साफ़-सफाई तक का सभी काम महिलाएं संभालती हैं।”
उन्होंने अपने इन सभी उत्पादों को ‘पहाड़ी हाट‘ के ब्रांड नाम से बाज़ारों में उतारा है। उनके प्रोडक्ट्स प्राइवेट क्लाइंट्स से लेकर जर्मनी और जकार्ता तक जाते हैं।
‘ऐपण कला’ को सही पहचान देने की कोशिश:
उत्तराखंड की स्थानीय कला ऐपण को लेकर भी गौरव काम कर रहे हैं। पहाड़ों पर किसी भी मांगलिक कार्य के लिए और त्योहारों पर घर के बाहर आंगन में और दीवारों पर गेरू से लीपा जाता है। फिर चावल का पेस्ट बनाकर उससे अलग-अलग कलाकृतियां बनाई जाती हैं।
गौरव कहते हैं, “अफ़सोस की बात यह है कि जैसे हमारे देश में लोग मधुबनी आर्ट, वरली आर्ट का नाम जानते हैं वैसे ऐपण का नाम बहुत ही कम लोग जानते हैं। इसलिए हमने कोशिश की कि क्यों न हम इसे किसी न किसी तरीके से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाए। इसका सबसे अच्छा तरीका था स्टेशनरी। हमने डायरी, बैग्स और पोस्ट कार्ड आदि पर ऐपण आर्ट करना शुरू किया।”
एक बार उनके यहां घुमने आए एक विदेशी ने उन्हें पोस्ट कार्ड दिया, जिस पर एफिल टावर बना हुआ था। वहां से गौरव को ख्याल आया कि क्यों न वह भी पोस्टकार्ड बनवाएं। उनके पोस्ट कार्ड इन विदेशी मेहमानों के बीच खूब मशहूर हैं। पहले सिर्फ आंगन में या फिर दीवारों पर ऐपण कला होती थी लेकिन अब तल्ला गेठिया के उत्पादों के माध्यम से यह देश-विदेश में लोगों के हाथों में पहुंच रही है।
बॉलीवुड तक पहुंचा नाम:
जब वरुण धवन और अनुष्का शर्मा की फिल्म सुई-धागा रिलीज़ हुई थी तो गौरव ने ट्विटर पर तल्ला गेठिया की महिलाओं के बारे में लिखा। इस पर उनको वरुण धवन ने जवाब दिया कि उम्मीद है कि हमारी कहानी के पात्रों से आप जुड़ाव महसूस करेंगे।
वरुण धवन के इस एक जवाब ने तल्ला गेठिया को अलग पहचान दी बहुत से लोगों ने इसके बाद तल्ला गेठिया के बारे में जानने की कोशिश की। अलग-अलग जगहों से महिलाओं के लिए सराहना भरे सन्देश आए जिससे उनका मनोबल काफी बढ़ा।
गौरव की आगे कोशिश है कि वह और भी प्रोडक्ट्स जैसे साबुन-शैम्पू और मोमबत्ती आदि बनाने की ट्रेनिंग इन महिलाओं को दिलाएं। साथ ही, आजीविका के इस सस्टेनेबल मॉडल को वह दूसरे गांवों तक ले जाने की कवायद में भी जुटे हैं। बहुत से डिजाइनिंग कॉलेजों के छात्र-छात्रा उनके यहाँ इंटर्नशिप के लिए आना चाहते हैं। इसके लिए भी वह साधन जुटा रहे हैं ताकि उनके रहने और ठहरने की व्यवस्था हो सके।
वह कहते हैं कि सरकार से उन्हें भले ही कोई वित्तीय सहायता नहीं मिली हो लेकिन उनके काम की पहचान ज़रूर मिल रही है। गौरव सीमित साधनों में भी इस गाँव को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने में कामयाब रहे हैं। उनकी कोशिश यही है कि पहाड़ों के दूसरे गाँव भी इसी तरह अपनी पहचान बनाएं। लेकिन इसके लिए उन्हें हम सबके साथ ही ज़रूरत है।
अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप गौरव अग्रवाल को 096256 89172 पर कॉल कर सकते हैं। साथ ही, इन महिलाओं द्वारा बनाए गये उत्पाद देखने और खरीदने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
तस्वीर साभार: गौरव अग्रवाल
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